मेजर जनरल सुनील राजदान ने कश्मीर की 14 बेटियों की रक्षा में लगा दी थी जान की बाजी
सुनील राजदान सेना के ऐसे पहले अधिकारी हैं जिन्हें व्हीलचेयर पर होने के बावजूद मेजर जनरल की प्रोन्नति मिली।
गुरुग्राम [पूनम]। देशवासियों के लिए प्रेरणा हैं भारत मां के सपूत मेजर जनरल सुनील राजदान। वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने आतंकवादियों को ढेर करते-करते अपने रीढ़ को जख्मीकर खुद को दिव्यांग बना लिया। उन्होंने व्हीलचेयर पर बैठना गंवारा तो किया मगर देश के प्रति अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटे।
वे ऐसे सैन्य अधिकारी हुए जिन्होंने व्हीलचेयर पर बैठकर ही आतंकवादियों को खदेड़ने के लिए नीतियां बनाई और जवानों का नेतृत्व करते हुए लश्कर-ए-तोएबा के आतंकियों को नेस्तनाबूद करने में खुद को समर्पित कर दिया। ऐसे भारत मां के वीर सपूत मेजर जनरल सुनील राजदान की जिंदादिली उनके शौर्य के साथ ही घुली मिली है। कश्मीर की बेटियों को आतंकियों की कुचेष्टा से बचाने में वे बुरी तरह से घायल हो गए। रीढ़ की हड्डी के क्षतिग्रस्त होने से पैरालाइज (दिव्यांगता) के शिकार होने के बाद भी अपने कर्तव्य को निभाने से पीछे नहीं हटे।
सुनील राजदान सेना के ऐसे पहले अधिकारी हैं, जिन्हें व्हीलचेयर पर होने के बावजूद मेजर जनरल की प्रोन्नति मिली। उन्होंने असिस्टेंट चीफ इंटीग्रेटेड डिफेंस (काउंटर टेररिज्म) के रूप में काम करते हुए लश्कर के आतंकवादियों को खदेड़ने में कामयाबी पाई थी। व्हीलचेयर पर होने के बावजूद उन्होंने अंडमान निकोबार में रहकर आतंकवादियों के खिलाफ रणनीति बनाने में अहम भूमिका निभाई। सेना के कई सम्मान मेजर जनरल सुनील के नाम हो चुके हैं।
उन्होंने 16 घंटे के ऑपरेशन में कश्मीर की उन 14 बेटियों को छुड़ा लिया था जिन्हें आतंकी उठा ले गए थे। यही नहीं बेटियों को छुड़ाने के दौरान तीन आतंकियों को ढेर भी कर दिया था। इसी दौरान उनके पेट में गोली लगी। इस गोली से उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। उस हालत में भी उन्होंने रेडियो के जरिये अपने लोगों को सूचना दी। बुरी तरह से घायल होने पर अपने पेट पर पट्टी बांधी और सुदूर गांव में जहां कोई डॉक्टर नहीं था, उन्होंने खुद ही डिप लगाकर ग्लूकोज चढ़ाया।
वे बताते हैं कि आठ अक्टूबर 1994 की बात है, उस दिन मेरा जन्मदिन था। जब हमें पता चला कि कुछ आतंकवादी 14 लड़कियों को उठा ले गए हैं तब हमने सुबह से ही उनको ढूंढना शुरू कर दिया। गांव-गांव तलाश करते दूरदराज के एक गांव में गए तो देखा कि मकान के तिमंजिले में लालटेन जल रही है। रात के नौ बजे थे। वहां लोग इस वक्त सो जाते हैं। लेकिन उस घर से घी की खुशबू आ रही थी।
लोग आमतौर पर वहां सरसों के तेल से खाना बनाते हैं। वहां जाकर ताकझांक की तो वे लड़कियां मिल गई जिन्हें आतंकवादी उठा लाए थे। उन लड़कियों से पूछताछ करने पर उन्होंने ने भी हमें आतंकवादी ही समझा। फिर हम उन्हें समझाने में सफल रहे कि वे आंतकवादी नहीं बल्कि सेना के अधिकारी हैं। उन्हें हमारी बात पर विश्वास हो गया तब हमने उन्हें खिड़की से निकालना शुरू किया। इस बीच एक आतंकवादी आवाज सुनकर हम लोगों की ओर चला आया।
मैंने फौरन उसे मार गिराया। दूसरे को भी मार दिया। हमें लगा कि तीसरे को भी मैने मार दिया है लेकिन वह मरा नहीं था। उसने मुझ पर गोली चला दी जो मेरे पेट से होती हुई रीढ़ की हड्डी से निकल गई। मैंने पेट को साफे बांधकर से बहते खून को रोकने की कोशिश की। मुझे स्थानीय भाषा आती थी। इससे मुझे आतंकवादियों की बातचीत समझने में आसानी हो गई। मैंने अपने लोगों को अपने बारे में रेडियो से सूचित कर दिया।
लड़कियों को आतंकवादियों के चंगुल से छुड़ाने के अभियान के बाद ग्लूकोज की 16 थैलियां मैंने खुद को डिप लगाकर चढ़ाई थी। वर्ष 1996 में सुनील राजदान को आतंकवाद के खिलाफ इस साहसिक शौर्य प्रदर्शन के लिए कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया। उनकी मानसिक क्षमता को देखते हुए सेना ने वर्ष 2010 में उन्हें मेजर जनरल पद पर पदोन्नति दे दी। वे ऐसे पहले सैन्य अधिकारी बन गए जो व्हीलचेयर पर होने के बावजूद पदोन्नति पा गए।
वे नवंबर 2012 में सेना से सेवानिवृति के बाद गुरुग्राम में रह रहे हैं मगर वे देशहित में किए गए अपने कार्यों से सेवानिवृत नहीं हुए। आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेकने के लिए लगातार सक्रिय हैं। पिछले दिनों उन्होंने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर खुशी जाहिर करने लोगों के बीच पहुंचे थे। व्हीलचेयर पर होने के बाद भी अपने 90 से 95 फीसद अपने व्यक्तिगत कार्य खुद करते हैं। अपनी कार खुद चलाते हैं और इसके उन्हें कार को परिष्कृत किया है।
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