छठ विशेष: पहचान का पर्व बना जलीय संस्कृति से जुड़ा छठ
छठ पूजा को लेकर कई मान्यताएं और पौराणिक कथाएं भले ही अनेक हों लेकिन व्रत को लेकर लोगों की श्रद्धा एक ही है। लोग षष्ठी माता की पूजा और सूर्य को अर्ध्य देकर संतान की कुशलता के लिए व्रत रखते हैं। हालांकि पूर्वांचल के लोग इसे उसी शिद्दत और नियमों के साथ मनाते हैं लेकिन धीरे-धीरे इस पर्व का असल मकसद खो गया है। हालांकि आज भी लोगों में आस्था और श्रद्धा उसी स्तर की है लेकिन वक्त के साथ यह कुछ बदलावों से गुजरा है।
प्रियंका दुबे मेहता, गुरुग्राम
छठ पूजा को लेकर भले ही कई मान्यताएं और पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन व्रत को लेकर लोगों की श्रद्धा एक ही है। लोग षष्ठी माता की पूजा और सूर्य को अर्घ्य देकर संतान की कुशलता के लिए व्रत रखते हैं। खासकर पूर्वांचल के लोग इसे बहुत उत्साह से मनाते हैं। हालांकि आज भी लोगों में आस्था और श्रद्धा पूरी है लेकिन वक्त के साथ यह कुछ बदलावों से गुजरा है। हर तरफ बिखरा छठ का प्रकाश
दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज में इतिहास विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर सविता झा का कहना है कि पर्व के पूजन में कोई विशेष अंतर नहीं आया है लेकिन इसका जलीय संस्कृति के संरक्षण का उद्देश्य बदल गया है। छठ पर्व का प्रचलन महाभारतकालीन माना जाता है लेकिन इसका असल मकसद जलीय संस्कृति को बचाने का रहा है। ग्रामीण इलाकों में पोखर व ताल को बचाए रखने के अलावा इसे सूर्य देव व षष्ठी माता से भी जोड़ा जाता है और इसकी अनेक कथाएं प्रचलित हैं। इस पर्व की उत्पत्ति के बारे में तमाम मत हैं। कोई इसकी शुरुआत मिथिला से मानता है तो कोई मगध से।
कामकाज और नौकरी के सिलसिले में लाखों की संख्या में बिहार और उत्तर प्रदेश से लोग दिल्ली एनसीआर या मुंबई आदि गए। सविता झा के मुताबिक व्यापक स्तर पर लोगों के दूसरे राज्यों में जाने से देश भर में यह पर्व फैल गया है। पूर्वांचल के लोग मूल स्थान से जहां भी गए, इस पर्व में गहरी आस्था के चलते इसे छोड़ नहीं पाए। जहां कहीं गए इस पर्व को साथ ले गए। छठ पर्व बनी पहचान की संस्कृति
आस्था के इस पर्व को लोग धीरे-धीरे इसे पहचान की संस्कृति के तौर पर देखने लगे हैं। महाराष्ट्र में जहां इस पर्व पर संकट के बादल मंडराए तो दिल्ली एनसीआर में अब दीपावली के साथ साथ छठ की शुभकामनाओं के संदेशों से मोहल्ले की दीवारें पटी रहती हैं। पहचान की राजनीति में भी छठ से पूर्वांचली तत्व हावी हो गया है। सविता के मुताबिक इसके पूजन को लेकर कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन वह चीजें बदल गई हैं जिसमें गेहूं को धोने से लेकर उसे चक्की में पीसने तक काम खुद करना होता था। आम की लकड़ी व चूल्हे पर ठेकुआ बनता था जो कि अब गैस पर बनने लगा। अब केवल बरतन बदल दिए जाते हैं। राजपत्रित अवकाश तक पहुंचा त्योहार
सविता झा के मुताबिक छठ अब दिल्ली एनसीआर में आस्था से ज्यादा राजनीति का पर्व हो गया है। पहचान की राजनीति व संस्कृति में दूसरे समाज के लोग भी न केवल इसे अपनाने लगे हैं बल्कि इसमें पूरा पूरा सहयोग भी कर रहे हैं। अब छठ पर दिल्ली में राजपत्रित अवकाश होने लगा है। ईस्ट दिल्ली से लेकर पॉश साउथ दिल्ली की गलियों तक में छठ की छटा दिखाई देती है। अब यह पर्व इस कदर लोगों की आस्था का प्रतीक बन गया है कि दिल्ली के कैलेंडर का एक हिस्सा बन गया है। मनोरंजन संस्कृति को मिला बढ़ावा
पहले यह हुआ करता था कि श्रद्धालु व्रत से पहले की रात नदियों या पोखर के घाट पर गुजारते और सुबह फिर अर्घ्य देते थे। इस दौरान लोग रतजगा करते थे और उनका मनोरंजन करने के लिए नटुआ नाच हुआ करता था। अब नटुआ नाच की वह पारंपरिक संस्कृति तो विलुप्त हो गई लेकिन उसके बदले मनोरंजन उद्योग को काफी बढ़ावा मिला है। अब इसके लिए सेलेब्रिटी कलाकार बुलाए जाते हैं और लोकगीतों की सीडी रिलीज कर करोड़ों कमाते हैं। जाति धर्म की परिधियों को तोड़ लोग अपना रहे हैं त्योहार
छठ पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें मूर्तिपूजा नहीं होती, न ही इसमें पूजा के लिए किसी पंडित की जरूरत पड़ती है। जाति-धर्म और अमीर-गरीब से ऊपर उठकर लोग इसे समान रूप से अपना रहे हैं। ऐसे में देखने में आता है कि मुस्लिम धर्म के लोग भी छठ व्रत व पूजन करते हैं। सविता झा के मुताबिक इस पर्व में आपको सूर्य को अर्घ्य देना होता है। सूर्य सबको दिखता है और सबके लिए फलदायी होता है। किसी जाति या धर्म का अलग से नहीं है, इसके बिना तो पृथ्वी नहीं चलेगी। इन सभी बातों को देखते हुए लोग तेजी से इस पर्व को अपना रहे हैं। छठ पर्व में पहचान तलाशती नई पीढ़ी
छठ पर्व और इसका व्रत कठिन जरूर है लेकिन नई पीढ़ी भी इसे पूरी शिद्दत से अपना रही है। सविता के मुताबिक जिस प्रकार महाराष्ट्र में गणेश पूजा होती है, वहां की संस्कृति का प्रतीक बनी हुई है इसी तरह नई पीढ़ी छठ में अपनी बिहारी पहचान खोज रही है। वह इसे अपना रही है और इसमें गर्व समझ रही है।