बैलेंस शीट: यशलोक सिंह
पुलिस पर हुई पत्थरबाजी को किसी किसी भी प्रकार से वाजिब नहीं ठहराया जा सकता है।
कामगारों की चिता समझे सरकार
पुलिस पर हुई पत्थरबाजी को किसी किसी भी प्रकार से वाजिब नहीं ठहराया जा सकता है। दिल्ली-गुरुग्राम सीमा पर बुधवार को कामगारों और पुलिस के बीच जो झड़प हुई उसे उद्योग जगत के लोगों ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया। इनका कहना है कि इस प्रकार की घटनाएं मन तो दुखाती हैं, मगर सोचने वाली बात यह है कि आखिर कामगारों को इस प्रकार का कदम क्यों उठाना पड़ा। कोरोना काल में वह अपने रोजगार और परिवार के भरण-पोषण को लेकर काफी चितित हैं। औद्योगिक इकाइयों के खुलने के बाद भी वह दिल्ली सीमा पर भारी सख्ती के कारण गुरुग्राम क्षेत्र में दाखिल नहीं हो पा रहे हैं। यही कारण है कि वह अपना आपा खोते जा रहे हैं। ऐसे में सरकार और प्रशासन को इन कामगारों के अधर में लटके भविष्य को संवारने के लिए ठोस प्रबंध करना चाहिए, जिससे कि भविष्य में इस प्रकार की कोई अप्रिय घटना न घट सके। आंकड़ों की बाजीगरी या खामी
इसे जिला प्रशासन के आकड़ों की बाजीगरी कहें या तकनीकी खामी। जिले में घोषित कंटेनमेंट जोन की संख्या को समीक्षा के बाद घटाया या बढ़ाया जाता है। इसी कड़ी में आठ मई को जोन की समीक्षा के बाद जो लिस्ट जारी की गई थी उसमें कंटेनमेंट एरिया झाड़सा विलेज सेक्टर-39 में लास्ट कोरोना पॉजिटिव केस मिलने की तिथि चार मई दी गई थी। वहीं 20 मई को जारी कंटेनमेंट जोन की रिवाइज्ड लिस्ट में झाड़सा विलेज सेक्टर-39 कंटेनमेंट एरिया में अंतिम बार मिले कोरोना केस की तिथि को दो मई कर दिया गया है। ऐसे में लोग तो अब यह तक कह रहे हैं कि जिला प्रशासन कोरोना काल में जमकर आंकड़ों का खेल कर रहा है। इस क्षेत्र में अंतिम बार कोरोना संक्रमित केस चार मई को मिला था या दो मई को इसे जिला प्रशासन को स्पष्ट करना चाहिए। इस प्रकार के आंकड़ों से संशय पैदा होता है। काश हम भी चले गए होते
उद्योग विहार इंडस्ट्रियल एरिया स्थित फैक्टरियों के उन कामगारों का दर्द न सरकार समझ रही है और न ही प्रशासन, जो गुरुग्राम से सटे दिल्ली के क्षेत्र में रहते हैं। दिल्ली सीमा पर सख्ती के कारण वह अपनी फैक्टरी तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। फैक्टरी मालिक उन्हें काम पर बुलाता है। इसके बावजूद वह काम पर नहीं आ पा रहे। दिल्ली के कापसहेड़ा में रहने वाले बिहार निवासी सुरेश कुमार का कहना है कि उनके गांव के लोग वापस चले गए। वह अपने परिवार के साथ यहीं पर रुक गए कि फैक्टरी में काम शुरू होने वाला है। काम शुरू हुआ भी, चार दिन काम भी किया। पांचवें दिन से सीमा पर सख्ती बढ़ गई, जिससे फैक्टरी तक पहुंचना असंभव हो गया। निराश सुरेश कहते हैं कि सिर्फ वह ही नहीं उनके जैसे सैकड़ों हैं जो यही सोच रहे हैं कि काश वह भी अपने गांव लौट गए होते। वेतन मिलते ही हुए गायब
उद्योग जगत के समक्ष अब एक नई चुनौती खड़ी हो गई है। जिससे मुकाबला करना बड़ा ही कठिन है। उद्यमियों का कहना है कि उन्होंने जिन कर्मचारियों को अप्रैल का वेतन दे दिया था उनमें से कई बिना बताए अपने गृह राज्य चले गए हैं। औद्योगिक कामकाज की ²ष्टि से इसे बड़ा झटका माना जा रहा है। उद्यमी संजीव गुप्ता का कहना है कि बड़ी संख्या में औद्योगिक श्रमिक पहले ही अपने-अपने घरों को जा चुके हैं। अब तो बचे हैं उन्हें भी बसों एवं ट्रेनों से सरकार उनके राज्य भिजवा रही है। ऐसे में जिन कर्मचारियों के मूवमेंट पास उद्यमियों ने जिला प्रशासन से बनवा रखे हैं उनमें से कइयों के घर जाने से मुश्किल खड़ी हो गई है। औद्योगिक इकाइयों के पहिए किस प्रकार से घूमेंगे यही सोच कर हर उद्यमी परेशान हैं, जिन्होंने अभी तक कर्मचारियों को वेतन नहीं दिए हैं वह सोच में पड़ गए हैं।