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चुनौतियां नहीं डिगा सकीं डा. काजल का हौसला

चिकित्सक को धरती पर भगवान का दूसरा रूप माना जाता है तो यह ऐसे ही नहीं है। चिकित्सक भी उसी तरह अपनी परवाह किए बिना अपने मरीजों केलिए काम करते हैं। खासतौर पर कोरोनाकाल में इनका जज्बे देखने को मिला।

By JagranEdited By: Published: Fri, 05 Mar 2021 06:04 PM (IST)Updated: Fri, 05 Mar 2021 08:52 PM (IST)
चुनौतियां नहीं डिगा सकीं डा. काजल का हौसला
चुनौतियां नहीं डिगा सकीं डा. काजल का हौसला

अनिल भारद्वाज, गुरुग्राम

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चिकित्सक को धरती पर भगवान का दूसरा रूप माना जाता है, तो यह ऐसे ही नहीं है। चिकित्सक भी उसी तरह अपनी परवाह किए बिना अपने मरीजों केलिए काम करते हैं। खासतौर पर कोरोनाकाल में इनका जज्बे देखने को मिला। जब कोरोना काल में हर कोई एक दूसरे से दूर भाग रहा था, उस समय स्वास्थ्य विभाग के डाक्टर व अन्य स्टाफ कोरोना मरीजों को इलाज देने में लगे थे। डर हर वर्ग में था लेकिन यह कोरोना योद्धा डटे रहे अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में। मरीजों की खातिर डाक्टरों व स्टाफ ने अपने परिवार वालों से दूरी बना ली थी। स्वास्थ्य विभाग की वरिष्ठ फिजिशियन डा. काजल कुमुद ने भी ऐसा ही किया। डा. काजल का कहना है कि उन्हें कई बार घर के बाहर होटल में रहना पड़ता था और जब घर जाती थीं तो आठ वर्षीय बेटे से दूर रहती थीं। कई महीने तक बेटे को पास नहीं आने दिया। डाक्टर का कहना है कि बेटा पास आना चाहता था लेकिन दो गज की शारीरिक दूरी बनाए रखने के लिए बेटे को दूर रखा।

डा. काजल कुमुद ने कहा कि दुनिया जानती थी कि बीमारी है और उससे जीतना है लेकिन ऐसे माहौल में लोगों का नजरिया भी बदल गया। जो लोग सोसायटी में हमेशा एक दूसरे से हंस कर मिलते थे, वही लोग देख कर नजरें चुराने लगे थे। क्योंकि उन्हें डर लगता था कि कहीं हमसे कोरोना वायरस सोसायटी में ना फैल जाए। हर कोई डरा हुआ था। डाक्टर का कहना है कि लोगों का डर जायज था लेकिन मरीजों को इलाज देना उनकी जिम्मेदारी थी और इस जिम्मेदारी के आगे उन्हें कोई और रुकावट नजर नहीं आई।

डा. काजल कुमुद बताती हैं कि लाकडाउन के समय हमें अधिकतर घर से बाहर रहना पड़ा। जब भी घर गए तो जांच कराकर ही गए कि कोरोना वायरस से ग्रस्त तो नहीं है। जब पीपीई किट पहनकर आइसोलेशन सेंटर में मरीजों के पास जाते थे तो डर लगता था लेकिन मरीजों से मिलने के बाद डर खत्म हो जाता था। डा. काजल याद करती हैं कि जब वह कोरोना मरीजों के वार्ड में अंदर जाती थीं तो सभी तालियां बजाकर हमारा स्वागत करते थे। उस समय गर्व महसूस होता था, लेकिन परिजनों से दूर रहने का दर्द भी होता था, जो किसी के सामने बयान नहीं कर सकते थे।


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