मुल्क के बंटवारे के जख्मों का गवाह है गुरुद्वारा शहीदाने ट्रेन
अंग्रेज शासकों से देश की स्वतंत्रता के लिए जहां हजारों नाम-गुमनाम वीरों ने अपनी शहादत दी। इधर आजादी के नाम पर जब मुल्क का बंटवारा किया गया तो इस बंटवारे ने हजारों लोगों को वर्षो तक न भूलने वाले गहरे जख्म दिए।
सुशील भाटिया, फरीदाबाद : अंग्रेज शासकों से देश की स्वतंत्रता के लिए जहां हजारों नाम-गुमनाम वीरों ने अपनी शहादत दी। उधर आजादी के नाम पर जब मुल्क का बंटवारा किया गया, तो इस बंटवारे ने हजारों लोगों को वर्षों तक न भूलने वाले गहरे जख्म दिए। उन्हीं जख्मों की एक दर्दनाक दास्तां 12 जनवरी 1948 को इतिहास के पन्नों पर तब लिखी गई, जब उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रांत(अब पाकिस्तान में) में रह रहे हिदू एवं सिख परिवारों को लेकर लौट रही गुजरात ट्रेन पर हुए हमला हुआ और इसमें 2300 लोगों को शहादत देनी पड़ी थी। उन्हीं 2300 लोगों की शहादत को संजोए हुए हैं एनआइटी फरीदाबाद में स्थित गुरुद्वारा शहीदाने गुजरात ट्रेन, जहां प्रतिवर्ष 10 जनवरी से 12 जनवरी तक धार्मिक समागम होता है। दस जनवरी 1948 को निकली थी ट्रेन
मुल्क आजाद हुआ, तो मुल्क दो हिस्सों में बंटा। पाकिस्तान राष्ट्र का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ। इस दौरान सरहद के इस पार और उस पार दोनों जगहों पर दंगे हुए। अपनी जान बचाने को सरहद के उस पर बन्नू स्टेशन (अब पाकिस्तान में) से एक ट्रेन करीब 3500 हिदू-सिख लोगों को लेकर 10 जनवरी 1948 के दिन चली। इन लोगों की सुरक्षा की खातिर ट्रेन में गोरखा रेजीमेंट के 60 जवान भी सवार थे। इधर, इसकी भनक कुछ कट्टरपंथियों को लग गई और उनकी मिलीभगत से कबाइलियों ने ट्रेन का मार्ग बदलवा दिया। दो दिन बाद 12 जनवरी 1948 को जब यह ट्रेन अल-सुबह चार बजे गुजरात स्टेशन (अब पाकिस्तान में) पहुंची, तो पहले से घात लगाए बैठे कबाइलियों ने ट्रेन रुकवा ली और उसमें सवार हिदू-सिखों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। गोरखा रेजीमेंट के जवानों ने अचानक हुए इस हमले का डटकर मुकाबला किया, लेकिन असलहा कम होने के चलते बहादुर जवान ज्यादा देर तक मुकाबला नहीं कर सके और शहीद हो गए। इसके बाद कबाइली गाड़ी में प्रवेश कर गए और बंदूकों, छूरों व बरछों से करीब 2300 निर्दाेष हिदू-सिखों की हत्या कर दी। इनमें बड़ी संख्या में महिला, बच्चे और बुजुर्ग शामिल थे। कबाइली आक्रमणकारियों ने इसके बाद लूटपाट की और भाग गए। इस हमले में कई अन्य लोगों ने अपने अंग-भंग करवाए थे, तो कुछ बच गए थे। इस तरह अपना सब कुछ लुटा कर हिदुस्तान की धरती पर पहुंचे 1200 लोगों ने अपनी जिदगी का सफर नए सिरे से शुरू किया। शुरुआत में कुरुक्षेत्र, फिर फरीदाबाद बना स्थाई ठिकाना
शुरुआत में यह शरणार्थी कुरुक्षेत्र में तंबुओं में ठहरे थे। फिर इन्हें लंबे संघर्ष के बाद एनआइटी फरीदाबाद के रूप में स्थापित हुए नए शहर में अपना आशियाना मिला। इन्हीं लोगों ने ट्रेन में शहीद हुए अपने स्वजनों की स्मृति में एनआइटी नंबर पांच में गुरुद्वारा शहीदाने गुजरात ट्रेन का निर्माण कराया। गुरुद्वारे के हुजूरी रागी भाई करनैल सिंह के अनुसार यह गुरुद्वारा बुजुर्गो की शहादत की याद दिलाता है। नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क में यादें ताजा रहें, इसी कड़ी में प्रति वर्ष वार्षिक कीर्तन समागम होता है और शबद गुरबाणी के जरिए दिवंगत बुजुर्गों को श्रद्धांजलि दी जाती है। इस घटना को सात दशक से अधिक समय हो गया। मेरी उम्र तब चार साल की थी। मैंने इस हमले में अपने भाई हरबंस सिंह को खोया था। मुझे भी पांच गोलियां लगी थी, पर मैं किसी तरह से बच गया था।
-सरदार सुरेंद्र सिंह, 76 वर्षीय, निवासी एनआइटी नंबर पांच मेरी उम्र तब ढाई साल थी। मुझे यह घटना तो याद नहीं थी, पर जब हम बड़े हुए, तो पिता पदम लाल की जुबानी पूरी दर्द भरी दास्तां सुनी। यह ता-उम्र न भरने वाले जख्म हैं, जिसमें मेरी माता भिरावां बाई और भाई फकीर चंद हमेशा के लिए बिछड़ गए थे।
-जगदीश लाल, 72 वर्षीय, निवासी एनआइटी नंबर पांच