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अदालतें हुई संवेदनशील, पुलिस अभी भी बेपरवाह

हरेंद्र नागर, फरीदाबाद : बाल यौन शोषण के मामलों में दोषी को सजा दिलाना के लिए भी पीड़ित परिवार को लड़ा

By JagranEdited By: Published: Mon, 18 Jun 2018 08:09 PM (IST)Updated: Mon, 18 Jun 2018 08:09 PM (IST)
अदालतें हुई संवेदनशील, पुलिस अभी भी बेपरवाह
अदालतें हुई संवेदनशील, पुलिस अभी भी बेपरवाह

हरेंद्र नागर, फरीदाबाद : बाल यौन शोषण के मामलों में दोषी को सजा दिलाना के लिए भी पीड़ित परिवार को लड़ाई लड़नी पड़ती है। कई तरह की कानूनी अड़चनें और दांवपेंच से उनका वास्ता पड़ता है। कहने को तो पीड़ित को निशुल्क कानूनी सेवा के रूप में सरकारी वकील उपलब्ध होता है। लेकिन उसके सामने आरोपित पक्ष का वकील मोटी फीस लेकर अपने मुवक्किल को बचाने के लिए तमाम दांवपेंच लगा देता है। यदि पीड़ित पक्ष को निजी वकील करना हो तो मोटी फीस देनी पड़ती है। कई बार पीड़ित पक्ष के वकील को प्रभावित करने की भी कोशिश होती है।

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एडवोकेट धीरज अधाना क्रिमिनल केस देखते हैं। करीब 20 साल से जिला अदालत में प्रेक्टिस कर रहे हैं। उनका मानना है कि बाल यौन शोषण के मामलों में जो भी दांवपेंच होते हैं वे अदालत के बाहर ही होते हैं। अब अदालतें इन मामलों में कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हुई हैं। इन मामलों के लिए विशेष अदालतें हैं। इनमें न सिर्फ तेजी से सुनवाई होती है, बल्कि पीड़ित के साथ भी पूरी संवेदनशीलता बरती जाती है। अदालतों में वकील पीड़ित बच्चों के साथ बेहद प्यार से पेश आते हैं। उन्हें अपने पास कुर्सी पर बिठाकर बयान लेते हैं। इस दौरान बच्चे के माता-पिता भी मौजूद होते हैं। बच्चों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते हैं और अपने पास चॉकलेट एवं बिस्कुट रखते हैं। जिन्हें बयान दर्ज करने के दौरान बच्चों को देते हैं। पूरे मामले के दौरान पीड़ित को केवल दो बार अदालत बुलाया जाता है। इसमें पहली बार मुकदमा दर्ज होने के दौरान धारा 164 के तहत जज के सामने बयान होते हैं। दूसरी बार पुलिस के अदालत में चार्जशीट दाखिल करने के बाद गवाही के लिए। इसके बाद अन्य गवाहों के बयान होते हैं और सबूत पेश होते हैं। जिनके आधार पर मुकदमे का फैसला किया जाता है। धीरज ने साल 2017 के एक मामले का उदाहरण देते हैं। सूरजकुंड क्षेत्र के इस मामले में 16 वर्षीय किशोर पर 11 साल की बच्ची को छत पर ले जाकर दुष्कर्म का आरोप लगा था। चूंकि आरोपित भी नाबालिग था, इसलिए मामला जुवेनाइल कोर्ट में चला। इस मुकदमे में महज 11 महीने में फैसला आ गया और दोषी को तीन साल की सजा हुई थी। दोषी पक्ष ने सेशन अदालत में याचिका दायर की तो वहां भी सजा को बरकरार रखा गया। क्रिमिनल एडवोकेट जितेंद्र ¨सह धनखड़ इससे भिन्न राय रखते हैं। उनका मानना है कि यौन शोषण के मामलों में मुकदमा दर्ज होने के बाद भी पीड़ितों का शोषण होता है। यह शोषण मामले की शिकायत के साथ ही शुरू हो जाता है। समाज में बदनामी का डर सबसे ज्यादा होता है। इसलिए कई मामलों में शिकायत ही नहीं हो पाती। इसके बाद पुलिस का व्यवहार पीड़ितों के साथ सही नहीं होता व उन्हें संदेह की नजर से देखा जाता है। पीड़ित को पहले शिकायत के लिए और फिर मेडिकल कराने के लिए अस्पताल में घंटों इंतजार करना पड़ता है।

इस दौरान पुलिसकर्मी पीड़ितों से तमाम तरह के सवाल-जवाब करते हैं। पीड़ितों पर बयान बदलने के लिए कई तरह के दबाव बनाए जाते हैं। इनमें धन का लालच, धमकाना व सामाजिक रूप से बदनामी का डर भी होता है।


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