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सूरत शब्द का खेल अनूठा है, इसे बिरला ही जान पाता है : संत कंवर महाराज

सूरत शब्द का खेल अनूठा है। इस खेल को कोई बिरला ही सन्त सतगुरु का प्यारा जान सकता है। सूरत के रूप का वर्णन बहुत अचरज वाला है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 23 Jul 2020 06:34 AM (IST)Updated: Thu, 23 Jul 2020 06:34 AM (IST)
सूरत शब्द का खेल अनूठा है, इसे बिरला ही जान पाता है : संत कंवर महाराज
सूरत शब्द का खेल अनूठा है, इसे बिरला ही जान पाता है : संत कंवर महाराज

जागरण संवाददाता, भिवानी : सूरत शब्द का खेल अनूठा है। इस खेल को कोई बिरला ही सन्त सतगुरु का प्यारा जान सकता है। सूरत के रूप का वर्णन बहुत अचरज वाला है। जब ये देह में रहती है तो देहरूपी ही लगती है लेकिन सन्त सतगुरु की मेहर से जब ये वापस अपने देश में जाती है तब ये सूक्ष्म रूप धारण कर लेती है।देह रूप में होने के कारण सूरत को संसारी लोग सामान्य रूप से ही लेते हैं। यही कारण है कि इंसान देह रूप में सन्त सतगुरु पर यकीन नहीं कर पाता। जो कर लेता है वो अपना कल्याण करवा लेता है। यह सत्संग वचन परमसंत हुजूर कंवर साहेब महाराज ने राधा स्वामी दिनोद में ऑनलाइन फरमाया।

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गुरु महाराज ने फरमाया कि दुनियादारी के रसों को आनन्द भोग समझने वाले यदि परमात्म रस का पान कर लें तो दुनियादारी का रस भूल जाएंगे। जब वो रस भाता है तब कोई और रस नहीं भाता। उन्होंने कहा कि मन के अनेक रूप हैं। जहां ये अच्छा है वहीं ये बुरा भी है। इसलिए मन को मत मारो अपनी इच्छाओं को मारो। इच्छा मारने का अर्थ है बुरे कर्मों को त्याग कर सत्कर्मों को अपनाना। यह इंसान के कर्मो का फल है कि उसे सन्त सतगुरु आन मिले। अब ये उसके हाथ में है कि वो अपने सारे धब्बे और दाग मिटवा कर इस चौरासी से निकलने की जुगत ढूंढता है या नहीं। जो विश्वास के साथ सन्त सतगुरु के चरण में आकर याचना कर लेता है वो बाजी को जीत लेता है। गुरु महाराज ने कहा कि इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। ये तो आपसे एक कदम आगे चलती है। एक पूरी हो गई तो दूसरी उत्पन्न हो जाएगी। जैसे समुद्र में लहर उठती हैं वैसे ही मन में इच्छाएं हिलोरें मारती हैं।

हुजूर कंवर साहेब ने कहा कि जिस देश से हमारी रूह आई थी वो बड़ा पाक पवित्र देश था। लेकिन इस देश में आकर यह इच्छाओं और वासनाओं में घिर गई। हम जिसमें रह रहे हैं ये काल और माया का देश है। हमारी रूह इसमें इतनी उलझ गई है कि माया ताली पीटकर हंसती है। काल इसका तमाशा देखता है। काल और माया रूह की हालत पर तरस नहीं खाते बल्कि वे उसको और ज्यादा डुबाने में लगे हुए हैं। जब रूह त्रस्त होकर सतपुरुष से गुहार लगाती है तब सतपुरुष सतगुरु का रूप धर कर इसको निकालने आते हैं। सत्संग देकर इसके मोटे और झीने बंधनों को काटते हैं।


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