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मात्र 21 वर्ष की उम्र में मातृभूमि की रक्षा करते हुए कुर्बान हो गए थे विरेंद्र, पढ़िए शहीद की कहानी

ग्रामीण युवाओं में सेना में भर्ती होने का रोमांच होता है। उमें मातृभूमि और देश की सेवा करने का जज्बा भी कूट-कूट कर भरा होता है। ऐसे ही एक युवा थे गांव मोहना निवासी विरेन्द्र। विरेन्द्र 21 साल की उम्र में देश के लिए शहीद हो गए थे।

By Vinay Kumar TiwariEdited By: Published: Mon, 26 Jul 2021 01:50 PM (IST)Updated: Mon, 26 Jul 2021 01:50 PM (IST)
मात्र 21 वर्ष की उम्र में मातृभूमि की रक्षा करते हुए कुर्बान हो गए थे विरेंद्र, पढ़िए शहीद की कहानी
चार जाट रेजिमेंट में शामिल होकर शहादत देने वाले विरेन्द्र की स्मृति में गांव में स्मारक बनाया गया है

सुभाष डागर, बल्लभगढ़। ग्रामीण युवाओं में सेना में भर्ती होने का रोमांच होता है। उमें मातृभूमि और देश की सेवा करने का जज्बा भी कूट-कूट कर भरा होता है। ऐसे ही एक युवा थे गांव मोहना निवासी विरेन्द्र। विरेन्द्र एक ऐसे नौजवान थे, जो मात्र 21 वर्ष की उम्र में मातृभूमि की रक्षा करते हुए कुर्बान हो गए। कारगिल युद्ध में शहीद हुए विरेन्द्र कुमार की मां लीलावती का माथा आज भी अपने बेटे के बलिदान को याद करते हुए गर्व से चमकता हुआ दिखाई देता है। बेटे को भरी जवानी में खो देने पर उनकी आंखों में आंसू तो आ जाते हैं, पर अपने आप को भाग्यशाली व गौरवान्वित भी महसूस करती हैं कि वो एक बलिदानी की मां हैं।

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बलिदानी का परिचय

विरेन्द्र कुमार का जन्म गांव मोहना निवासी किसान कालेराम के घर पहली जनवरी 1978 को जन्म हुआ। उन्होने विज्ञान से 12वीं कक्षा की परीक्षा पास की और दिसम्बर 1998 में सेना में भर्ती हो गए। रायबरेली में अपना सैन्य प्रशिक्षण पूरा किया, तभी कारगिल युद्ध शुरू हो गया और उन्हें युद्ध में जाने का फरमान सुना दिया गया। चार जाट रेजिमेंट में शामिल होकर शहादत देने वाले विरेन्द्र की स्मृति में गांव में स्मारक बनाया गया है और गांव के स्कूल का नाम शहीद विरेन्द्र कुमार राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय रखा गया है। एक मार्ग का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है।

बलिदान की कहानी

विरेन्द्र के बड़े भाई डा. हरप्रसाद अत्री बताते हैं कि प्रशिक्षण लेने के बाद ही कारगिल युद्ध छिड़ गया था। चार जाट रेजिमेंट में शामिल विरेन्द्र की कारगिल पहुंचने पर तैनाती मस्को घाटी में हुई और दुश्मनों से लोहा लेना शुरू किया, 5 जुलाई 1999 को 25 सिपाहियों के साथ विरेन्द्र ने पिलर नंबर-2 पहाड़ी पर चढ़ाई कर मस्को घाटी से दुश्मनों को खदेड़ दिया। वे मस्को घाटी पर विजय पताका फहरा रहे थे कि तभी दुश्मनों की तरफ से एक हथगोला आया और वह फट गया, जिससे वे घायल हो गए व 6 जुलाई 1999 को अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। 10 जुलाई 1999 को वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में राजकीय व सैनिक सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। उनसे प्रेरित होकर गांव अटाली के बलिदानी संदीप सिंह सेना में भर्ती हुए। 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में गोली लगने से शहादत पाई।


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