समर्पण के बिना मित्रता में सार्थकता नहीं : सांगवान
मित्रता ऐसा रिश्ता है जो इंसान खुद बनाता है।
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संस्कारशाला:
जागरण संवाददाता, बहादुरगढ़ :
मित्रता ऐसा रिश्ता है जो इंसान खुद बनाता है। घर-परिवार के रिश्ते उसको संयोग से मिलते हैं, लेकिन भीड़ के बीच से जब किसी के साथ हमारा आत्मीय और भावनात्मक जुड़ाव होता है तो उसी को हम अपना मित्र मानते हैं। अनादि काल से ही मित्रता के रूप में सदाचार, प्रेम और निस्वार्थ भाव में चली आ रही अनेकों प्रेरक कहानियां और सच्ची घटनाएं हम सुनते-पढ़ते आए हैं। धार्मिंक ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में सच्ची मित्रता के बहुत से उदाहरण मिलते हैं। राम और सुग्रीव, कृष्ण-सुदामा जैसे अनेकों ऐसे मैत्री रिश्ते हमें सच्ची मित्रता का बोध कराते हैं। दरअसल, मित्रता में छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब इन सबका कोई स्थान नहीं होता। समर्पण और अनुशासन की नींव पर ही यह रिश्ता खड़ा होता है और सार्थकता की तरफ बढ़ता है। मित्रता निभाना एक मानवीय गुण है, जो संस्कार का ही दूसरा नाम है। मित्रता में न तो कोई औपचारिकता होती है और न ही कोई स्वार्थ। सभी के जीवन में ऐसी परिस्थितियां जरूर आती हैं, जब उसे अपने मित्र का सहारा चाहिए होता है। ऐसी स्थिति में मित्र का जो कर्तव्य होता है, वह उसकी असल परीक्षा भी होती है और मित्रत्व का पैमाना भी। कहने का अर्थ यह है कि जब हमारा कोई मित्र परेशानी में या विपत्ति में है तो उसके लिए समर्पित होना ही हमारे आचरण की पहचान करवाता है। आज उसे जरूरत थी, कल को परिस्थितियां इसके विपरीत हो सकती है। यानी हमें भी उसकी जरूरत हो सकती है। याद रखें मित्रता के बीच किसी वस्तु का नहीं बल्कि सबसे ज्यादा लेन-देन जो होता है वह आचरण और व्यवहार का ही होता है। हम जैसा देंगे, वैसा ही लौटकर हमारे पास भी आएगा। इसी भाव के साथ मित्रता को सहेजा जा सकता है और जीवन को सही दिशा भी दी जा सकती है।
--प्रदीप सांगवान, निदेशक एसडीएम स्कूल, देशलपुर, बहादुरगढ़