कर्ज माफी नहीं किसान की समस्याओं का हल, लागत पर लाभकारी मूल्य मिले
चुनावी मौसम में किसान सियासत का केंद्र बिदु बना हुआ है। कर्ज माफी की घोषणाएं हो रही हैं तो कहीं किसान की आमदन दोगुनी करने की बात हो रही है लेकिन किसान इन घोषणाओं से वास्ता नहीं रखते हैं।
पवन पासी, अंबाला शहर
चुनावी मौसम में किसान सियासत का केंद्र बिदु बना हुआ है। कर्ज माफी की घोषणाएं हो रही हैं तो कहीं किसान की आमदन दोगुनी करने की बात हो रही है लेकिन किसान इन घोषणाओं से वास्ता नहीं रखते हैं। किसान भली भांति समझ रहे हैं कि ऐसी घोषणाएं उनकी समस्याओं का हल नहीं है। किसान बड़ी साफगोई से कहते हैं कि कर्ज माफी उसकी समस्याओं का स्थायी हल नहीं है लेकिन फौरी राहत जरूर बन सकता है। किसानों के मुताबिक उन्हें लागत पर डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दिया जाए। सीधे सीधे स्वामी नाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की पैरवी कर रहे हैं। किसानों का कहना है कि कर्जमाफी ने उन किसानों को भी ऋण न चुकाने के लिए प्रेरित किया है जो ईमानदारी से चुका रहे थे।
किसान मौजूदा बीमा योजना से भी नाखुश हैं । इसकी एक वजह है कि किसानों को मुआवजा वक्त पर नहीं मिल रहा है। अंबाला जिले में 10 अक्टूबर 2018 को हुई ओलावृष्टि से करीब डेढ़ सौ गांव प्रभावित हुए थे। जिसमें करीब 67 गांव ऐसे थे जिन्हें शत प्रतिशत नुकसान हुआ था। इन किसानों को खरीफ की फसल के मुआवजे के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा है। कुल 3340 प्रभावित किसानों में 3240 किसानों को 8 करोड़ 90 लाख का मुआवजा जारी हुआ है। किसानों के मुताबिक उन्हें नुकसान की अपेक्षा कम मिला है। हालांकि, कृषि विभाग का कहना है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत स्थानीय आपदा व औसत पैदावार को आधार बनाकर मुआवजा दिया जाता है। जिसमें औसत पैदावार का मुआवजा भी जारी होना है।
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कर्ज माफी कभी स्थायी हल नहीं हो सकता है
समर्थन मूल्य तय करने वाली कमेटी के सदस्य रह चुके छोटी कोहड़ी निवासी प्रगतिशील किसान डा. विशन पाल राणा के मुताबिक किसान को रियायत नहीं चाहिए बल्कि वह तो सिर्फ अपने उत्पादन का उचित दाम चाहता है। जो किसान उत्पादन करता है उसको लागत मूल्य का डेढ़ गुना लगाकर दिया जाए। जो ओलावृष्टि व प्राकृतिक आपदा का मुआवजा समय पर मिले। यह मुआवजा हर फसल का दिया जाए। हर क्षेत्र की अलग अलग फसल है। बागवानी का इंश्योरेंस अलग से बनाया जाए। जो उपकरण हैं उनके लिए किसान को ग्रांट दी जाए। किसान की खेती कार्यों के दौरान मृत्यु हो जाती है उस पर भी इंश्योरेंस मिलना चाहिए। बिचौलियों को निकालना चाहिए। खेती में उपयोग होने वाले उपकरणों, दवाइयों, खाद्य को न्यूनतम मूल्य पर दिया जाए। भूमि के मुताबिक कृषि क्षेत्र घोषित किए जाएं।भूमि के मुताबिक फसल विभाजन होना चाहिए। जहां सब्जी उग सकती है वहां सब्जी उगाएं और जहां धान की रोपाई हो सकती हैं वहां रोपाई करें। इससे डिमांड एंड सप्लाई का संतुलन बनेगा। किसान को हमेशा वोट बैंक समझा जाता है। इनको ऊपर उठा दिया तो फिर राजनीति नहीं चल पाएगी।
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डिफाल्टरों के कर्ज माफ करने से दूसरे किसानों ने भी कर्ज चुकाना छोड़ा
साद्दोपुर गांव के प्रगतिशील किसान बलजिद्र सिंह के मुताबिक किसान पहले बैंकों के डर से पैसा चुका देता था। साथ पैसा देता था। जब सरकारों ने वोट बैंक के चक्कर में डिफाल्टरों का लोन माफ कर दिया। जबकि जो पैसा चुका रहे थे उन्हें कोई लाभ नहीं मिला। यह कोई स्थायी हल नहीं है। उन्हें फसल की लागत का लाभकारी मूल्य मिलना चाहिए। एक बात समझनी होगी कि न तो सभी किसान एक जैसे हैं और न ही कृषि क्षेत्र एक जैसा है। कहीं जमीन हल्की है तो कहीं अच्छी है। जोत भी कम होती जा रही है। किसान की फसल की लागत कॉस्ट ऑफ कल्टीवेशन जोड़ कर तय की जाती है जो कि हमेशा न्यूनतम तय होती है न कि अधिकतम। इसमें आपदा को नहीं जोड़ा जाता। चुनाव में किसान सियासत का केंद्र बन जाता है जबकि इससे पहले ही नेताओं को अफसरों को साथ लेकर किसानों से बैठकें करनी चाहिए ताकि उनकी समस्याओं का हल निकले। साफ नजर आता है कि किसान के नाम पर वोट मांगी जाती है लेकिन उसकी समस्याओं के लिए गंभीर नहीं हैं।
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कर्ज माफी हल नहीं, स्वामीनाथन की रिपोर्ट लागू हो
भारतीय किसान यूनियन (गुरनाम सिंह चढूनी गुट) के प्रधान मलकीत सिंह के मुताबिक स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट 15 अगस्त 2007 को रिपोर्ट लागू होनी थी। अगर हो जाती तो किसान कर्ज में नहीं रहता। अब कि बार सरकार ने गेहूं का समर्थन मूल्य 1840 रुपये मूल्य निर्धारित किया है जबकि हिसार कृषि विश्व विद्यालय ने आरटीआइ में गेहूं पर खर्च प्रति क्विंटल 2074 रुपये बताया है। दो साल पहले यह खर्च 2219 था। अगर किसान को लागत का डेढ़ गुना लाभकारी मूल्य मिलता तो उसे कर्ज मांगने की क्या जरूरत पड़ेगी।। किसान की फसल एमएसपी पर बिकने की गारंटी होनी चाहिए। बीते साल मक्का का एमएसपी साढ़े चौदह सौ था लेकिन बिकी 900 से 1 हजार रुपये तक थी। एमएसपी के लिए रेट तो डेढ़ दर्जन से ज्यादा फसलों के निकाल दिए लेकिन बिकती दो चार फसलें हैं। बीमा पॉलिसी का पैसा सरकार दे। अभी तो किसानों को यह भी नहीं पता कि पॉलिसी किस कंपनी ने की है। हालांकि, चुनाव में सबको किसान याद आता है और फिर भूल जाते हैं।