स्वाधीनता संग्राम के दौरान बुलंद आवाज में जोश भरती रचनाओं के प्रज्ञाचक्षु कवि हंस
स्वातंत्र्य साधक स्वाधीनता संग्राम के दौरान मन की आंखों में गीतों की रचना करने और बुलंद आवाज में अपने जोशीले गीत गाकर सत्याग्रहियों क्रांतिकारियों को जाग्रत करने वाले कवि हंसराजभाई हरखजीभाई कानाबार के जीवन पर केंद्रित है आलेख...
राजेन्द्र निगम, अहमदाबाद। भारत में आजादी से के संघर्ष का दौर रहा, उसमें सन् 1920 से सन् 1946 तक की अवधि को स्वर्णयुग कह सकते हैं। तब महात्मा गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया था। उसमें जिनकी सहभागिता रही, वे सौभाग्यशाली माने जाते हैं। उस समय गुजराती कवि हंस द्वारा प्रदान किया गया योगदान अविस्मरणीय है। गांधी जी के आह्वान को उन्होंने पूर्ण रूप से आत्मसात किया था।
कवि हंस का पूरा नाम था, हंसराजभाई हरखजीभाई कानाबार। गुजरात के अमरेली के लोहाणा परिवार में उनका जन्म 25 सितंबर 1892 को हुआ था। शुरू में उनकी आंखों में कोई रोग नहीं था, लेकिन छह माह बाद आंखों में कुछ तकलीफ शुरू हुई और तीन-चार वर्ष की उम्र तक उन्हें दोनों आंखों से दिखाई देना बंद हो गया, लेकिन वे प्रज्ञाचक्षुता से अच्छी तरह संपन्न हो गए थे। अत: संघर्ष के माहौल में भी उन्होंने प्राथमिक शिक्षण प्राप्त किया। परंपरागत शिक्षण प्राप्त करना उनके लिए संभव नहीं था, इसलिए मोम के अक्षरों व आंकड़ों के स्पर्श से उन्होंने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। स्मरणशक्ति तीव्र होने के कारण कविता व भूगोल जैसे विषयों का शिक्षण उन्होंने सुनकर ही प्राप्त किया। आठ वर्ष की उम्र तक दूसरी कक्षा की पढ़ाई पूरी की और अमरेली में रहकर ही छठी कक्षा तक का अध्ययन पूरा किया। तब उन्होंने गुजराती के साथ संस्कृत, हिंदी व अंग्रेजी भाषाएं भी सीख लीं। इसके साथ ही उन्होंने तबला व हारमोनियम बजाना भी सीखा। मुंबई के विक्टोरिया ब्लाईंड स्कूल में उन्होंने छह माह के लिए प्रवेश लिया और ब्रेन लिपि सीख ली। वह पुन: अमरेली लौट आए। उस समय नेत्रहीनों को आज जैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी, लेकिन फिर भी उन्होंने कठिनाइयों का सामना करते हुए 16 वर्ष की उम्र में वडोदरा जाकर मेट्रिक की परिक्षा दी और उसमें वह उत्तीर्ण हुए। वह वडोदरा तीन वर्ष रहे और वहां उन्होंने फिडल, वीणा, दिलरुबा, सितार, जलतरंग जैसे वाद्ययंत्रों को बजाना भी सीख लिया। वहां एक कार्यक्रम में उन्होंने फीडल बजाया, जहां उन्हें 75 रुपये का पुरस्कार मिला। कवि हंस जीवनभर अविवाहित ही रहे थे।
अमरेली खादी भंडार ने सन् 1921-22 की अवधि में उन्हें गायन-वादन के द्वारा काठियावाड़ में स्वदेशी खादी के प्रचार करने का काम सौंपा। भाव-भंगिमा के साथ खादी की बिक्री के लिए तब वह सस्वर गाते थे।
पूर्वजना प्रेम रंगायेल, सरल सनातन सादी,
हरदम हम हैये उछलावे, मंगल मानी यादी,
धर्मगुरुनी गादी, ते एक अमूलख खादी।
भावार्थ-(पूर्वजन्म के प्रेम से रंगी सरल व सनातन सादगी के साथ, हमारे हृदय में मां की मंगल स्मृति को यह अमूल्य खादी सदैव तरंगित रखती है, मानो यह किसी धर्मगुरु की गादी न हो)।
कवि हंस ने कुछ समय के लिए एक संगीतशाला में एक शिक्षक के बतौर भी अपनी सेवाएं दीं, लेकिन वह आराम से एक जगह कहां बैठनेवाले थे। हृदय में क्रांति की अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। गांधी जी ने सन् 1919- 20 में भारत की प्रजा में प्राण फूंक दिए थे। हजारों भारतीय मातृभूमि को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए घरबार, माल-मिल्कियत, नौकरी-धंधा सब छोड़कर बाहर निकल रहे थे। हंसराजभाई भी ऐसे नाजुक मौके पर शिक्षक की नौकरी करते हुए कैसे बैठे रह सकते थे? लोकमेदिनी में गुलामी व अन्याय के प्रति आक्रोश की बुलंद आवाज उन्हें भी सुनाई देने लगी। वीर सत्याग्रहियों के जोश को जो उन्मत्त बनाए रखे, वैसे गीत उन्होंने लिखे। देखते-ही-देखते उनके रचे गीत गुजरात के गांव-गांव में गाए जाने लगे। प्रभातफेरियां हों या सविनय कानूनभंग के जुलूस, ऐसे मौकों पर कवि हंस का कोई न कोई गीत अवश्य ही गाया जाता था।
सन् 1920 में अहमदाबाद के माणेकचौक में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया जाना था। कवि हंस ने इस सभा में अपनी गीत-रचनाओं को गाने की घोषणा की। अंग्रेज सरकार को जब इसकी जानकारी मिली तो इस सभा पर प्रतिबंध की सूचना दी गई। अंग्रेज सरकार के इस प्रतिबंध की परवाह किए बगैर सभा का आयोजन हुआ। जोशीले नेताओं को सुनने के लिए लोग उमड़ पड़े। मकानों के छज्जों व झरोखों पर भी लोग सुनने के लिए पहुंच गए। जबरदस्त भीड़ के बीच कवि हंस ने दिलरुबा के सहारे बुलंद आवाज में गीत गाया...
परदेशी भूख्या, टोपीवालानां टोला उतर्या...
उतरियां कोई आथमणे ओवार रे...
भावार्थ-(विदेशी भूखे फिरंगियों की टोलियां उतरीं, पश्चिम की ओर से....)
इस गीत ने अंग्रेजों को इतना विचलित कर दिया कि पुलिस को सभा को विसर्जित करने का आदेश दिया गया। कवि हंस की धरपकड़ हुई। दूसरे दिन अदालत के समक्ष उन्हें हाजिर किया गया।
कवि हंस से पूछा गया, 'सार्वजनिक सभा में गीत गाना प्रतिबंधित था, क्या तुम्हें इसकी जानकारी नहीं थी?'
बिना किसी घबराहट के कवि हंस ने जवाब दिया, 'हां, जानकारी थी।'
'आपने सरकारी हुक्म को सरेआम भंग किया है।'
कवि हंस ने कहा, 'यह गुनाह मुझे कबूल है।'
'सार्वजनिक सभा में गीत गाने का आपका उद्देश्य क्या था?'
'देश से विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने हेतु लोकों में जागृति उत्पन्न करना।'
कवि हंस का यह स्पष्ट व निर्भीक प्रत्युत्तर सुनकर न्यायधीश आश्चर्यचकित हो गया। उसने कवि हंस को छह माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई।
सजा सुनकर बिना विचलित हुए उन्होंने एक आशु कविता की रचना की और वहीं गाना शुरू कर दिया...
सुजनने सहेवी घटे, त्यां जेल,
उभा ज्यां अन्यायीना महेल।
भावार्थ-(सज्जन को जो सहनी पड़ रही है वह जेल है, वहीं खड़े हैं, जो अन्यायी का महल है)।
उसके बाद राजकोट के सत्याग्रह में भाग लेने पर उन्हें फिर कारागृह की सजा सुनाई गई। सन् 1920, 1923 व 1930 इस प्रकार उन्होंने तीन बार कारावास में सजाएं पूरी कीं। कवि को ये कैद अच्छी लगती थीं, क्योंकि एकांत के माहौल में गीतों को रचने में वह सहूलियत अनुभव करते थे। वह ऐसा महसूस करते थे कि वह बाहर रहकर शायद जो कभी नहीं लिख सकते थे, ऐसे जोशीले गीतों का कारागृह के शांत व एकांत स्थलों में सृजन कर सकते हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं का सृजन कारावास के दौरान ही हुआ है। कवि के मनोमंथन से सारगर्भित ग्रन्थ 'हंसमानव' का उद्भव हुआ। कवि ने इस ग्रंथ को आठ विभागों में विभाजित किया है। इस पुस्तक की प्रस्तावना काका कालेलकर ने लिखी थी। उसमें 432 रचनाओं का समावेश है। भावनगर के तत्कालीन दीवान सर प्रभाशंकर पट्टणी के आर्थिक सहयोग से सन् 1938 में उसका प्रकाशन संभव हुआ था।
इसके पूर्व सन् 1922 में 'काव्यत्रिवेणी' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। एक अन्य संग्रह 'मानसनां मोती' में करीब 45 काव्य संकलित किए गए थे। अनुमान है कि हंस की कविताएं एक हजार से भी अधिक पृष्ठों में समाई हैं। आजादी के संघर्ष के अलावा इन काव्यों में उन्होंने तत्कालीन समाज-दर्शन व गहन चिंतन से प्राप्त तत्वज्ञान को भी समाहित किया है। करीब छह प्रकार के छंदों का प्रयोग उनके काव्यों में हुआ है। उन्हें संगीत का अच्छा ज्ञान था, इसलिए उनके गीतों की रचना लयपूर्ण होती थी। अत: उनके गीत पढऩे की अपेक्षा गाने पर अधिक प्रभावी रहते थे। सन् 1948 तक वह अमरेली के ही एक मोहल्ले में उनकी एकमात्र बहन गोदावरीबेन, जीजा कानजीभाई व भानेज अमृतलाल के साथ रहते थे। फिर वह संगीत की कुछ ट्यूशन पढ़ाने के लिए मुंबई गए। वहां वह कालबादेवी के एक गेस्टहाउस में रहने लगे। वह अच्छे गायक भी थे, इसलिए मुंबई के कुछ मंदिरों व समारोहों में गाने के लिए भी जाते थे।
सौभाग्य से प्रज्ञाचक्षु कवि हंस भारत की आजादी को देख सके। सन् 1957 में मुंबई के भूलेश्वर में कुंवरजीबाई के घर में जलारामबापा के मंदिर में आव्यो तेरे द्वार, आव्यो तेरे द्वार भजन गाते-गाते उन्हें हृदयाघात हुआ और वह अनंत के व्योम में सदा के लिए उड़ गए। जैसे यूनानी कवि होमर नेत्रहीन थे, लेकिन अपनी रचनाओं के द्वारा वह जन-जीवन पर गहन छाप छोड़ सके, उसी प्रकार कवि हंस भी प्रज्ञाचक्षु थे, लेकिन आजादी की प्राप्ति हेतु उनके रचित गीतों ने तत्कालीन गुजराती समाज के गांवों, कस्बों व नगरों सब को झकझोर दिया।