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पूर्वजों के प्रति श्रद्धा

श्राद्ध-कर्म का मूल-तत्व है श्रद्धा। श्राद्ध अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर देता है। यह हमें अपने पूर्वजों व बड़े-बुजुर्गो के दिशा-निर्देश मानने, उनकी बातों पर अमल करने व उनका सम्मान करने को प्रेरित करता है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धाभाव में यह भाव भी निहित है कि हम अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता तो व्यक्त करें

By Edited By: Published: Wed, 03 Sep 2014 10:32 AM (IST)Updated: Wed, 03 Sep 2014 10:32 AM (IST)
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा

श्राद्ध-कर्म का मूल-तत्व है श्रद्धा। श्राद्ध अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर देता है। यह हमें अपने पूर्वजों व बड़े-बुजुर्गो के दिशा-निर्देश मानने, उनकी बातों पर अमल करने व उनका सम्मान करने को प्रेरित करता है। पूर्वजों के प्रति श्रद्धाभाव में यह भाव भी निहित है कि हम अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता तो व्यक्त करें ही, साथ ही जीवित बुजुर्गो को भी पूरा सम्मान दें। पौराणिक ग्रंथों में श्राद्ध और तर्पण पर विस्तृत चर्चा मिलती है। वायु-पुराण और पुलस्त्य-स्मृति में श्राद्ध शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है, श्रद्धया क्रियते यस्माच्छ्राद्धं तेन प्रकीर्तितं। अर्थात श्रद्धा से किए जाने के कारण ही इसे श्राद्ध कहते हैं।

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चूंकि श्रीमद्भगवद्गीता (2-19) में माना गया है कि शरीर मरता है, आत्मा नहीं मरती। संभवत: इसी सिद्धांत का अनुकरण करते हुए श्राद्ध का विधान बनाया गया।

आज के युग में लोग श्राद्ध का मतलब केवल कर्मकांड और दिखावा करना मानने लगे हैं, जबकि श्राद्ध-कर्म में पिंडदान और तर्पण से ज्यादा यह महत्वपूर्ण है कि आप पूर्वजों के प्रति मन में कितनी श्रद्धा रखते हैं। विष्णु-पुराण तो यहां तक कहता है कि यदि किसी की वित्तीय स्थिति श्राद्ध कराने की न हो तो वह गाय को चारा खिला सकता है। यानी बात सिर्फ श्रद्धा की है, दिखावे या कर्मकांड की नहीं।

भारतीय धर्मग्रंथों में तीन प्रकार के प्रमुख ऋण बताये गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सबसे महत्वपूर्ण बताया गया है, क्योंकि पितृ (जिसमें सिर्फ दिवंगत पिता ही नहीं, माता तथा सभी पूर्वज आते हैं) ने हमारे जीवन को विकसित बनाने में अपना बड़ा योगदान किया है। उनके इस ऋण को चुकाने का एक ही तरीका है कि हम माता-पिता तथा अन्य सभी बुजुर्गो के किए गए कार्यो, उनकी उपलब्धियों और उनके दिए संस्कारों को सही सम्मान दें। जीवित हैं, तब भी उन्हें सम्मान दें और मृत्यु के उपरांत उनका श्राद्ध कर यह सम्मान व्यक्त करें। संस्कृत की एक उक्ति है - श्रद्धा दीयते तत श्राद्धम। अर्थात् श्रद्धा से कुछ देना ही श्राद्ध है। अत: श्राद्ध में अपनी साम‌र्थ्य से अधिक व्यय करना या किसी प्रकार का प्रदर्शन करना कतई आवश्यक नहीं है। साधनों के अभाव में पितरों को केवल जलांजलि दे देना या मात्र प्रणाम कर लेना ही पर्याप्त है। विष्णु पुराण में कहा गया है- मेरे पास श्राद्ध करने की न क्षमता है, न धन है और न कोई अन्य सामग्री। अत: मैं पितरों को प्रणाम करता हूं। वे मेरी भक्ति से तृप्ति लाभ करें।

दान और पूजा आदि हमारे पितरों को कैसे और कितना पहुंचता है, यह आज के वैज्ञानिक युग में बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इससे कोई असहमति नहीं होनी चाहिए कि अपने आस-पास के वृद्धजन, माता-पिता की सेवा हमें करनी चाहिए। संकल्प लें कि श्राद्धपक्ष के बाद भी जीवन भर अपने दिवंगत परिजनों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखेंगे और बड़ों के साथ विनम्रता और सेवापूर्ण व्यवहार करेंगे।

[पं. अजय कुमार द्विवेदी]

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