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वेब समीक्षा: 90 के दौर का रिटर्न टिकट है 'ये मेरी फैमिली', जब ज़िन्दगी फेसबुक नहीं फेस टू फेस थी

इस शो की खास बात यह भी है कि शो के किरदारों को किसी टेलीविजन शोज़ की तरह संस्कारी शोज़ और किरदारों को बनावटी टीआरपी वाले जज्बातों में नहीं बांधा है।

By Shikha SharmaEdited By: Published: Sun, 12 Aug 2018 02:42 PM (IST)Updated: Tue, 14 Aug 2018 11:07 AM (IST)
वेब समीक्षा: 90 के दौर का रिटर्न टिकट है 'ये मेरी फैमिली', जब ज़िन्दगी फेसबुक नहीं फेस टू फेस थी
वेब समीक्षा: 90 के दौर का रिटर्न टिकट है 'ये मेरी फैमिली', जब ज़िन्दगी फेसबुक नहीं फेस टू फेस थी

"ये मेरी फैमिली"

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कलाकार: मोना सिंह, आकर्ष खुराना, विशेष बंसल, अहान निरबन, रूही खान, प्रसाद रेडी, रेवती पिल्लई

निर्देशक: समीर सक्सेना

लेखक: सौरभ खन्ना

चैनल: टीवीऍफ़ प्ले

रेटिंग: 4 / 5

अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। ‘गर्मी का मौसम मौसम नहीं एक फेस्टिवल है’, सुन कर झटका लगा न कि भला मौसम और त्यौहार, माजरा क्या है, क्योंकि अब तो त्यौहार हम मनाते कहां हैं, दिखाते हैं... सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर! हैशटैग वाली दीवाली, हैश टैग वाली होली, फीलिंग इन एमोजी वाली बनावटी वाली स्माइल की हजारों फेक तस्वीरों के साथ। त्योहारों के लम्हें अब कैमरे के क्लिक क्लिक और फ़्लैश में तो कहीं, हाई फाई महंगे वाले मोबाईल फोन के डिजिटल इनबॉक्स में कैद हो जाते हैं, इमोशन से लेकर डिवोशन तक की तस्वीरें एक सी हैं। उस मोबाइल फोन के इनबॉक्स में हजार से भी ज्यादा तस्वीरों को कैद करने की तो मेमोरी चिप तो मौजूद है, मगर मेमोरेबल मोमेंट्स में वो इमोशन फूंकने की कुब्बत नहीं। उस मोबाइल फोन में, उस सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सेल्फी तो हजारों क्लिक हो जाती है, लाइक और शेयर भी मिल जाते है, लेकिन वो संवेदना नहीं जगा पाती, जो यादें कैमरे के नेगेटिव रोल से लम्बा सफ़र तय करके उस सस्ते से लेकिन अजीज से फोटो एल्बम तक पहुंचते थे और जिसे वाकई में खुशियां मनाने के लिए किसी फेस्टिवल का इंतेजार नहीं होता था। इसलिए गर्मी का मौसम मौसम नहीं त्योहार था। वह आजकल की तरह किसी स्पेशल डे का मोहताज नहीं था, बल्कि गर्मी के दिनों की वो छुट्टियां ही सबसे बड़ा त्योहार होती थीं, किसी कार्निवाल की तरह।

टीवीऍफ़ प्ले के वेब सीरिज 'ये मेरी फैमिली' अपने सात एपिसोड्स के माध्यम से सीधे आपकी जिंदगी की उसी नॉस्टेल्जिक ट्रिप पर लेकर जाती है, जब जिंदगी फेसबुक पर 24 घंटे अपडेट नहीं, बल्कि फेस टू फेस जी भर के जी जाती थी, तब भी ट्रोलिंग होती थी लेकिन सोशल साईट पर बैठ कर किसी अनजाने की नहीं, बल्कि भाई-बहनों की टांग खिंचाई में असली troling का मजा था। निर्देशक समीर सक्सेना और राइटर सौरभ खन्ना की साझेदारी इस शो में ठीक वैसे ही है, जैसे कभी 90 के दशक में सचिन और सहवाग की पार्टनरशिप। इस शो में दोनों की वहीं ट्यूनिंग नज़र आती है। निर्देशक अपने निर्देशन से हमें 90 की उन गलियों की सैर एक बार फिर से कराते हैं, जो गलियां हम कई साल पहले छोड़ आये हैं वहीं लेखक ने उस दौर की बारीकियों को दर्शाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। इस शो में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि लेखक निर्देशक के साथ, शो के कॉस्टयूम मेकर और आर्ट डिपार्टमेंट के सदस्यों को उस दौर की हर एक छोटे-छोटे सामान सहेजने में मशक्कत तो करनी पड़ी होगी। क्योंकि जैसे 90 की यादें धुंधली हो रही हैं, उस दौर के वो सामान भी अब जाहिर हैं काफी आउटडेटेड हो चुके हैं। फिर भी शो में जिस तरह वॉकमेन, स्कूटर, मारुति कार, कॉमिक्स की किताबें, डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़ के कार्ड्स, रूह आफजा शर्बत, रेडियो, एयरकूलर, शक्तिमान के पोस्टर्स , फैंटम सिगरेट, फैशन टीवी, कोचिंग क्लासेज, पूरे परिवार के साथ आम खाने का मजा, जिल्द लगी किताबें और सबसे खास उस दौर की मम्मियों का पैसे छुपाने वाला सामान्य सी चेन वाला बटुआ हर चीज में 90 के फ्लेवर को जिन्दा रखने की कोशिश की है।

हालांकि, यह सच है कि इन दिनों 90 के दशक को एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में नॉस्टेल्जिक के नाम पर बिजनेस का अवतार देने में कौताही नहीं की जा रही है। लेकिन 'ये मेरी फैमिली' एक ईमानदार और सार्थक कोशिश नज़र आती है। वजह यह है कि एक तो शो के मेकर्स ने बेवजह शो को अधिक एपिसोड में खींचने की कोशिश नहीं की है। साथ ही शो को ओवर ड्रामेटिक बनाने से भी बचे हैं। शो की कहानी सात एपिसोड में घर के मंझले बच्चे हर्ष उर्फ़ हर्षु के व्यूफाइंडर से दिखाने की कोशिश की गई है। बिना किसी लाग-लपेट कहानी के नरेशन का अंदाज़ सामान्य और विश्वसनीय रखा गया है। साथ ही हर एपिसोड के साथ बिना किसी भाषणबाजी के दर्शकों के लिए ओपन एंडिंग फ्लो है, ताकि दर्शक यह महसूस न करें कि मेकर्स जजमेंटल होने की कोशिश कर रहे हैं। मेकर्स ने 1998 की गर्मी की छुट्टियों का वक़्त चुना है। सात एपिसोड में ही तीन महीने की अवधि में 90 के उन हसीन पलों को और उस दौर के फलसफे को दर्शाने की कोशिश की है। अंतिम एपिसोड में शो में मां का किरदार निभाने वाली मोना सिंह कहती हैं कि इस बड़े से यूनिवर्स में हमारी फैमिली काफी छोटी सी है, मगर यही फैमिली हमारे लिए यूनिवर्स बन जाती है। शो के मेकर्स ने पूरे शो का फलसफा इन चंद शब्दों में समेट दिया है।

खास बात यह भी है कि शो के किरदारों को किसी टेलीविजन शोज की तरह संस्कारी शोज और किरदारों को बनावटी टीआरपी वाले जज्बातों में नहीं बांधा है। एक बच्चे की चंचलता, शरारत, बदमाशी, अपने भाई बहनों से इनसेक्यूरिटी के साथ-साथ फैशन टीवी के साथ लुका-छुपी वाले प्यार को भी ईमानदारी से दर्शाया है। यही वजह है कि उस दौर से अगर आप राबता रखते हैं तो आप इस शो से खुद ब खुद कनेक्ट कर पायेंगे। शो की पृष्ठभूमि जयपुर की रखी रही है। जयपुर का मिडिल क्लास परिवार है, माता हैं, पिता हैं, तीन बच्चे हैं। दो बेटे और एक बेटी। आमतौर पर उस दौर की मांएं सिनेमाई मांओं से अधिक प्रभावित होती थीं और अपने बच्चों पर करण अर्जुन वाला ही प्यार न्योछावर किया करती थीं और बापू यानि पिता ठीक दंगल वाले आमिर खान की तरह किसी हानिकारक बापू के रूप में घर में भी बच्चों पर हुकुमत चलाने वाला प्रिंसिपल। इस शो में मेकर्स ने रोल रिहर्सल किया है। मां कभी ख़ुशी कभी गम वाले अमिताभ वाले किरदार यशवर्धन रायचंद है तो पिता हिंदी फिल्मों की मांओं की तरह भावुक है। उस दौर का ऐसा कौन सा दूसरे और तीसरे नम्बर का बच्चा नहीं होगा, जो इस शो के किरदार हर्षु की तरह, जिसने अपने बड़े भाई और बड़ी बहन के कारण अपने ही घर में अपने मम्मी और पापा से नेपोटीज्म का शिकार नहीं हुआ होगा, मसलन जिसने अपने बड़े भाई की गलती के कारण पिटाई नहीं खाई होगी और जिसके हिस्से में अपने बड़े भाई से माता-पिता का कम लाड़ मिला होगा। ये मेरी फैमिली 90 के उन्हीं पिटारों को खोलते हुए उन रिश्तों और इमोशन पर स्पॉटलाइट डालने की कोशिश की है, जिसमें भाई से trolling होने का अपना मजा, तो मां पर इम्प्रेशन डालने के लिए छोटी-मोटी हरकतों, छुप कर सिनेमा हौल में फ़िल्म देखने के लिए सुपरमैन बनने की चाहत, तो विद्या के रूप में अपनी सिमरन को पाने के लिए राज बनने के तमाम नुस्खें आजमाने की कोशिशों, पर कैमरे का फ्लैशबैक ऑन किया है और यहां तक कि शैंकी के रूप में चाइल्डहुड वाला वो एक जिगरी यार, जिसके पास हर मर्ज का ऐसा टॉनिक है, जो कभी खत्म ही नहीं होता, जो ताउम्र आपके साथ रहता है।

मेकर्स ने 13 साल के हर्षु के माध्यम से उन तमाम मिडिल क्लास परिवार की कहानी कही है, जहां परिवार का मतलब रात को खाने के बाद आइसक्रीम होता था और रविवार को बच्चों का सुपरमैन शक्तिमान ही होता था। मेकर्स ने शो में एक अच्छी बात यह भी रखी है कि शो में बेवजह रेगुलर टीवी शोज में आर्थिक तंगहाली से जूझ रहे झूठे ढकोसले दिखाने की बजाय 90s के बचपन की उस मासूमियत को बच्चे के व्यू फाइंडर पर ही केन्द्रित रखा है, जहां मां बच्चे के कन्फ्यूज होने पर कि उसे समझ नहीं आ रहा कि क्या गलत है और क्या सही, मां कहती है कि बचपन में गलती जैसा कुछ नहीं होता। लेकिन अगले ही पल वह मां, पूरी कोशिश करती है कि बच्चे से कोई भूल न हो जाये। दरअसल, इस सीरिज की खासियत यही है कि यह न तो जजमेंटल होने की कोशिश कर रही हैं और ही दर्शकों को इस बात के लिए मजबूर कर रही है। यह शो एक तरह से उस दौर की किस्सागोई है, जहां सबकुछ परफेक्ट नहीं है, बल्कि शो के किरदारों का अनपरफेक्ट होना ही इसकी ख़ूबसूरती है।

इस शो की सार्थकता की वजह यह भी है कि शो के मेकर्स ने बिल्कुल सटीक कास्टिंग की है, मोना सिंह ने एक ऐसी मां के किरदार को जीवंत बनाया है, जो 90s की फ़िल्मी मम्मियों की तरह सिर्फ बच्चों पर चाशनी वाला प्यार नहीं दर्शाती, बल्कि रियल जिंदगी के बिल्कुल करीब ज़ूम इन करती है। वहीं आकर्ष खुराना ने एक पिता के रूप में सरल और सहज अभिनय किया है। विशेष बंसल ने मुख्य किरदार हर्षु के रूप में पूर्ण रूप से न्याय किया है। अहान ने बड़े भाई के रूप में सार्थक योगदान दिया है। शैंकी के रूप में प्रसाद रेड्डी में योग्यता नज़र आती है। समर यानी गर्मियों के मौसम के इस कार्निवाल का अगर मजा लेना चाहते हैं और 90 के उस गोल्डन एरा की यादों में फिर से उस फ्लैशबैक में खोना चाहते हैं तो सोशल मीडिया की दुनिया से एक दिन की छुट्टी लेकर इस समर होलीडे का मजा ले सकते हैं। यकीन मानिए  'ये मेरी फैमिली' आपके लिए एक बेहतरीन रिटर्न टिकट साबित होगी। मुमकिन हो कि इसे देखने के बाद आपको अपनी अपडेट लगने वाली रूटीन लाइफ आउटडेटेड लगे और आप एक बार फिर से उन रिश्तों और अपनों से फिर से फेस टू फेस टकराने की कोशिश करें, और उस दीवार को तोड़ने कोशिश करें जो कि अब केवल दिखावे के लिए फेसबुक वॉल पर ही नजर आती है।


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