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Web Series: क्या ‘बड़े पर्दे’ के लिए चुनौती है OTT की बढ़ती लोकप्रियता? जानें क्या कहते हैं एक्सपर्ट

Web Content Vs Mainstream Cinema जिस तेज़ी से दर्शकों के बीच वेब प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता बढ़ रही है उससे कई सवाल भी पैदा हुए हैं। क्या मोबाइल स्क्रीन की यह लोकप्रियता भविष्य में बड़े पर्दे के लिए चुनौती साबित होगी?

By Manoj VashisthEdited By: Published: Wed, 18 Dec 2019 02:59 PM (IST)Updated: Thu, 19 Dec 2019 08:39 AM (IST)
Web Series: क्या ‘बड़े पर्दे’ के लिए चुनौती है OTT की बढ़ती लोकप्रियता? जानें क्या कहते हैं एक्सपर्ट
Web Series: क्या ‘बड़े पर्दे’ के लिए चुनौती है OTT की बढ़ती लोकप्रियता? जानें क्या कहते हैं एक्सपर्ट

नई दिल्ली [मनोज वशिष्ठ]। स्मार्टफोंस और इंटरनेट की बढ़ती सुलभता के बीच भारत में ओटीटी (Over The Top) कंटेंट की लोकप्रियता में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस बढ़ती लोकप्रियता ने मनोरंजन का कारोबार करने वालों को एक नया बाज़ार भी मुहैया करवा दिया है और इस फलते-फूलते बाज़ार ने 'बिग स्क्रीन' के कई दिग्गजों को 'मोबाइल स्क्रीन' की तरफ़ आकर्षित किया है।

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नेटफ्लिक्स और अमेज़न जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स फ़िल्मों और वेब सीरीज निर्माण पर करोड़ों का बजट ख़र्च कर रहे हैं, जो गुणवत्ता के मामले में मुख्यधारा के सिनेमा से किसी तरह कम नहीं होतीं। वहीं बड़े प्रोडक्शन हाउस की फ़िल्मों के ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ करने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है।

जिस तेज़ी से दर्शकों के बीच वेब प्लेटफॉर्म्स की लोकप्रियता बढ़ रही है, उससे कई सवाल भी पैदा हुए हैं। क्या 'मोबाइल स्क्रीन' की यह लोकप्रियता भविष्य में बड़े पर्दे के लिए चुनौती साबित होगी? क्या बेव प्लेटफॉर्मों पर रचनात्मकता की आज़ादी और कंटेंट की सुगमता बड़े पर्दे के लिए मेकर्स का मोह कम करेगी? भविष्य की तस्वीर जानने के लिए हमने वेब और फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों से बात-चीत की, जिनमें कलाकार, लेखक, सिनेमाहॉल मालिक और पत्रकार शामिल हैं। 

सिनेमा के लिए कोई ख़तरा नहीं, क्रिएटिव लोगों के लिए वरदान: शारिब हाशमी, एक्टर (द फैमिली मैन, प्राइम)

अभिनेता शारिब हाशमी ने 'जब तक है जान', 'फ़िल्मिस्तान' और 'बत्ती गुल मीटर चालू' जैसी फ़िल्मों में अपनी अदाकारी से दर्शकों को प्रभावित किया है। अमेज़न प्राइम की स्पाई सीरीज़ 'द फैमिली मैन' में उन्होंने मनोज बाजपेयी के साथ पैरेलल लीड रोल निभाया।

जागरण डॉट कॉम से बातचीत में शारिब ने साफ़ तौर पर कहा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म से सिनेमा को कोई ख़तरा नहीं है। साथ ही क्रिएटिव लोगों के लिए वरदान है। शारिब ने कहा- ''सिनेमा कमज़ोर नहीं होगा, बल्कि अपनी क्रिएटिविटी ज़ाहिर करने के लिए एक और प्लेटफॉर्म मिल गया है, जहां कुछ अलग करने की गुंजाइश रहती है। 

शारिब पारम्परिक सिनेमा की अहमियत पर कहते हैं कि सिनेमा का मैजिक चलता रहेगा। ग्रुप बनाकर हॉल में फ़िल्म एंजॉय करने का अलग ही आनंद होता है। 300-400 करोड़ का बिज़नेस भी वहीं से आता है। ओटीटी का फ़ायदा यह है कि यहां फ़र्स्ट डे कलेक्शंस का प्रेशर नहीं रहता है। मगर, मुक़ाबला यहां भी तगड़ा है। इतने बड़े 'क्लटर' में चमकना बड़ी बात है। दर्शक को पसंद नहीं आता, तो 10 मिनट में बंद करके कहीं और चला जाता है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर सेंसरशिप ना होने से यहां काफ़ी गुंजाइश भी है।  

80 फीसदी फ़िल्में पुराने ढर्रे पर बनती हैं, सिनेमा को बदलना होगा: संजीव के झा, लेखक (द बैरोट हाउस, ज़ी 5) 

'जबरिया जोड़ी' के लेखक संजीव के झा ने ज़ी 5 के लिए 'बैरट हाउस' जैसी सफल फ़िल्म का लेखन भी किया है। संजीव का मानना है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के दौर में दर्शकों के बीच मेनस्ट्रीम सिनेमा का क्रेज़ कम हुआ है। संजीव मेनस्ट्रीम सिनेमा में बदलाव की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए कहते हैं- ''80 फीसदी फ़िल्में आज भी 40-50 साल पुराने ढर्रे पर बनायी जाती हैं। वही पुराने दृश्य तेज़ी से बदलते दर्शक को बोर करने लगे हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स वेब सीरीज़ और ओरिजिनल्स के ज़रिए नई चीज़ें लेकर आ रहे हैं।'' 

ओटीटी कंटेंट की लोकप्रियता के पीछे संजीव कंटेंट के नयेपन को ज़िम्मेदार मानते हैं। संजीव कहते हैं- ''आज का 90 फीसदी सिनेमा फेक है, जबकि सिर्फ़ 10 फीसदी ओटीटी कंटेंट फेक है। ओटीटी कंटेंट वास्तविकता के क़रीब रहता है, जो दर्शकों को पसंद आता है।''

ओटीटी में स्टारडम के सवाल पर संजीव कहते हैं कि इस प्लेटफॉर्म के लिए स्टार्स को भी बदलना होगा। बड़े प्रोडक्शन हाउस को भी वेब दर्शक को ध्यान में रखकर कंटेंट देना पड़ता है, जिसकी करण जौहर बेहतरीन मिसाल हैं, जो दर्शक की नब्ज़ पकड़कर वैसा ही कंटेंट दे रहे हैं।

ओटीटी ज़रूरी, पर कम नहीं होगा सिनेमा का क्रेज़: एस रामाचंद्रन (वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार व समीक्षक)  

फ़िल्म पत्रकार और समीक्षक एस रामाचंद्रन मानते हैं कि दर्शकों की एक निश्चित तादाद ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की तरफ़ झुकी है और इस पर वो पैसा भी ख़र्च कर रहे हैं, मगर ऐसे दर्शकों की संख्या भी कम नहीं है जो फ़िल्म देखने के लिए बड़े पर्दे का रुख़ करते रहेंगे।

अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहते हैं कि ओटीटी प्लेटफॉर्म्स से पहले भी दर्शक विभिन्न वेबसाइट्स पर जाकर पायरेटेड फ़िल्में देखती थी, लेकिन उससे बड़े पर्दे की अहमियत तो कम नहीं हुई। अगर बड़ी फ़िल्मों के कैनवास और बजट पर आप ग़ौर करें तो दर्शकों को थिएटर्स तक खींचने के लिए इनमें लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। 

 

रामाचंद्रन कहते हैं कि इस वक़्त देश की आबादी में ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा नहीं है जिनके पास स्मार्टफोन हैं या जो ओटीटी पर हैं। ऐसी आबादी की संख्या लगभग 7 करोड़ होगी। इसलिए सिनेमा के लिए गंभीर ख़तरा बनने के लिए ओटीटी को अभी कम से कम 5 साल का वक़्त और लगेगा। वहीं, विज्ञापनदाताओं के लिए भी ओटीटी कंटेंट अभी प्राथमिकता नहीं है।

छोटे बजट की फ़िल्मों के लिए संजीवनी है ओटीटी

मेनस्ट्रीम सिनेमा को ओटीटी से ख़तरा क्यों नहीं है? इसे रामाचंद्रन एक उदाहरण से समझाते हैं। मान लीजिए, कोई फ़िल्म सिनेमाघरों में रिलीज़ की जानी है। बेहद कम बजट की फ़िल्म को रिलीज़ करने के लिए कुछ लाख लगते हैं। छोटे बजट की फ़िल्म 2 करोड़ की रकम में ठीकठाक रिलीज़ हो जाती है। मंझले बजट की फ़िल्म की रिलीज़ में 3-5 करोड़ की रकम ख़र्च होती है।

यही वजह है कि ज़्यादातर छोटे या मंझले बजट की फ़िल्मों को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ किया जाता है। बड़ी फ़िल्मों के अलावा ये वो फ़िल्में हैं जो डिजिटल प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध हैं जैसे कि राखोश। रामाचंद्रन कहते हैं कि लगभग 200 बॉलीवुड फ़िल्में और 800 क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्में सिनेमाघरों में हर साल आती हैं, जिससे लगता है कि ख़तरा अभी दूर है। 

ओटीटी से नहीं घटे सिनेमाघर के दर्शक- राज बंसल, मल्टीप्लेक्स ओनर

सिनेमाघर मालिकों का पक्ष जानने के लिए हमारे सहयोगी रजत सिंह ने मल्टीप्लेक्स ओनर राज बंसल से बात की। उन्होंने कहा- ''डिजिटल प्लेटफॉर्म पर फ़िल्मों के रिलीज़ का कोई ख़ास असर सिनेमाघरों पर नहीं पड़ा है। आजकल बड़ी से बड़ी फ़िल्में चार हफ्तों में 90 फीसदी बिज़नेस कर लेती हैं। डिस्ट्रिब्यूटर्स, एसोसिएशन और प्रोड्यूसर आपसी समझ के चलते, इसके बाद ही ऑनलाइन रिलीज़ करते हैं। ऐसे में सिनेमाघरों के बिज़नेस को कोई ख़ास नुकसान नहीं हो रहा है।''

फ़िल्म बाज़ार में क्या अहमियत रखते हैं ओटीटी प्लेटफॉर्म

वेब प्लेटफॉर्म्स के बढ़ते बाज़ार का अंदाज़ा 2018 में आयी इकॉनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट से हो जाता है। इस रिपोर्ट में छपे एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ़ 2018 में ओटीटी राइट्स में 59 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने फ़िल्मों के राइट्स ख़रीदने में 13.5 बिलियन रुपये ख़र्च किये हैं। फ़िल्म इंडस्ट्री को जो कुल रिवेन्यू मिला, उसमें 7.73 फीसदी रिवेन्यू ओटीटी राइट्स के ज़रिए आया।

यही वजह है कि पिछले कुछ सालों में वेब सीरीज़ और बेव फ़िल्मों के ज़रिए सिनेमा के कई बड़े नामों ने ओटीटी की दुनिया में अपनी क़दम रखा है। मनोज बाजपेयी, इमरान हाशमी से लेकर शाह रुख़ ख़ान और करण जौहर जैसे फ़िल्मकार ओटीटी की गंगोत्री में डुबकी लगा रहे हैं। सैफ़ अली ख़ान, फरहान अख़्तर और एकता कपूर जैसे सेलेब्स इस नए बाज़ार की संभावनाओं को भांपकर पहले ही अपनी आमद दर्ज़ करवा चुके हैं।

ओटीटी को लेकर टकराव की शुरुआत?

ओटीटी प्लेटफॉर्म भले ही अभी चुनौती ना लगें, मगर सिनेमाघरों से टकराव की शुरुआत हो चुकी है। इसकी सुगबुगाहट दक्षिण भारत और अमेरिका से सुनने को मिली है। साल 2019 में ही एस प्रभु की फ़िल्म काथी को 30 दिनों में ही ऑनलाइन स्ट्रीम कर दिया गया था।

इसके बाद सिनेमाघर मालिकों ने विरोध दर्ज कराया था। उन्होंने बिजनेस गिरावट की शिकायत भी की थी। वहीं, हॉलीवुड में फ़िल्म द आइरिशमैन को भी इस मुद्दे पर विरोध का सामना करना पड़ था, जिसके चलते बड़े सिनेमाघरों ने फ़िल्म दिखाने से मना कर दिया था।


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