'एक था राजा एक थी रानी' फेम सिद्धांत कर्णिक ने बताया कैसा रहा कोविड का डेढ़ साल, कहा- हर चीज का दूसरा पहलू होता है
डिजिटल प्लेटफार्म ने टीवी कलाकारों को उनकी छवि से इतर किरदारों को निभाने का मौका दिया है। इनमें अभिनेता सिद्धांत कार्णिक भी हैं। उनकी फिल्म ‘एंड टुमारो यू विल बी डेड’ 23 सितंबर से तीन अक्टूबर तक चलने वाले ज्यूरिख फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की जाएगी।
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। डिजिटल प्लेटफार्म ने टीवी कलाकारों को उनकी छवि से इतर किरदारों को निभाने का मौका दिया है। इनमें धारावाहिक ‘एक था राजा एक थी रानी’ फेम अभिनेता सिद्धांत कार्णिक भी हैं। उनकी फिल्म ‘एंड टुमारो यू विल बी डेड’ 23 सितंबर से तीन अक्टूबर तक चलने वाले ज्यूरिख फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की जाएगी। यह फिल्म तालिबान द्वारा एक स्विस दंपती के अपहरण की असल घटना पर आधारित है। इसमें सिद्धांत अफगान की भूमिका में हैं, जो मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। फिल्म और अभिनय सफर पर उनसे बातचीत के अंश...
पिछला डेढ़ साल कैसा रहा?
पिछले साल फरवरी में हमने अपनी फिल्म की शूटिंग जोधपुर में शुरू की थी। पांच दिनों की शूटिंग ही बची थी कि लाकडाउन शुरू हो गया। उसके बाद मैं माता-पिता के पास नासिक चला गया। दुर्भाग्यवश मेरे पिताजी को कोरोना हो गया और वह गुजर गए। लाकडाउन के कारण मैं रीति-रिवाज के हिसाब से उनका अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाया, पर जिंदगी आगे बढ़ती रहती है। खुद को संभाला, जिंंदगी सामान्य हुई तो स्पेन जाकर फिल्म की र्शूंटग पूरी की। ‘पाटलक’ और कुछ अन्य प्रोजेक्ट की शूटिंग खत्म की।
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फिल्म को ज्यूरिख फिल्म फेस्टिवल में दिखाए जाने पर क्या फीलिंग है?
ऐसा लग रहा है कि यह शुरुआत है, इसके बाद कई और प्रोजेक्ट इंटरनेशनल लेवल पर करने को मिलेंगे। अब हमारे लिए वैश्विक सिनेमा के द्वार खुल चुके हैं।
क्या अब आपका फोकस फिल्मों और डिजिटल प्लेटफार्म की तरफ ज्यादा है?
मैं सब कुछ कर चुका हूं। बैक स्टेज के छोटे-छोटे काम से लेकर ‘छोटा भीम’ समेत कई एनीमेशन शोज का वायस ओवर भी किया। थिएटर करता था और टीवी पर भी काम करता था। टेलीविजन ने मुझे काफी नाम दिया, लेकिन मैं खुद को विस्तार देना चाहता था, मेरी पहली शार्ट फिल्म कान फिल्म फेस्टिवल में सेलेक्ट हुई थी। विभिन्न प्लेटफार्म पर काम करते हुए अब मेहनत मळ्झे अंतरराष्ट्रीय स्टेज पर लेकर जा रही है। यह सुखद है।
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अफगानी बनने की क्या प्रक्रिया रही?
(हंसते हुए) मेरे पिताजी आर्मी में थे। उनकी बातें मेरे जेहन में थीं। इस कैरेक्टर को न्यूट्रल होकर अप्रोच करना मुझे बहुत मुश्किल लग रहा था, लेकिन उनकी एक बात ने मेरा नजरिया बदल दिया। जब मैंने उनसे पूछा कि तालिबान और आतंकवादी कैसे होते हैं तो उन्होंने कहा उनके लिए उनका सच ही अहमियत रखता है। यह फिल्म सच्ची कहानी पर आधारित है। निर्देशक ने भी इस किरदार को पकड़ने में मदद की। अफगान लहजा और उच्चारण सीखने के लिए मैंने कई डाक्यूमेंट्रीज देखीं।
अफगानिस्तान के हालात को देखते हुए अपने किरदार के संबंध में क्या सोचते हैं?
जब मैं पहली बार डायरेक्टर से मिला तो उन्होंने मुझे कहा था कि राजनीति, धर्म एक तरफ होता है, लेकिन जब एक अपहृत और अपहरणकर्ता 290 दिनों तक एक साथ रहते हैं तो दोनों के बीच एक इंसानियत का रिश्ता बन जाता है। उसी नजरिए से हमने इस किरदार को दिखाया है। यह एक ऐसा किरदार है जो अपहृत लोगों का खयाल रखता था। मेरे किरदार के जरिए निर्देशक ने यही दिखाने की कोशिश की है कि हर चीज खराब और हर चीज अच्छी नहीं होती।