Interview: 'तेलुगु में राजामौली ने भी मुझ पर रिस्क लिया, पर हिंदीभाषी होने के बावजूद यहां वैसे मौक़े नहीं मिले'- राहुल देव
राहुल देव ने कहा- मैंने 30 से अधिक तेलुगु फ़िल्में की हैं। उस भाषा का एक शब्द नहीं आता। कई बार बुरा लगता है कि मैं दिल्ली से हूं। मेरी हिंदी बहुत अच्छी है। ठीक-ठाक बोल लेता हूं मगर कभी यूपी या बिहार का किरदार करने को नहीं मिला।
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। ज़ी5 की मिस्ट्री-थ्रिलर फ़िल्म रात बाक़ी है में राहुल देव एक इनेवेस्टिगेटिव ऑफ़िसर अहलावत का किरदार निभा रहे हैं। अविनाश दास निर्देशित फ़िल्म 16 अप्रैल को प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम की जाएगी। इस फ़िल्म में राहुल के अलावा अनूप सोनी, पाओली दाम और दीपानीता शर्मा प्रमुख किरदारों में दिखेंगे। फ़िल्म में अपने किरदार और करियर को लेकर राहुल ने जागरण डॉट कॉम से विस्तार से बातचीत की।
ट्रेलर से आपका किरदार खलनायक जैसा लगता है?
मेरा किरदार खलनायक नहीं है। आईपीएस ऑफ़िसर (एसपी) है। वो एक किलर की तलाश में है। एक रात की कहानी है। एक मर्डर हो जाता है। पता करना है कि कातिल कौन है। हू डन इट मिस्ट्री है। एक परतदार थ्रिलर है। तफ्तीश के दौरान, कई लोगों पर शक होता है। ओरिजिनल स्क्रिप्ट में मेरे किरदार के लिए कई जगह आप-आप लिखा था। उससे कैरेक्टर उभरकर नहीं आता।
अविनाश जी बहुत अच्छे निर्देशक हैं। सुझाव सुनते हैं। मैंने कहा कि अगर वो आप-आप करके बात करता है तो वो अहलावत नहीं हो सकता। अहलावत सूर्यवंशी जाट होते हैं। मैं दिल्ली से हूं। मेरे पिता डेकोरेटिव पुलिस अफ़सर थे। उन्हें गैलेंट्री अवॉर्ड मिले थे। हम कई जगहों पर रहे थे। पुलिस अफ़सर ऐसे नहीं होते। पुलिस का काम बेहद मुश्किल होता है।
इसमें कोई कितना भी पेशेंस वाला आदमी हो, लेकिन सामने वाला अगर बदतमीज़ी से बात कर रहा है या सही से जवाब नहीं दे रहा है तो पुलिस वाला क्या करेगा? आप-आप कहीं-कहीं रखा है, जब बात शुरू होती है। जब बात आपे से बाहर निकलती है, तो वो रफ हो जाता है। उतनी रफनेस स्क्रीन पर पहले नहीं थी। ट्रेलर में जो आप देख रहे हैं, वो बाद में हुआ है।
फ़िल्म की शूटिंग काफ़ी जल्दी हो गयी थी, फिर रिलीज़ में इतनी देरी क्यों?
पहले वाली रिलीज़ (20 नवम्बर) बहुत जल्दी कर रहे थे, उसकी ज़रूरत नहीं थी। अच्छा डिसीज़न लिया है ज़ी और बाकी क्रिएटिव्स ने। मैं ख़ुश हूं कि फ़िल्म अब आ रही है। बहुत अच्छा प्रोडक्ट बना है। लोगों को पसंद आएगी फ़िल्म। कुछ काम बाकी रह गया था। कुछ हिस्से मुंबई में शूट करने के लिए छोड़े थे। मुंबई में माहौल कुछ ऐसा था कि जल्दी हो नहीं पाया। कुछ सीन में ज़्यादा लोगों की ज़रूरत थी। इंटीरियर कुछ इस तरह का चाहिए था, जो स्क्रिप्ट के हिसाब से वहां मैच नहीं कर रहा था। राजस्थान में ख़ूबसूरत पैलेस में हम रुके थे। कैमरे मॉनिटर करने के लिए जो सिक्योरिटी रूम होते हैं, कहानी हमें वहां पर भी लेकर जाती है। बेहतर लुक के लिए वो हिस्सा हमने मुंबई में भी शूट किया है। ऐसे कुछ और दृश्य और थे।
फ़िल्म की कहानी बालीगंज 1990 नाटक से प्रेरित है। नाटक से फ़िल्म कैसे अलग है?
बालीगंज 1990 प्ले को फिर से लिखा गया है। नाटक में आप इंप्रोवाइज़ भी कर जाते हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं। वो एक वन एक्ट प्ले था। नाटक में पुलिस वाले का रोल नहीं है। फ़िल्म में चार मुख्य किरदार हैं। इसमें पुलिस वाले का किरदार बहुत डोमिनेटिंग है। उस पर सवाल नहीं उठा सकते। इसमें डार्क ह्यूमर है।
आपको इंडस्ट्री में 20 साल हो गये। इस लम्बे सफ़र को अब कैसे देखते हैं?
20 में से पांच साल तो बिल्कुल काम नहीं किया। मेरी वाइफ़ की डेथ हो गयी थी। 16 मई 2009 में हादसा हुआ था। इस मई में 12 साल हो जाएंगे। उस समय 13 फ़िल्में थीं, जिसमें से सात-आठ बची थीं। दो साल काम करने के बाद साढ़े चार साल का ब्रेक लिया था। दिल्ली शिफ्ट हो गया था। बेटा बहुत छोटा था। मैं मीडिया के पास नहीं गया। मुझे बड़ा तमाशा लगता था। जाकर बोलूं कि मैं काम नहीं करूगां वगैरह-वगैरह। मीडिया में एलान करके छोड़ता तो बेटे को ठेस पहुंचती। वहां पैरेंट्स भी थे, उनकी फैमिली थी। यही वजह थी, जो मैं इंडस्ट्री से चला गया था।
2016 में बिग बॉस से वापसी की। कहीं से तो शुरुआत तो करनी थी। लौटने के बाद ढिशूम और मुबारकां जैसी फ़िल्में कीं। फिर से अच्छा काम मिल रहा है। पिछला साल बहुत अच्छा रहा। तोरबाज़ नेटफ्लिक्स की फ़िल्म बनकर आयी। थिएटर्स बंद हो गये थे। 183 देशों में रिलीज़ हुई। ग्लोबल ट्रेंडिंग रही। यहां पर मीडिया को लगा कि ख़राब है। फ़िल्म वर्ल्डवाइड 6 नम्बर पर ट्रेंड हुई थी। ढाई हफ़्तों के लिए नम्बर 8 पर ट्रेंड होती रही। भारत में नम्बर एक पर ट्रेंड रही थी। लूडो को रिप्लेस किया था इस फ़िल्म ने। मिक्स रिव्यूज़ मिले थे। मैंने संजू (संजय दत्त) को फोन किया तो उन्होंने कहा वो सब मत देख, रिज़ल्ट देख।
अपनी फ़िल्मों में किरदारों को लेकर क्या सोचते हैं?
पिछले छह-सात सालों में फ़िल्मों में क्रिएटिविटी बेहतर हुई है। मैं 2000 में आया था। 22 दिसम्बर 2000 को चैम्पियन रिलीज़ हुई थी। मैं मेनस्ट्रीम कमर्शियल फ़िल्मों का प्रोडक्ट हूं। मुझे उसी के लिए ज़्यादा लोग जानते हैं। मैंने अलग तरह की फ़िल्में करने की कोशिश भी की। बहुत रुचि थी कि उस तरह का काम करूं, मगर टाइप कास्टिंग बहुत होती है। कल्पना लाज़मी जी के लिए क्यों की थी। कुषाण नंदी के लिए 88 एंटॉप हिल की थी।
शूल के लिए ई निवास को नेशनल अवॉर्ड मिला था। उनकी अगली फ़िल्म बर्दाश्त मैंने की। बर्दाश्त कमर्शियल फ़िल्म थी। कमर्शियल मेनस्ट्रीम प्रोडक्ट को कमर्शियल फ़िल्में ही मिलती हैं। उस समय ब्लैक और व्हाइट का बहुत होता था। यह जो रेस्ट्रिक्शन आती है हमारे ऊपर, वो इसलिए नहीं आती, हम नहीं करना चाहते। पहली पिक्चर से आपकी टाइप कास्टिंग हो जाती है। ऐसा नहीं है कि मैं बाकी नहीं कर सकता हूं।
आपने दक्षिण भारतीय सिनेमा में काफ़ी काम किया है। वहां का अनुभव कैसा रहा?
मैंने 30 से अधिक तेलुगु फ़िल्में की हैं। उस भाषा का एक शब्द नहीं आता। कई बार बुरा लगता है कि मैं दिल्ली से हूं। मेरी हिंदी बहुत अच्छी है। ठीक-ठाक बोल लेता हूं, मगर कभी यूपी या बिहार का किरदार करने को नहीं मिला। वहां, तेलुगु में राजामौली साहब ने भी मुझ पर रिस्क लिया। मुझे स्टेट अवॉर्ड भी मिला 'सिमहाद्रि' के लिए। राजामौली को यहां लोग बाहुबली के बाद से जानते हैं। हमने उनके साथ 2003 में काम किया था। उस समय वहां के मार्केट की यहां रिकग्निशन नहीं थी।
प्रभुदेवा, राजामौली, राघव लॉरेंस के साथ काम किया। लॉरेंस साहब के साथ मैंने 'मास' की है, जो तेलुगु में मेरी सबसे बड़ी हिट रही है। प्रभुदेवा जी के साथ मैंने 'पोरनमी' की है। मुझे तेलुगु का एक वर्ल्ड नहीं आता। डबिंग मेरी नहीं है, लेकिन लिप सिंक करूंगा तभी तो कोई डबिंग करेगा। कई बार ऐसा लगता था कि यार यह भाषा नहीं आती, मगर इमोशन को आप नहीं छोड़ सकते। अगर इमोशन सहीं नहीं होगा, तो दर्शक को टच ही नहीं करेगा।
आप इंडस्ट्री में बाहर से हैं। कभी ऐसा लगा कि आउटसाइडर होने के नाते भेद-भाव हो रहा है?
आप कहीं भी जाते हैं तो आउटसाइडर ही होते हैं। हां, अगर आपके पिता उस क्षेत्र में पहले से हैं तो कुछ फ़ायदा तो मिलता ही है। अगर किसी को यह सहूलियत मिलती है तो ग़लत क्या है। राजनीति में लोग एक ही परिवार को सालों वोट देते रहते हैं, वहां तो कोई नहीं पूछता। मैं राजनीतिक टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। किसी के पक्ष में या ख़िलाफ़ नहीं हूं। अगर किसी ने अपने काम के लिए ख़ून-पसीना दे दिया है तो उसकी अगली पीढ़ी क्या डिज़र्ब नहीं करती? अगर उस पीढ़ी का इंट्रेस्ट है उस फील्ड में तो क्या उसे सिर्फ़ इसलिए नहीं जाना चाहिए, क्योंकि उसके पिता या उसकी माता उस फील्ड में काम करते थे? आउटसाइडर हैं तो कुछ ऐसा करिए कि आपको लोग स्वीकार करने लगें। दोनों की तुलना करना सही नहीं। हां, एक अतिरिक्त फ़ायदा तो मिलता है।
मेरे भाई (एक्टर मुकुल देव) ने Indira Gandhi Rashtriya Udaan Academy से कमर्शियल पायलट का कोर्स किया था। तब एयर लाइन कंपनियों का निजीकरण नहीं हुआ था। एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस ही थीं। मुझे याद है कि एक पायलट थे, उनके बेटे को तुरंत पायलट का जॉब मिला था। यह लोग (मुकुल) बैठे रह गये थे। फ़िल्मों की लोग ज़्यादा बात करते हैं, इसलिए यहां ज्यादा बात होती है। मुझे लगता है कि फ़िजूल की बहस है। आप यह सोच लेकर जाएं कि मैं यहां का नहीं हूं, इसलिए कुछ एक्स्ट्रा कर लेता हूं।
आगे फ़िल्मों के निर्माण से जुड़ने का कोई इरादा कर रहे हैं क्या?
अभी प्रोडक्शन में जाने का कोई इरादा नहीं है। बहुत अच्छे-अच्छे निर्देशकों के साथ काम करना चाहता हूं। अनुराग भाई हैं। शिमीत अमीन हैं। श्रीराम राघवन का बहुत बड़ा फैन हूं। सीआईडी की बैकबोन वही हैं। लगभग 60 एपिसोड्स उन्होंने लिखे और डायरेक्ट किये थे। थ्रिलर उनका ख़ास जॉनर है। अभी एक्टिंग करना चाहता हूं।