Bicchoo Ka Khel Review: भड़काऊ रोमांस, साजिशें और रंगीन-मिज़ाज किरदार, जासूसी उपन्यासों का चटखारा देती दिव्येंदु की बिच्छू का खेल
Bicchoo Ka Khel Review बिच्छू का खेल एक बेहद साधारण क्राइम ड्रामा सीरीज़ है जिसे देखने के बाद ऐसी फीलिंग आती है मानो हिंदी का कोई जासूसी उपन्यास पढ़ लिया हो जिसे इलीट क्लास की भाषा में पल्प फिक्शन कहा जाता है।
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। 'मिर्ज़ापुर' जैसी कामयाब और चर्चित सीरीज़ से लोकप्रियता के शिखर पर बैठे दिव्येंदु की नई सोलो लीड रोल वाली सीरीज़ 'बिच्छू का खेल' ज़ी5 और ऑल्ट बालाजी पर एक साथ रिलीज़ हो गयी। 'बिच्छू का खेल' एक औसत क्राइम-रोमांटिक ड्रामा सीरीज़ है, जिसे देखने के बाद ऐसी फीलिंग आती है, मानो हिंदी का कोई जासूसी उपन्यास पढ़ लिया हो, जिसे इलीट क्लास की भाषा में पल्प फिक्शन या लुगदी साहित्य कहा जाता है।
सीरीज़ के शीर्षक से लेकर पटकथा तक, 'बिच्छू का खेल' में वो सारे मसाले मौजूद हैं, जो ऐसे उपन्यासों में मनोरंजन का तड़का लगाने के लिए डाले जाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि 'बिच्छू का खेल' जासूसी उपन्यास लेखक अमित ख़ान के इसी नाम से आये उपन्यास का स्क्रीन अडेप्टेशन है। सीरीज़ के राइटर्स ने भी अपने लेखन में उस एहसास को नहीं मरोड़ने की कोशिश नहीं की है। हीरो-हीरोइन का भड़काऊ रोमांस, परत-दर-परत साजिशें और खुलासे, गाली-गलौज मिश्रित डायलॉगबाज़ी, रंगीन-मिज़ाज किरदार... और वो सब, जिससे दर्शक वही चटखारा ले, जो जासूसी उपन्यासों को पढ़ते हुए लेता है।
पल्प फिक्शन और सिनेमा की जुगलबंदी पहले भी होती रही है। मशहूर लेखक वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास 'बहू मांगे इंसाफ़' पर 1985 में 'बहू की आवाज़' आयी थी, जिसमें नसीरूद्दीन शाह, राकेश रोशन, ओम पुरी और सुप्रिया पाठक जैसे कलाकार थे। हालांकि, अक्षय कुमार की हिट फ़िल्म 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' पल्प फिक्शन और सिनेमा की जुगलबंदी की सबसे कामयाब मिसाल है। यह वेद प्रकाश शर्मा के लल्लू उपन्यास पर आधारित थी। 2010 में उनके मशहूर किरदार केशव पंडित पर आधारित सीरीज़ ज़ीटीवी पर प्रसारित हुई थी।
इस सिलसिले को आगे बढ़ाती 'बिच्छू का खेल' 9 एपिसोड की सीरीज़ है। हर एपिसोड की समय सीमा औसतन 20 मिनट है, जिसकी वजह से यह सीरीज़ भागती हुई प्रतीत होती है। 'बिच्छू का खेल' की कहानी मोक्ष और मुक्ति के नगर वाराणसी में सेट की गयी है। कहानी का मुख्य पात्र अखिल श्रीवास्तव (दिव्येंदु) है और एक कॉलेज फंक्शन से शुरू होती है, जिसमें शहर के नामी वकील अनिल चौबे (सत्यजीत शर्मा) मुख्य अतिथि बनकर पहुंचे हैं। अखिल, भरी महफ़िल में अनिल चौबे की गोली मारकर हत्या कर देता है और फिर पुलिस थाने जाकर आत्म-समर्पण। यहां, पुलिस अधिकारी निकुंज तिवारी (सैयद ज़ीशान क़ादरी) के सामने अखिल अपनी पूरी कहानी सुनाता है। अखिल, अनिल चौबे की बेटी रश्मि चौबे (अंशुल चौहान) से प्रेम भी करता है।
दिल से लेखक अखिल और उसका पिता बाबू (मुकुल चड्ढा), एक मिठाई की दुकान में काम करते हैं, जिसका मालिक अनिल चौबे का बड़ा भाई मुकेश चौबे (राजेश शर्मा) है। बाबू के मुकेश की पत्नी प्रतिमा चौबे (तृष्णा मुखर्जी) के साथ अवैध संबंध हैं। एक रात बाबू, बाहुबली मुन्ना सिंह (गौतम बब्बर) के क़त्ल के आरोप में फंस जाता है। कुछ घटनाक्रम के बाद उसकी जेल में हत्या हो जाती है। अखिल, पिता बाबू की हत्या का बदला लेने निकल पड़ता है और इस क्रम में कई नई साजिशों का पता चलता है। कुछ चौंकाने वाले खुलासे होते हैं। अखिल किस तरह ख़ुद अनिल चौबे के क़त्ल के आरोप से ख़ुद को बचाता है? कैसे बाबू के क़ातिल तक पहुंचता है? यही बिच्छू का खेल है।
'बिच्छू का खेल' के अखिल में अभी भी 'मिर्ज़ापुर' के मुन्ना त्रिपाठी की छवि नज़र आती है, बस दबंगई का भाव चला गया है। बाक़ी, बहुत कुछ वैसा ही है। शुरू में ऐसा लगता है कि दिव्येंदु अभी उस किरदार से पूरी तरह बाहर नहीं आ पाये हैं। हालांकि, सीरीज़ जैसे-जैसे अंत की ओर बढ़ती है, दिव्येंदु अखिल को मुन्ना त्रिपाठी से अलग करने में कामयाब होते लगते हैं। रश्मि के किरदार में अंशुल चौहान अच्छी लगी हैं। दिव्येंदु के साथ उनकी कैमिस्ट्री बेहतरीन लगी है। रश्मि का किरदार परतदार है, जिसे उन्होंने अच्छे से निभाया है।
'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' से लेकर 'हलाहल' और 'छलांग' तक अपने लेखन का जौहर दिखाने वाले सैयद ज़ीशान क़ादरी ने इनवेस्टिगेटिंग ऑफ़िसर के रूप में माहौल बनाये रखा है। पत्नी पूनम तिवारी के रोल में प्रशंसा शर्मा ने ज़ीशान का पूरा साथ दिया। हालांकि, इन पर फ़िल्माये गये अंतरंग दृश्यों का प्रायोजन समझ नहीं आता। हो सकता है, पल्प फिक्शन दिखाने की मजबूरी ने लेखकों को ऐसे दृश्य लिखने के लिए बाध्य किया हो। राजेश शर्मा बेहतरीन कलाकार हैं और किरदार में रमे हुए नज़र आते हैं।
आपराधिक प्रवृत्ति वाले बाबू और अखिल के बीच बाप-बेटे का रिश्ता है, मगर उनके बीच का खुलापन और बातचीत में अतिरंजिता हजम करना मुश्किल लगता है। ख़ासकर, जब कहानी बनारस में सेट हो। जिब्रान नूरानी का स्क्रीनप्ले बिल्कुल पल्प फिक्शन वाली फीलिंग देता है। तेज़ रफ्तार है और कहीं ठहरने का समय नहीं देता, जिसकी वजह से कुछ चीजें मिसिंग लगती है। फर्राटेदार कथ्य, थ्रिल के लिए अच्छा होता है, मगर दृश्यों के बीच ब्रीदिंग स्पेस उन्हें जज़्ब करने का मौक़ा देता है।
क्षितिज रॉय के संवाद तीख़े और चटपटे हैं। किरदारों को सूट करते हैं। गालियों की भरमार अटपटी लगती है। बोलचाल की भाषा दिखाने के लिए ज़रूरी नहीं कि वाक्य की शुरुआत एक ठूसी हुई गाली से की जाए, लहज़ा ही काफ़ी होता है। हालांकि, कुछ लाइनें असरदार हैं और हालात पर टिप्पणी करती हैं। मसलन, जब पूरा सिस्टम आपके ख़िलाफ़ हो तो ख़ुद सिस्टम बनना पड़ता है या पब्लिक कन्फर्म सीट वाले को भी उठा देती है। भगवान से नहीं तो इस सिस्टम से डरो या फिर घास अगर बागी हो जाए तो पूरे शहर को जंगल बना देती है।
'अनदेखी' सीरीज़ का निर्देशन करने वाले आशीष आर शुक्ला ने 'बिच्छू का खेल' को उसके मिज़ाज के अनुरूप ही रखा है। गंभीर से गंभीर सिचुएशन में भी एक मज़ाकिया भाव बना रहता है। कुछ दृश्यों में 80 और 90 के दौर के गानों का बैकग्राउंड स्कोर के रूप में प्रयोग इसे नॉस्टलजिक फीलिंग देता है, जिसका क्रेडिट शो की शुरुआत में उस दौर के संगीतकारों को दे दिया गया है। ऐसा लगता है कि 'बिच्छू का खेल' सीरीज़ इस जॉनर के कट्टर फैंस के लिए ही बनायी गयी है। कंटेंट को मनोरंजक बनाने के लिए उसका स्तर गिराने की बाध्यता सीरीज़ का वज़न हल्का कर देती है, जिसे बेहतर करने की काफ़ी गुंजाइश थी।
कलाकार- दिव्येंदु, अंशुल चौहान, सैयद ज़ीशान क़ादरी, राजेश शर्मा, तृष्णा मुखर्जी आदि।
निर्देशक- आशीष आर शुक्ला
निर्माता- एकता कपूर, शोभा कपूर
वर्डिक्ट- **1/2 (ढाई स्टार)