Interview: LLB की पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी पहली फिल्म '420 IPC', कोर्ट रूम ड्रामा को लेकर बदला नजरिया- गुल पनाग
Gul Panag Interview 420 IPC हमारे यहां मेरिल स्ट्रीप या शॉन पेन नहीं है। या फिर जॉर्ज क्लूनी नहीं हैं जिन्होंने बड़े-बड़े मुददों पर स्टैंड लिये हैं। उसका कारण है कि पब्लिक भी यही समझती है कि इन लोगों से लीडरशिप की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। बॉलीवुड एक्ट्रेस गुल पनाग फिल्मों में अपने अलग तरह के किरदारों के लिए जानी जाती हैं। वहीं, वास्तविक जीवन में उनकी पहचान एक मुखर और जागरूक सेलेब्रिटी के तौर है। गुल अब जी5 की फिल्म 420 IPC में नजर आएंगी। जागरण डॉट कॉम से गुल ने अपने किरदार और निजी जीवन की च्वाइसेज को लेकर बेबाकी से बात की।
420 आईपीसी में आप विनय पाठक के किरदार बंसी केसवानी की पत्नी की भूमिका में हैं। प्लॉट के लिए इस किरदार की क्या अहमियत है?
देखिए, ऊपरी तौर पर तो यह लगता है कि पूजा सिर्फ बंसी केसवानी की बीवी है। केसवानी जेल पहुंच गये हैं और यह जो भी कर रही है, मजबूरी में उनको बचाने के लिए कर रही है। पर एक बिंदु पर आकर प्लॉट में जो ट्विस्ट आता है, उसके बाद वो इस प्लॉट की ड्राइवर बन जाती है। मुझे लगता है कि यह बहुत दिलचस्प कैरेक्टर है और निर्देशक मनीष गुप्ता ने स्क्रिप्ट बहुत बढ़िया लिखी है।
इससे पहले पाताल लोक में भी आपने हाथीराम की बीवी रेणु का किरदार निभाया था। उस किरदार से यह कितना अलग है?
420 आईपीसी में जिस तरह से मेरा किरदार खुलता है, वो असल में प्लॉट का ट्विस्ट है। हाथीराम की बीवी रेणु का किरदार असल में मनोरमा सिक्स फीट अंडर की निम्मी से प्रेरित था। पाताल लोक के लेखक ने कहा था कि अगर निम्मी उम्र में बड़ी होगी तो वो किस तरह बिहेव करेगी, वैसा ही करना था। जिसकी ख्वाहिशें हों, एक सरकारी मुलाजिम की बीवी, जो फंसी हुई है। यहां (420 आईपीसी) जो किरदार है, वो थोड़ा शहरी है। हाथीराम की बीवी से ज्यादा सुलझी हुई है। यह जो दिखती है, वो है नहीं। पूजा का सबसे मजेदार पहलू यही है।
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विनय पाठक और रणवीर शौरी के साथ आप पहले भी काम कर चुकी हैं। इन कलाकारों के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा?
मुझे विनय और रणवीर के साथ दोबारा काम करने का मौका मिला तो बहुत मजा आया। विनय के साथ स्ट्रेट और मनोरमा सिक्स फीट अंडर में काम किया था, वहीं रणवीर के साथ फैट्सो की थी। हम दोस्त तो हैं ही। एक-दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं। दोनों ही बहुत बढ़िया एक्टर हैं तो इनके साथ काम करके परफॉर्मेंस लेवल भी अप हो जाता है।
मनीष गुप्ता के साथ पहली बार काम किया है। दूसरे निर्देशकों से उन्हें क्या अलग करता है?
मनीष गुप्ता एक परफेक्शनिस्ट डायरेक्टर हैं। उन्हें साफ पता रहता है कि उन्हें क्या चाहिए। एक एक्टर के लिए यह अच्छी बात है। सबसे कन्फ्यूजिंग वो होता है, जब एक डायरेक्टर नहीं जानता कि वो क्या चाहता है। या फिर जानता भी है, मगर बहुत सारे ऑप्शंस चाहता है। यह उसी का दूसरा पहलू हो गया कि आपको आइडिया नहीं है कि आप फाइनली क्या करना चाहते हैं। मनीष अपने काम को लेकर एकदम स्पष्ट रहते हैं तो यह एक्टर्स के लिए काम आसान हो जाता है।
बॉलीवुड में अब तक कई कोर्ट रूम ड्रामा बने हैं। 420 आईपीसी में क्या खास है?
मैंने हाल ही में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की है। पढ़ाई खत्म करने के बाद यह पहली स्क्रिप्ट थी, जो मैंने पढ़ी। बाकी तो तीन साल की पढ़ाई के दौरान पाताललोक, रंग बाज में काम कर रही थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद जो पहला प्रोजेक्ट मैंने किया वो यही है। संयोग देखिए कि जब मेरे पास यह स्क्रिप्ट आयी तो दो-तीन एग्जाम ही बचे हुए थे। लॉ की पढ़ाई के बाद एक नागरिक होने के नाते मेरी न्यायालय, पुलिस या लीगल फ्रेमवर्क के लिए जो समझ है, वो नाटकीय रूप से बदल गयी। जागरूक नागरिक बन गयी हूं। वकालत की पढ़ाई के मद्देनजर यह स्क्रिप्ट देखूं तो मुझे लगता है कि इसमें बहुत डिटेलिंग है। सोचकर हैरानी होती है कि इसको लिखने के लिए मनीष ने कितने केस पढ़े होंगे। मैंने एलएलबी के आखिरी साल में आईपीसी, सीआरपीसी, सीपीसी जैसे पेपर पढ़े हैं। यह तो पहले से पता था कि जब कानूनी कार्यवाही की बात आती है तो हमारी फिल्में वास्तविकता से दूर होती हैं, पर लॉ पढ़ने के बाद तो जमीन-आसमान का फर्क नजर आता है।
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इसी से जुड़ा सवाल, बॉलीवुड में आर्थिक अपराधों पर ज्यादा फिल्में नहीं बनीं। क्या वजह मानती हैं?
देश में आर्थिक अपराध के मामले बढ़े हैं। हालांकि यह सोचने की बात है कि आर्थिक अपराध बढ़े हैं या उनका प्रोसीक्यूशन बढ़ा है। ऐसे हालात में आने वाले दिनों लीगल ड्रामा बढ़ेंगे। आप आए दिन सुनते हैं कि इस पर ईडी की रेड हो रही है। उस पर आईटी की रेड हो रही है। कितने प्रेरित हैं, कितने सच हैं, यह नहीं जानते। मेरे ख्याल से वहां एक स्क्रिप्ट बनने को तैयार है कि मोटिवेटेड हैं या जेनुइन हैं।
ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के बढ़ने से कंटेंट को लेकर क्या बदलाव पाती हैं?
पहले एक ही तरह की फिल्में बनती थीं। उसकी वजह है कि थिएट्रिकल रिलीज की अपनी अर्थव्यवस्था ऐसी है कि फिल्म अगर अधिकतम लोगों की पसंद की नहीं होगी तो नहीं चलेगी। इतना बड़ा रिस्क कोई क्यों लेगा। अब क्या है, कंटेंट की मैपिंग हो गयी है। वो उपभोक्ता की एलगोरिदम मैच कर लेते हैं। अगर आपको मर्डर मिस्ट्री पसंद हैं तो घड़ी-घड़ी आपको मर्डर मिस्ट्री देते रहेंगे। लोगों की पसंद के हिसाब से कंटेंट कमीशन हो रहा है। तो मुझे लगता है कि यह बदलाव आया है। अलग-अलग प्रकार की फिल्में बन रही हैं, कंटेंट बन रहा है। अहम बात यह है कि पहले जिसे पैरेलल या ऑल्टरनेटिव कंटेंट कहा जाता था, वो अब ज्यादा स्वीकार्य हो रहा है। बड़ा वर्ग क्या चाहता है या क्या नहीं चाहता, उसका अंतर साफ हो रहा है। अब उस बड़े वर्ग की पसंद के हिसाब से आप फिल्म बना सकते हैं और ओटीटी के जरिए आप लोगों तक पहुंचा सकते हैं।
ओटीटी बूम की वजह से मेनस्ट्रीम सिनेमा के सामने क्या चुनौतियां हैं?
मेनस्ट्रीम सिनेमा के सामने थोड़ा-बहुत चैलेंज हो सकता है, लेकिन बहुत बड़ा नहीं। क्योंकि 3डी या आईमैक्स वाली फिल्में तो थिएटर में ही देखेंगे। आपको हर तरह की फिल्म क्या थिएटर में देखने की जरूरत है? यह सवाल अपने-आप से करना पड़ेगा। एक डिवीजन सा हो जाएगा, जो बड़े स्केल की फिल्में हैं, वो आप सिनेमा में देखेंगे, और जो कंटेंट ड्रिवन फिल्में हैं, वो ओटीटी पर ही जाएंगी। टॉम क्रूज की नई फिल्म या अक्षय कुमार की नई फिल्म देखने का जो अनुभव है, लार्जर दैन लाइफ सिनेमैटोग्राफी में, वो थिएटर में ही मिलेगा।
क्या आपको लगता है कि फिल्म सेलेब्रिटीज को सामाजिक मुद्दों पर बात करनी चाहिए?
सबको अपनी विशेष टिप्पणी देने का अधिकार है। हम क्यों ऐसा सोचते हैं कि किसी एक इंडस्ट्री के लोगों को टिप्पणी करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। हां इतना जरूर है, हमारे यहां ट्रोलिंग वगैरह ज्यादा होती है। विदेशों में भी होती है। फिर हम क्यों बोलते हैं कि हमारे यहां मेरिल स्ट्रीप या शॉन पेन नहीं है। या फिर जॉर्ज क्लूनी नहीं हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े मुददों पर स्टैंड लिये हैं। उसका कारण है कि पब्लिक भी यही समझती है कि इन लोगों से लीडरशिप की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हम भी पब्लिक को रोल मॉडल की तरह दिखायी नहीं देते। हालांकि, वो भी एक व्यक्तिगत निर्णय है। यह सबसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि आपने आवाज क्यों नहीं उठायी। हमारे यहां तो हमारे प्रतिनिधि आवाज नहीं उठाते। उनसे क्यों नहीं पूछा जाता कि आवाज क्यों नहीं उठा रहे। महंगाई पर कितने प्रतिनिधियों ने आवाज उठायी है। किसने बेरोजगारी पर आवाज उठायी है। फिर सेलेब्रिटी से उम्मीद क्यों की जाती है कि वो आवाज उठाएंगे। क्या उनकी सरकार है? क्या वो सियासत में हैं? लोगों में एक डर बैठ गया है, यह डर क्यों बैठा है, यह डराने वालों से सवाल पूछना चाहिए।
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आप भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल एचएस पनाग के परिवार से आती हैं। आपके व्यक्तित्व निर्माण में आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का कितना योगदान रहा?
मेरी परवरिश एक फौजी परिवार में हुई। उसकी वजह हूं, जो हूं। मैंने अपनी जिंदगी में जो भी थोड़ा-बहुत हासिल किया है, उसका श्रेय अपने माता-पिता को देना चाहूंगी और फिर उस फौजी वातावरण को, जहां मैं अपने माता-पिता के साथ रही। मैंने अपने पिताजी से सीखा है निडर होना और निडर होने के लिए आपको साफ होना चाहिए। साफ होने का मतलब है कि आपको अपने सार्वजनिक आचरण के हर दायरे में ईमानदार रहना होगा। निजी और सार्वजनिक जीवन में आपका आचरण साफ होना चाहिए। आज जो हूं या आने वाले सालों में जो बनूंगी, उसमें मेरी फैमिली, मेरे पिताजी की रोल मॉडलशिप का बहुत बड़ा योगदान रहा है। मैं खुद एक बच्चे की परवरिश कर रही हूं और मुझे अंदाजा हो रहा है कि बच्चे वो नहीं करते जो आप उन्हें करने के लिए कहते हो, बच्चे वो करते हैं, जो वो आपको करते हुए देखते हैं। अगर आप अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बन सकते हैं तो यह उनकी जिंदगी में आपका सबसे बड़ा योगदान होगा। मैं खुद को खुशनसीब मानती हूं कि मुझे और मेरे भाई को मेरे पिताजी जैसे रोल मॉडल की छत्रछाया में बड़े होने का मौका मिला।