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फिल्में आज भी हैं समाज का आईना

जो कुछ समाज में घट रहा है, फिल्में आज भी वही दिखाती हैं। सिनेमा बदल रहा है, तो हमें भी फिल्मों के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा, कहती हैं जानी-मानी फिल्म निर्देशक और कोरियोग्राफर फराह खान

By Edited By: Published: Sun, 05 May 2013 05:03 PM (IST)Updated: Mon, 06 May 2013 11:49 AM (IST)
फिल्में आज भी हैं समाज का आईना

नई दिल्ली। सिनेमा लगातार बदल रहा है, लेकिन लोगों का माइंडसेट नहीं बदला है। आम तौर पर लोग समाज में फैली सब तरह की बुराइयों का जिम्मेदार फिल्मों को मानते हैं। यह ठीक नहीं है। अब हमें इस सोच से बाहर निकलना ही होगा। पर लोग इस माइंडसेट से बाहर निकलने की बजाय इस बात को जायज ठहराते हैं कि फिल्में देखकर ही समाज में हिंसा होती है।

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हैरानी तो तब होती है, जब क्या दिखाया जाए और दृश्यों, कंटेंट को किस तरीके से पेश किया जाए-इस बाबत कड़ी चेतावनी दे दी जाती है! मैं पिछले दिनों 'तलाश' देख रही थी। जब कोई कैरेक्टर सिगरेट पीने लगता, तो एक चेतावनी स्क्रीन पर फ्लैश होती-सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। यह बात मुझे बहुत खल रही थी। क्या इस तरह सिगरेट पीने से मना करने से लोग सचमुच सिगरेट छोड़ देंगे? मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि और भी तरीके हैं, यह बताने के कि लोगों के स्वास्थ्य के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा।

अब तो आइटम नंबर को लेकर भी काफी हो-हल्ला हो रहा है। अगला नंबर किसका होगा, फिल्म के किस हिस्से को लेकर लोग हायतौबा मचाने वाले हैं- सच कहूं तो यह सोचकर मुझे डर लग रहा है।

दशक दर दशक फिल्मों में बदलाव हुए हैं। पर फिल्में आज भी समाज का आईना हैं। सत्तर के दशक में हिप्पी कल्चर को पेश किया गया था। जैसे-हरे रामा, हरे कृष्णा को ले लीजिए। इससे पहले साठ के दशक में फैमिली ड्रामा का दौर था। 'पतिव्रता' जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। अस्सी के दशक में अचानक कुछ ऐसी फिल्में दिखाई जाने लगीं, जिनका स्तर पहले की अपेक्षा ठीक नहीं था। तभी शायद इस दौर में समांनातर फिल्मों को पनपने का मौका मिला।

1988 में 'कयामत से कयामत तक' रिलीज हुई। इस फिल्म ने फिल्म के पात्रों के प्रति लोगों में विश्वास पैदा किया। पात्रों से वे खुद को जोड़ पा रहे थे। वहीं नब्बे का काफी स्टाइलिश दशक था। इस दौर में फिल्मों में स्टाइलिंग पर अधिक ध्यान दिया गया था। जैसे 'कुछ कुछ होता है' में दिखाया गया। यही वह समय भी था, जब कोरियोग्राफी और गानों के फिल्माने पर काफी ध्यान दिया जाने लगा।

पिछले दशक से फिल्म उद्योग काफी बदला है। गैर-फिल्मी क्षेत्रों से आकर लोग इस क्षेत्र में दस्तक दे रहे हैं। इससे काफी फर्क पड़ा है। आज एक फिल्म निर्देशक अपनी फिल्म को प्रोजेक्ट की तरह लेता है। उसे यकीन है कि उनकी एक सीमित वर्ग के लिए

बनाई जाने वाली फिल्में भी कामयाब होंगी। अब ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जो केवल मल्टीप्लेक्स के लिए बनी हैं। यहां हर कोई आकर फिल्मों का लुत्फ उठा सकता है।

शाहीन पारकर

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