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घटे रेट में देखी गई फिल्में

काश की पहली बोलती फिल्म आलमआरा दर्शकों के लिए खुशियों की सौगात लेकर आई थी, लेकिन यह खबर कुछ लोगों के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। दरअसल, यह मूक फिल्मों के निर्माता थे। उन्हें लग रहा था कि बोलती फिल्में आने के बाद उनकी बनाई मूक फिल्मों को भला कोई क्यों देखेगा?

By Edited By: Published: Sun, 09 Sep 2012 11:27 AM (IST)Updated: Sun, 09 Sep 2012 11:27 AM (IST)
घटे रेट में देखी गई फिल्में

काश की पहली बोलती फिल्म आलमआरा दर्शकों के लिए खुशियों की सौगात लेकर आई थी, लेकिन यह खबर कुछ लोगों के लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। दरअसल, यह मूक फिल्मों के निर्माता थे। उन्हें लग रहा था कि बोलती फिल्में आने के बाद उनकी बनाई मूक फिल्मों को भला कोई क्यों देखेगा? इस तरह भारतीय सिनेमा के शुरुआती दो दशक के बाद यानी 1930 के बाद फिल्म इंडस्ट्री में अजीब सी बेचैनी भी देखी गई।

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1931 में 14 मार्च को आलमआरा जब मैजेस्टिक सिनेमा हॉल में लगी, तो फिल्म के कलाकार और इससे जुड़े लोग बेहद खुश थे। दर्शकों में भी अपार उत्साह था, लेकिन दूसरी ओर फिल्म इंडस्ट्री का एक बड़ा वर्ग यानी जिन लोगों की मूक फिल्में बन रही थीं, वे सब परेशान थे। जिन निर्माताओं ने अपनी फिल्म आनन-फानन में पूरी कर साल के पहले दो माहों में रिलीज कर ली थी, वे तो बेहद खुश थे, क्योंकि उन्हें जो कामयाबी और पैसा मिलना था, मिल चुका था, लेकिन परेशानी का वक्त उनके लिए था, जिनकी फिल्म किसी न किसी वजह से अटकी हुई थी। यह वही वक्त था, जब एक ओर बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ और दूसरी ओर मूक फिल्में थीं। सिनेमा के दर्शक बोलने वाली फिल्म को देखने में अधिक रुचि लेने लगे थे। यह उनके लिए नई चीज थी। यह सारी बातें मूक फिल्में बनाने वालों के लिए आत्महत्या जैसी थीं। वे परेशान थे कि अब उनकी फिल्मों को दर्शक कहां से मिलेंगे? फिर भी किसी तरह निर्माताओं ने अपनी फिल्मों को पूरा किया और रिलीज भी।

उल्लेखनीय है कि आलमआरा के बाद सभी निर्माता अपनी फिल्मों को आवाज देने में लगे थे। ऐसे वक्त में कुछ ने तो अपनी मूक फिल्म को फिर से बनाया और उसमें नई तकनीक के साथ आवाज डाली, लेकिन आधी फिल्म शूट कर चुके निर्माताओं के लिए इधर कुंआ उधर खाई वाली स्थिति थी। अब वे करें भी तो क्या करें। वे फिल्म को फिर से बना भी नहीं सकते थे। उन लोगों ने किसी तरह फिल्में पूरी की, लेकिन जब रिलीज के लिए सिनेमा हॉल वालों के पास गए, तो वहां परेशानी अलग थी। सिनेमा हॉल वालों का कहना था, हम मूक फिल्में क्यों चलाएंगे जब दर्शक ऐसी फिल्में नहीं देखने आ रहे हैं? ऐसे में खुद को ठगा सा महसूस कर रहे निर्माताओं ने सिनेमा हॉल वालों से कहा कि आप लोग ही कुछ सोचिए। फिर हॉल मालिकों ने निर्माताओं से कहा कि हम आपकी फिल्में दिखाएंगे, लेकिन घटे टिकट रेट पर..। निर्माताओं ने सोचा, न चलने से अच्छा है कि कुछ पैसा तो आ जाए। निर्माताओं ने फिल्मों को चलाने के लिए हामी भर दी।

1931 में मार्च के बाद लगभग 225 मूक फिल्में रिलीज हुई। 1932 में लगभग 100, 1933 में 40 और 1934 में इनकी संख्या सिर्फ 7 रह गई। 1931 से लेकर 1934 के बीच बनीं मूक फिल्मों में भी अधिकतर वही कलाकार रहे, जिन्होंने 1913 से लेकर 1930 तक की फिल्मों में काम किया था। उस वक्त जो फिल्में चर्चा में आई वे थीं पी.सी. बरुआ और सबिता देवी की अपराधी, धीरेन गांगुली और राधा रानी की मौत के बाद, पे्रम कुमारी और अमर मलिक की चासर मेए, ललिता देवी और जे गांगुली की गीता, डी बिलीमोरिया और माधुरी की हूर-ए-रोशन, पेशेंस कूपर और सोराबजी केरावाला की जहरी सांप, ललिता पवार और गनपत बाकरे की कैलाश, माधुरी और जयराज की माई हीरो, ईनामदार और पद्मा की जगत मोहिनी, ललिता पवार और चंद्रराव कदम की प्यारी कटार और नेक दोस्त। इन फिल्मों को लोगों ने पसंद किया। इनमें कैलाश में ललिता पवार की तिहरी भूमिका थी और वे इस फिल्म के बाद चर्चा में आ गई। इस तरह भारतीय सिनेमा का शुरुआती काल यानी मूक फिल्मों का दौर 1934 के बाद पूरी तरह खत्म हो गया और आ गया बोलती फिल्मों का जमाना, जिसकी शुरुआत हुई थी आलमआरा से!

रतन

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