..और बन गया इतिहास
एक ओर जहां दादा साहब तोरणे पहली फिल्म पुंडलिक बनाने के बाद भी भारतीय सिनेमा के पुरोधा बनने से चूक गए, वहीं दादा साहब फालके इतिहासपुरुष बनने के सफर पर कदम बढ़ा चुके थे। दादा साहब फालके ने जब अपनी पहली फिल्म बनाने की तैयारी की, तो फिल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। 1913 में बनी फिल्म राजा हरिश्चंद्र में तारामती की विशेष भूमिका थी।
एक ओर जहां दादा साहब तोरणे पहली फिल्म पुंडलिक बनाने के बाद भी भारतीय सिनेमा के पुरोधा बनने से चूक गए, वहीं दादा साहब फालके इतिहासपुरुष बनने के सफर पर कदम बढ़ा चुके थे। दादा साहब फालके ने जब अपनी पहली फिल्म बनाने की तैयारी की, तो फिल्म की नायिका उनके लिए गंभीर समस्या बन गई। 1913 में बनी फिल्म राजा हरिश्चंद्र में तारामती की विशेष भूमिका थी। फालके की इच्छा थी कि नायिका की भूमिका कोई युवती ही करे। इसके लिए पहले उन्होंने नाटक मंडली से जुड़ी अभिनेत्रियों से बात की, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि कोई भी कैमरे के सामने आने को तैयार नहीं हुई। यहां तक कि दादा साहब ने हीरोइन की खोज के लिए इश्तेहार भी बंटवाए, लेकिन उसका भी कोई रिस्पॉन्स नहीं मिला।
जब तारामती की भूमिका के लिए कोई कलाकार नहीं मिला, तो विवश हो फालके कोठेवालियों के पास पहुंचे। उनसे हीरोइन बनने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने भी टका-सा जवाब दे दिया। कोठे पर मुजरा करने वाली तवायफों का कहना था, हम कैमरे के सामने हाथ-पैर मटकाने की बेशर्मी नहीं कर सकते..!
हारकर दादा साहब फालके ने फैसला किया कि किसी पुरुष से ही तारामती की भूमिका कराई जाए। एक दिन उन्हें एक ईरानी रेस्त्रां में एक रसोइया नजर आया। उन्होंने रसोइया से बात की। वह काम करने के लिए तैयार हो गया, लेकिन मुसीबत अभी खत्म नहीं हुई थी। दरअसल, रिहर्सल के बाद जब शूटिंग का समय आया, तो प्रोड्यूसर-डायरेक्टर फालके ने रसोइये से कहा, कल से शूटिंग करेंगे, तुम अपनी मूंछें साफ कराके आना..।
दादा की यह बात सुनकर रसोइया, जो हीरोइन का रोल करने वाला था, चौंक गया। उसने जवाब दिया,मैं मूंछें कैसे साफ करा सकता हूं! मूंछें तो मर्द-मराठा की शान हैं! रसोइये की बातें सुनकर दादा ने समझाया, भला मूंछ वाली तारामती कैसे हो सकती है? वह तो नारी है। फिर मूंछ का क्या है, शूटिंग खत्म होने के बाद फिर रख लेना! काफी समझाने के बाद रसोइया मूंछ साफ कराने के लिए तैयार हुआ। भारत की पहली फीचर फिल्म की पहली हीरोइन बन रहे उस रसोइये का नाम था पी जी सालुंके। अब दादा साहब फालके को एक नई तरकीब दिख गई। उन्होंने अन्य महिला चरित्रों के लिए पुरुष कलाकारों को ही चुन लिया। हरिश्चंद्र का रोल दत्तात्रेय दामोदर दाबके को दिया गया। कई ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने महिला का रोल भी किया और पुरुष का भी। फिल्म के मुख्य कलाकार थे दाबके, सालुंके, भालचंद्र फालके, साने, तेलांग, शिंदे और औंधकर।
कलाकारों के चयन के बाद फिल्म की शूटिंग मुंबई के दादर में शुरू हुई। कुछ समय बाद परेशानी आई, तो वे नासिक चले गए और वहीं राजा हरिश्चंद्र फिल्म पूरी की। फिल्म तैयार हो गई, तो बात आई उसे रिलीज करने की। दादा साहब फालके को अपनी फिल्म में लगता था कि यह अभी पूरी नहीं हुई है, इसलिए उन्होंने इसका पहला शो कुछ ही लोगों के लिए रखा और इसके लिए दिन 21 अपै्रल, 1913 तय किया। बंबई के ओलंपिया सिनेमा में फिल्म को प्रेस और कुछ समझदार लोगों से मिली प्रशंसा के बाद दादा साहब फालके ने आम लोगों के समक्ष प्रदर्शन के लिए तारीख 3 मई 1913 तय की। फिल्म इसी तारीख को कोरोनेशन थियेटर में रिलीज हुई और इतिहास रच गई। इतिहास रचा इस तरह से कि तब तक कोई भी विदेशी फिल्म तीन से छह दिनों तक ही देखी जाती थी, लेकिन यह तेईस दिनों तक लगातार चली।
जब इस फिल्म को लोगों ने देखा तो उन्हें लगा कि यह तो एक साल पहले आई फिल्म पुंडलिक से लाख गुना अच्छी है। पुंडलिक के तमाम कामों में विदेशी लोगों का भी योगदान था, इसलिए इतिहासकारों ने उसे पहली भारतीय कथा-फिल्म के रूप में दर्ज नहीं किया। यह सम्मान मिला राजा हरिश्चंद्र को। चालीस मिनट की इस फिल्म का क्रम सही में खूबसूरत था और इस फिल्म को देखते समय कहीं कोई बाधा नहीं हुई। फिल्म शुरू हुई और सही तरह से खत्म हो गई।
रतन
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