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फिल्‍म रिव्‍यू 'शोरगुल' : गुल होती इंसानियत, बचाने का शोर (2.5 स्‍टार)

दंगे इंसानियत के नाम पर बदनुमा दाग हैं, मगर आजादी के छह दशकों बाद भी हिंदुस्तान उसे ढोने को मजबूर है। ‘शोरगुल’ की सोच उसी बुनियाद पर टिकी हुई है।

By Pratibha Kumari Edited By: Published: Fri, 01 Jul 2016 01:49 PM (IST)Updated: Fri, 01 Jul 2016 04:02 PM (IST)
फिल्‍म रिव्‍यू 'शोरगुल' :  गुल होती इंसानियत, बचाने का शोर (2.5 स्‍टार)

अमित कर्ण

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प्रमुख कलाकार- जिमी शेरगिल, आशुतोष राणा, संजय सूरी
निर्देशक- पी सिंह-जीतेंद्र तिवारी
संगीत निर्देशक- जतिन-ललित
स्टार- ढाई

सत्ता में बने रहने के लिए नेता व धर्मगुरू हर सीमा को लांघ सकते हैं। वे अपने फायदे के लिए दूसरों की जान, जमीन और जमीर तक का सौदा करने में नहीं चूकते। कुछ राज्यों में अफीम व ड्रग्स की राजनीति वहां की सियासत की किस्मत तय कर रही है। तो कई प्रदेशों में आज भी जाति व धर्म के नाम पर वोटिंग होती है। जाहिर तौर पर वहां इरादतन दंगे करवा वोटों का ध्रुवीकरण कर राजनीतिक फायदा उठाया जाता है। दंगे इंसानियत के नाम पर बदनुमा दाग हैं, मगर आजादी के छह दशकों बाद भी हिंदुस्तान उसे ढोने को मजबूर है। ‘शोरगुल’ की सोच उसी बुनियाद पर टिकी हुई है। सरल शब्दों में कहा जाए तो उसने सांकेतिक रूप से तीन साल पहले मुजफ्फरनगर दंगों के कार्य-कारण पर अपनी विवेचना दी है। उसने दोनों समुदाय के नेताओं व धर्मगुरूओं को कटघरे में खड़ा किया है। उसने साथ ही लव जेहाद के नाम पर हौव्वा खड़ा करने वालों के चेहरे से नकाब उतारा है।

यह भी जाहिर हुआ है कि दंगा पीडि़त इलाकों में लोगों की जिंदगी बारूद के ढेर पर चल व पल रही होती है। एक चिंगारी लगी नहीं कि सब कुछ तबाह। बहरहाल, फिल्म में मुजफ्फरनगर का नाम नहीं लिया गया है। कथाभूमि मलीहाबाद शहर है। हिंदुवादी नेता रंजीत ओम वहां का विधायक है, जबकि उसका चाचा, चौधरी है। चौधरी गांधीवादी सोच का रहनुमा है। रघु चौधरी का बेटा है, जिसे पड़ोस में रहने वाली मुस्लिम युवती जैनब से एकतरफा मोहब्बत है। वैसे दोनों गहरे दोस्त हैं। रंजीत अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए हर किस्म की व्यूह रचना करता है। उसमें उसका पूरा साथ उसका मामा देता है। उसे सांसद बनना है, पर उसकी राह में चौधरी सबसे बड़ा अड़ंगा। जैनब का निकाह उदारवादी सोच के सलीम से तय है। सलीम का छोटा भाई मुसतकीम है। वह गुजरात से मलीहाबाद आता है। उसकी मनोदशा जाहिर करती है कि वह दंगों की मार झेल चुका है। वह हर फैसले मजहब और जज्बात को ध्यांन में रखकर लेता है। उसे रघु व जैनब की दोस्ती ‘लव जेहाद’ सी लगती है। हालात ऐसे बनते हैं कि मुसतकीम रघु को मार रंजीत ओम व सलीम से खार खाए मुस्लिम धर्मगुरूओं को मौका दे बैठता है। ऐसा मौका, जो पूरे शहर को दंगों की आग में झोंक देता है। बेटा गुजर जाने के बावजूद चौधरी जैनब को बचाने का बीड़ा उठाता है। फिर क्या होता है, फिल्म उस बारे में है।

निर्देशक पी सिंह और जीतेंद्र तिवारी ने समसामयिक व ज्वलंत मुद्दा उठाया है, मगर उसकी विवेचना और प्रस्तुतीकरण में चूक गए हैं। सांप्रदायिक अवदाह की जिन वजहों को उन्होंने पेश किया, उससे लोग पूरी तरह परिचित हैं। वह पारंपरिक सोच की ही ताकीद रही कि औरत ही हर फसाद की जड़ होती है। जंग, मोहब्बत और राजनीति में सब जायज है। फिल्म में दंगे, लव जेहाद, उदारवाद व उग्रवाद जैसे मुद्दों की कमी नहीं थी, पर उन्हें पिरोने में कमी साफ दिखी। फिल्म दर्शकों को कतई बांध कर नहीं रखती। उसका ढीलापन फिल्म को ऊबाउ बना गया। सारे किरदार असल लोगों की प्रतिकृति लगे। मिसाल के तौर पर रंजीत ओम साफ तौर पर बीजेपी नेता संगीत सोम लगा। आलम खान तो आजम खान के भेष में अकबरुद्दीन ओवैसी लगे। खासकर तब, जब आलम खान भीड़ को भड़काने वाला भाषण देता है। यह कहता है कि ’25 मिनट के लिए हिंदुस्तान उनके हाथों में दे दिया जाए तो 25 करोड़ मुसलमान, 120 करोड़ हिंदुओं पर भारी पड़ेंगे।‘

इतना नहीं नहीं, सीएम मिथिलेश यादव तक किरदार के नाम हैं, जिसे लेमैन भी आसानी से समझ सकते हैं कि बात अखिलेश यादव की हो रही है। हां, फिल्म एक टेक लेती है। वह यह कि बेगुनाहों को मौत के घाट उतारने वाले गुनहगारों के संग भी समान सलूक होना चाहिए। फिल्म में गिनती के मौकों पर ही रवानगी महसूस होती है। खासकर चौधरी के अवतार में आशुतोष राणा, रंजीत ओम बने जिमी शेरगिल व मुसतकीम बने एजाज खान के चलते। मामा की भूमिका में शशि वर्मा शकुनि मामा के कलियुगी अवतार में जंचे हैं। हालांकि इस मामा को कहानी में दुर्योधन जैसा वफादार भांजा नहीं मिला है। एडिटर की दोयम दर्जे की कतरब्योंत के चलते फिल्म अपने मुद्दों सी उम्दा नहीं बन सकी। रघु बने नवोदित अनिरुद्ध दवे और जैनब बनी सुहा गेजेन को अदाकारी पर काफी काम करने की दरकार है। सीएम मिथिलेश यादव के रोल में संजय सूरी हैं। उनकी नाक यूपी के सीएम अखिलेश यादव से काफी मिलती-जुलती है।

अवधि- 132 मिनट, 41 सेकेंड


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