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तीन दौर की प्रेम कहानी

तीन दौर में फैली कुणाल कोहली की तेरी मेरी कहानी मुख्य रूप से आठ किरदारों की कहानी है। दो-दो प्रेम त्रिकोण और एक सामान्य प्रेम कहानी की इस फिल्म का सार और संदेश यही है कि समय चाहे जितना बदल जाए, प्यार अपने रूप-स्वरूप में एक सा ही रहता है।

By Edited By: Published: Fri, 22 Jun 2012 02:37 PM (IST)Updated: Fri, 22 Jun 2012 02:37 PM (IST)
तीन दौर की प्रेम कहानी

तीन दौर में फैली कुणाल कोहली की तेरी मेरी कहानी मुख्य रूप से आठ किरदारों की कहानी है। दो-दो प्रेम त्रिकोण और एक सामान्य प्रेम कहानी की इस फिल्म का सार और संदेश यही है कि समय चाहे जितना बदल जाए, प्यार अपने रूप-स्वरूप में एक सा ही रहता है। समय के हिसाब से हर काल में उसकी अभिव्यक्ति और लक्षणों में बदलाव आ जाता है, लेकिन प्रेमी युगलों की सोच,धड़कनें, मुश्किलें, भावनाएं, शंकाएं और उम्मीदें नहीं बदल पातीं।

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कुणाल कोहली ने तीनों दौर की कहानियों को पेश करने का नया शिल्प चुना है। दोराहे तक लाकर वे तीनों प्रेम कहानियों को छोड़ते हैं और फिर से कहानी को आगे बढ़ाते हुए एक राह चुनते हैं, जो प्रेमी-प्रेमिका का मिलन करवाती है। तीनों दौर में प्रेमी-प्रेमियों के बीच कोई खलनायक नहीं है। उनकी शंकाएं, उलझनें और अपेक्षाएं ही कहानी को आगे बढ़ाती हैं। कहानी के विस्तार में जाने से दर्शकों की जिज्ञासा खत्म होगी।

कुणाल कोहली ने तीनों दौर के प्रेमी-प्रेमिका के रूप में प्रियंका चोपड़ा और शाहिद कपूर को चुना है। हर काल के हिसाब से उनकी भाषा, वेशभूषा और परिवेश में फर्क दिखता है। इस फर्क को बनाए रखने में कुणाल कोहली की टीम ने कामयाब मेहनत की है। खास कर भाषा और परिवेश की भिन्नता उल्लेखनीय है। संवाद लेखक कुणाल कोहली और प्रोडक्शन डिजायनर मुनीश सप्पल का योगदान फिल्म को समृद्ध करता है।

मुनीश सप्पल ने 1910, 1960 और 2012 के काल को वास्तु और वस्तुओं से सजाया है। वास्तु निर्माण में उन्होंने बारीकी का ध्यान रखा है। पृष्ठभूमि में दिख रहा परिवेश फिल्म को जीवंत बनाता है। उनकी योग्यता फिल्म के पर्दे पर एपिक रचने में सक्षम है। उसकी छटा इस साधारण फिल्म में भी दिखती है। योग्य तकनीशियन अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कहीं भी कर लेते हैं। संवादों की भाषा में कुणाल कोहली ने काल के भेद अनुसार उर्दू, हिंदी और हिंग्लिश में रखा है। दोनों को बधाई। वेशभूषा में तीनों काल का फर्क बहुत मोटा है।

प्रियंका चोपड़ा और शाहिद कपूर ने 1910 में आराधना-जावेद, 1960 में रुखसार-गोविंद और 2010 में राधा-कृष्ण के किरदार निभाए हैं। दोनों ने काल विशेष के अनुसार लहजा बदला है। पर्दे पर उनकी मेहनत साफ दिखती है। 1910 और 1960 के दौर थोड़े बेहतर बन पड़े हैं। 2012 शायद आज की कहानी होने के कारण ध्यान नहीं बटोर पाती। वह थोड़ी बिखरी भी रहती है। ट्विटर और फेसबुक के दौर में संबंधों की चंचलता तेज हो गई है। प्रियंका चोपड़ा और शाहिद कपूर का अभिनय सामान्य है। शाहिद कपूर जावेद से किरदार में फबते हैं। उसकी वजह किरदार की रंगीनियत है।

प्रसून जोशी के गीत और साजिद-वाजिद का संगीत फिल्म केतीन दौर की कहानी के साथ न्याय नहीं कर सका। एक मुख्तसर ़ ़ ़ गीत के अलावा कोई गीत याद नहीं रहता। पुन:श्च - कुणाल कोहली को विशेष धन्यवाद कि उन्होंने फिल्म के एंड टायटल के समय किसी आयटम गीत के बजाए अपनी फिल्म के तीनों कालों के परिवेश की तस्वीरें रखी हैं। थिएटर से निकलते-निकलते आप उन पर जरूर गौर करें।

*** तीन स्टार

-अजय ब्रह्मात्मज

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