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फिल्म रिव्यू: गुड्डू रंगीला (3 स्टार)

'फंस गए रे ओबामा' और 'जॉली एलएलबी' से अपनी धाक जमाने और आत्मविश्वास हासिल करने के बाद सुभाष कपूर ने छलांग मारी है। 'गुड्डू रंगीला' में वे हिंदी सिनेमा की परिपाटी के मैदान में अपनी चुटीली और जागरुक विशेषताओं के साथ आए हैं। उनकी मौलिकता इस बार अधिकाधिक दर्शकों तक

By Monika SharmaEdited By: Published: Fri, 03 Jul 2015 09:59 AM (IST)Updated: Fri, 03 Jul 2015 10:28 AM (IST)
फिल्म रिव्यू: गुड्डू रंगीला (3 स्टार)

अजय ब्रह्मात्मज
प्रमुख कलाकार: अरशद वारसी, अमित साध, रोनित रॉय, अदिति रॉय
निर्देशक: सुभाष कपूर
संगीतकार निर्देशक: अमित त्रिवेदी
स्टार: 3

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'फंस गए रे ओबामा' और 'जॉली एलएलबी' से अपनी धाक जमाने और आत्मविश्वास हासिल करने के बाद सुभाष कपूर ने छलांग मारी है। 'गुड्डू रंगीला' में वे हिंदी सिनेमा की परिपाटी के मैदान में अपनी चुटीली और जागरुक विशेषताओं के साथ आए हैं। उनकी मौलिकता इस बार अधिकाधिक दर्शकों तक पहुंचने के मोह में लिपटी है। इस कोशिश के आंतरिक जोखिम हैं, जिसे सुभाष कपूर स्वीकार करते हैं। 'गुड्डू रंगीला' दो भाइयों की मजेदार कहानी है, जो अनायास क्रूर, हिंसक और पिछड़ी सोच के बिल्लू के लिए चुनौती बन जाते हैं।

गुड्डू और रंगीला भाई हैं। वे आर्केस्ट्रा पार्टी चलाते हैं। गांव-समाज में खुशियों के मौके पर वे अपने फूहड़ लतीफों और 'कल रात माता का ईमेल' जैसे माता गीतों से मनोरंजन करते हैं। पता चलता है कि यह पेशा उनका आवरण है। उनका असली धंधा इसी बहाने घर के अंदर तांक-झांक कर संपत्ति का ब्यौरा लेना और डकैतों को खबर करना है। वे अपराधियों के खबरी हैं। एक मामले में फंस जाने पर उन्हें जल्दी से जल्दी दस लाख कमाने हैं। उनकी मुलाकात 'अंडरवर्ल्ड के डिक्शनरी' गोरा बंगाली से होती है। गोरा बंगाली एक लड़की को ट्रांसपोर्ट(किडनैप) करने की एवज में उन्हें मोटी रकम देने की पेशकश करता है। यहां से फिल्म में आए टर्न और ट्विस्ट के साथ 'गुड्डू रंगीला' बदले की कहानी बन जाती है, जिसकी पृष्ठभूमि में खाप पंचायत और समाज में औरतों की स्थिति है।
सुभाष कपूर पिछली दो फिल्मों से अर्जित लोकप्रियता और स्वीकृति के साथ हिंदी सिनेमा के प्रचलित शिल्प और कौशल को आजमाते हैं। पॉपुलर होने के इस खेल में उनके खेलने का तरीका अपना है। समाज के साधारण किरदारों की जिंदगियों की विसंगतियों और विद्रूपताओं में मौजूद हास्य को उन्होंने नई गति और दिशा दी है।

'गुड्डू रंगीला' में उनके प्रमुख किरदार फिर से स्थितियों के शिकार हैं। एक फर्क आया है कि इस बार वे पलटवार करते हैं। उनके पलटवार से फिल्म फार्मूलों में घुसती और फंसती नजर आती है। ऐसा लग सकता है कि सुभाष कपूर फिसल गए हैं। दरअसल, सुभाष कपूर ने अपनी हद बढ़ाई है। उन्होंने फार्मूले अपनाए हैं, लेकिन वास्तविकता की जमीन नहीं छोड़ी है। वे अपनी बात कहने से नहीं चूके हैं। बबली का सटीक संभाषण और बेबी व बबली के हाथों में आई पिस्तौल फार्मूले को नया आयाम दे देती है।

सुभाष कपूर ने पहली बार अपनी फिल्म में महिला पात्रों को तरजीह दी है। उनके लिए जगह बनाई है। उन्होंने रोमांटिक होने की भी कोशिश की है। 'गुड्डू रंगीला' सुभाष कपूर का नया प्रमाण है, जिसमें वे अपनी शैली के लिए नया शिल्प चुनते हैं। यह शिल्प उनके लिए नया है, लेकिन हिंदी फिल्मों में हम इसे दशकों से देखते आए हैं। यहां वे अपने प्रशंसकों और दर्शकों को झटका देते हैं। इस कोशिश में वे पहले से अधिक डायरेक्ट, लाउडर, वोकल और वॉयलेंट हुए हैं। हिंदी सिनेमा के पारंपरिक दर्शकों तक पहुंचने का यह प्रयास है।

सुभाष कपूर के पास अमित साध, दिब्येन्दु भट्टाचार्य, राजीव गुप्ता, ब्रजेन्द्र काला जैसे सहयोगी कलाकार हैं, जो अपनी भूमिकाओं से सुभाष कपूर की सोच और विनोदप्रियता को पर्दे ले आते हैं। उन्हें अदिति राव हैदरी और श्रीस्वरा दुबे का भी साथ मिला है। उनकी भूमिकाएं छोटी हैं। 'गुड्डू रंगीला' के आकर्षण रोनित रॉय हैं। क्रूर और हिंसक बिल्लू की भूमिका को उन्होंने आक्रामक तरीके से निभाया है। खाप पंचायत की परंपरा और रूढ़ियों में यकीन करता व्यक्ति... उसे न तो अपनी ज्यादतियों का एहसास है और न ही अपनी अमानवीयता का। अरशद वारसी और अमित साध ने 'जूतों की जोड़ी' की तरह गुड्डू रंगीला के किरदारों को निभाया है। अरशद वारसी भरोसेमंद कलाकार हैं। वे सिद्धहस्त तैराक की तरह बीच पानी में हाथ-पांव मारना छोड़ देते हैं। वे अतिशयोक्ति प्रभाव की चिंता नहीं करते। अमित साध ने गुड्डू की पूरक भूमिका में संतुष्ट किया है।

इन दिनों हरियाणा हिंदी फिल्मों का 'हॉट स्पॉट' बना हुआ है। इसकी अलग-अलग छटाएं फिल्मों में दिख रही है। 'गुड्डू रंगीला' खाप पंचायत और सामाजिक कुरीतियों पर निशाना साधती है। सामान्य दर्शकों तक पहुंचने का उसने मनोरंजक रास्ता चुना है।

अवधिः 120 मिनट

abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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