फिल्म रिव्यू: यकीन पर टिकी 'ट्यूबलाइट' (तीन स्टार)
कबीर खान ने पिछली फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ की तरह ही इस फिल्म में भी सलमान खान को सरल, भोला और निर्दोष चरित्र दिया है।
-अजय ब्रह्मात्मज
मुख्य कलाकार: सलमान ख़ान, सोहेल ख़ान, ज़ू ज़ू, ओम पुरी, मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब, माटिन रे टंगू आदि।
निर्देशक: कबीर ख़ान
निर्माता: सलमान ख़ान, सलमा ख़ान।
स्टार: *** (तीन स्टार)
कबीर खान और सलमान खान की तीसरी फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ भारज-चीन की पृष्ठभूमि में गांधी के विचारों और यकीन की कहानी है। फिल्म में यकीन और भरोसा पर बहुत ज्यादा जोर है। फिल्म का नायक लक्ष्मण सिंह बिष्ट मानता है कि यकीन हो तो चट्टान भी हिलाया जा सकता है। और यह यकीन दिल में होता है। लक्ष्मण सिंह बिष्ट के शहर आए गांधी जी ने उसे समझाया था। बाद में लक्ष्मण के पितातुल्य बन्ने चाचा गांधी के विचारों पर चलने की सीख और पाठ देते हैं। फिल्म में गांधी दर्शन के साथ ही भारतीयता के सवाल को भी लेखक-निर्देशक ने छुआ है।
संदर्भ 1962 का है,लेकिन उसकी प्रासंगिकता आज की है। यह प्रसंग फिल्म का एक मूल भाव है। भारत-चीन युद्ध छिड़ने के बाद अनेक चीनियों को शक की नजरों से देखा गया। फिल्म में ली लिन के पिता को कैद कर कोलकाता से राजस्थान भेज दिया जाता है। ली लिन कोलकाता के पड़ोसियों के लांछन और टिप्पणियों से बचने के लिए अपने बेटे के साथ कुमाऊं के जगतपुर आ जाती है। पश्चिम बंगाल से उत्तराखंड का ली लिन का यह प्रवास सिनेमाई छूट है। बहरहाल,जगतपुर में लक्ष्मण ही उन्हें पहले देखता है और उन्हें चीनी समझने की भूल करता है। बाद में पता चलता है कि ली लिन के परदादा चीन से आकर भारत बस गए थे। और अब वे भारतीय हैं। लेकिन ठीक आज की तरह उस दौर में भी तिवारी जैसे लोग नासमझी और अंधराष्ट्रभक्ति में उनसे घृणा करते हैं। उन पर आक्रमण करते हैं।
फिल्म में प्रकारांतर से कबीर खान संदेश देते हैं कि भारत में कहीं से भी आकर बसे लोग भारतीय हैं। ली लिन कहती है...’ मेरे परदादा चीन से हिंदुस्तान आए थे। मेरे पापा, मेरी मां, मेरे पति हम सब यहीं पैदा हुए हैं, लेकिन जंग सब बदल देता है। लोगों की नजर में हम अब दुश्मन बन गए हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह हमारा घर है, कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम इस मुल्क से उतनी ही मोहब्बत करते हैं जितनी कि तुम या तुम्हारा भाई... ‘ गौर करने की जरूरत है कि हम आज जिन्हें दुश्मन समझ रहे हैं और उन्हें देश से निकालने की बात करते हैं। वे दूसरे भारतीयों से कम नहीं हैं।
‘ट्यूबलाइट’ के इस महत्वपूर्ण संदेश में फिल्म थोड़ी फिसल जाती है। कथा विस्तार,दृश्य विधान, प्रसंग और किरदारों के चित्रण में फिल्म कमजोर पड़ती है। मंदबुद्धि लक्ष्मण और भरत अनाथ है। बन्ने चाचा ही उनकी देखभाल करते हैं। भारत-चीन युद्ध के दौरान भरत फौज में भर्ती हो जाता है और मोर्चे पर चला जाता है। लक्ष्मण को यकीन है कि जंग जल्दी ही खत्म होगी और उसका भाई जगतपुर लौटेगा। इस यकीन के दम पर ही उसकी दुनिया टिकी है। बीच में उसके भाई की मौत की गलत खबर आ जाती है। सभी के साथ श्रद्धांजलि देने के बाद लक्ष्मण का यकीन दरक जाता है, लेकिन फिल्म तो संयोगों का जोड़ होती है।
Video: मूवी रिव्यू: क्या उमीदों पर खरी नहीं उतर पायी ट्यूबलाइट?
लेखक और निर्देशक मिलवाने की युक्ति निकाल ही लेते हैं। भोले किरदार लक्ष्मण के यकीन के विश्वास को मजबूत करते हैं। कबीर खान ने पिछली फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’ की तरह ही इस फिल्म में भी सलमान खान को सरल, भोला और निर्दोष चरित्र दिया है। इस फिल्म में भी एक बाल कलाकार है, जो लक्ष्मण के चरित्र का प्रेरक बनता है। इस बार पाकिस्तान की जगह चीन है, लेकिन पिछली फिल्म की तरह लक्ष्मण को उस देश में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। सब कुछ सीमा के इसी पार घटता है। फिल्म में युद्ध के दृश्य बड़े सतही तरीके से फिल्मांकित किए गए हैं। जगतपुर गांव और शहर से परे पांचवें से सातवें दशक के हिंदुस्तान की ऐसी बस्ती है, जहां शहरी सुविधाएं और ग्रामीण रिश्ते हैं। पीरियड गढ़ने में कई फांक नजर आती है,जिनसे कमियां झलकती हैं।
लेखक-निर्देशक का जोर दूसरी बारीकियां से ज्यादा मुख्य किरदारों के बात-व्यवहार पर टिका है। उसमें वे सफल रहे हैं। यह फिल्म पूर्वार्द्ध में थोड़ी शिथिल पड़ी है। निर्देशक लक्ष्मण को दर्शकों से परिचित करवाने में अधिक समय लेते हैं। 51 साल के सलमान खान और उनसे कुछ छोटे सोहेल खान अपनी उम्र को धत्ता देकर 25-27 साल के युवकों की भूमिका में जंचने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनकी कद-काठी धोखा देती है। ‘ट्यूबलाइट’ के सहयोगी किरदारों में आए ओम पुरी, मोहम्मद जीशान अय्यूब, यशपाल शर्मा, जू जू और माटिन रे टंगू फिल्म की जमीन ठोस की है। वे अपनी भाव-भंगिमाओं से फिल्म के कथ्य को प्रभावशाली बनाते हैं। खास कर जू जू और माटिन बेहद नैचुरल और दिलचस्प हैं।
अवधि: 136 मिनट