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फिल्म रिव्यू: 'मर्दों' की मनमर्जी की उड़े धज्जी 'अनारकली ऑफ आरा' (चार स्टार)

आज की फिल्मों में ठेठ हिंदी बेल्ट गायब रहती है। उसकी फील यहां जर्रे-जर्रे में है। वह किरदारों की भाषा, व्यहवहार और परिवेश में बिना किसी अपराधबोध के भाव से मौजूद है।

By मनोज वशिष्ठEdited By: Published: Fri, 24 Mar 2017 08:46 AM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 09:13 AM (IST)
फिल्म रिव्यू: 'मर्दों' की मनमर्जी की उड़े धज्जी 'अनारकली ऑफ आरा' (चार स्टार)
फिल्म रिव्यू: 'मर्दों' की मनमर्जी की उड़े धज्जी 'अनारकली ऑफ आरा' (चार स्टार)

-अमित कर्ण

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कलाकार: स्वरा भास्कर, पंकज त्रिपाठी, संजय मिश्रा, इश्तियाक़ ख़ान आदि।

निर्देशक: अविनाश दास

निर्माता: संदीप कपूर

स्टार: **** (चार स्टार)

21 वीं सदी में आज भी बहू, बेटियां और बहन घरेलू हिंसा, बलात संभोग व एसिड एटैक के घने काले साये में जीने को मजबूर हैं। घर की चारदीवारी हो या स्कूल-कॉलेज व दफ्तर चहुंओर ‘मर्दों’ की बेकाबू लिप्सा और मनमर्जी औरतों के जिस्म को नोच खाने को आतुर रहती है। ऐसी फितरत वाले बिहार के आरा से लेकर अमेरिका के एरिजोना तक पसरे हुए हैं। लेखक-निर्देशक अविनाश दास ने उन जैसों की सोच वालों पर करारा प्रहार किया है। उन्होंरने आम से लेकर कथित ‘नीच’ माने जाने वाले तबके तक को भी इज्जत से जीने का हक देने की पैरोकारी की है। इसे बयान करने को उन्हों ने तंज की राह पकड़ी है।

इस काम में उन्हें कलाकारों, गीतकारों, संगीतकारों व डीओपी का पूरा सहयोग मिला है। उनकी नज़र नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से फिल्म को लैस करती है। अविनाश दास ने अपने दिलचस्प किरदारों अनारकली, उसकी मां, रंगीला, हीरामन, धर्मेंद्र चौहान, बुलबुल पांडे व अनवर से कहानी में एजेंडापरक जहान गढा है। हरेक की ख्वाहिशें, महत्वाकांक्षाएं व लालसा हैं। फिल्म का आगाज दुष्यंत कुमार की लाइन से होता है- ''ये सारा जिस्म बोझ से झुककर दोहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।'' आरा जैसे इलाके में आज भी मनोरंजन का साधन बाइयों के नाच-गाने हैं। शादी-विवाह के मौके पर उन्हें नचवाना व गवाना शान का विषय है।

एक वैसे ही समारोह में अनारकली की मां नाच-गा रही है। वह रायफल की दुनाली से पैसे निकाल रही होती है कि गलती से गोली चलती है और वह वहीं ढेर। पर हमारे कथित सभ्य समाज का उसूल देखिए उस गाने वाली की जान की कीमत कुछ नहीं। कोई आवाज नहीं उठाता। कहानी 12 साल आगे बढ़ती है। अनारकली इलाके की मशहूर गायिका है। उसके कार्यक्रम के आयोजन का ठेका रंगीला के पास है। एक वैसे ही कार्यक्रम में वाइस चांसलर धर्मेंद्र चौहान नशे में जबरन अनारकली से छेड़छाड़ करता है। अनारकली आजिज आ उसे थप्पड़ जड़ती है। बात आगे चलकर उसकी अस्मिता की सुरक्षा के आंदोलन में तब्दील हो जाती है।

इस मुहिम में ‘व्यावहारिक’ रंगीला तो साथ छुड़ा चला जाता है। साथ देते हैं अनवर और हीरामन तिवारी, जो अनारकली को नि:स्वार्थ भाव से प्रेम व आदर करते हैं। हीरामन यहां ‘तीसरी कसम’ वाले हीरामन की आधुनिक विवेचना है। सभी किरदार रोचक हैं। उन्हें बड़ी खूबी से निभाया भी गया है। स्वरा भास्कर पूरी फिल्म में अनारकली के किरदार में डूबी नजर आती हैं। यह उनका करियर बेस्ट परफॉरमेंस है। साहस से भरा हुआ। क्लाइमेक्स में ‘नार देख के लार’ गाने पर उनका तांडव नृत्य प्रभावी फिल्म को अप्रतिम ऊंचाइयों पर ले जाता है। उन्होंने कहीं भी किरदार की ऊर्जा प्रभावित नहीं होने दी है। फिल्म में छह गाने हैं। उन्हें रविंदर रंधावा, डा सागर जेएनयू, रामकुमार सिंह और अविनाश दास ने लिखा है।

सब में हार्टलैंड व कहानी के मिजाज की सौंधी खुश्बू है। सब हकीकत के बड़े करीब। रोहित शर्मा के सुरबद्ध ये गाने फिल्म को आवश्यक गति प्रदान करते हैं। गीत-संगीत फिल्म का प्रभावी किरदार बनकर उभरा है। वह कहीं कहानी पर हावी नहीं होता। रंगीला अनारकली के काम का प्रबंधन करता है। शादीशुदा है, पर अनारकली के साथ भी उसके संबंध हैं। पंकज त्रिपाठी ने इसे पुरजोर विस्तार दिया है। धर्मेंद्र चौहान के अवतार में संजय मिश्रा चौंकाते हैं। ठरकी व खूंखार अवतार वाले शख्स से उनकी अदायगी की एक और खूबी जाहिर हुई है। इंस्पेक्टर बुलबुल पांडे की भूमिका में विजय कुमार व हीरामन तिवारी के रोल में इश्तियाक खान थिएटर जगत के लोगों की कुव्वत जाहिर करते हैं।

इन जैसों को अंडररेट करना ग्लैमर जगत का दुर्भाग्य है। अनवर के रोल में मयूर मोरे किरदार में स्थायी अनुशासन व समर्पण के साथ रहे हैं। इन कलाकारों को खोजने वाले जीतेंद्र नाथ जीतू का काम उल्लेाखनीय है। बिहार के आरा की असल कायनात क्या होनी चाहिए, इसे ‘एनएच 10’ फेम अरविंद कन्न बिरन ने बखूबी पेश‍ किया। उजड़ी हुई गलियां, अनारकली व बाकी किरदारों के भाव सब को उन्होंने रॉ रूप में कैप्चर किया है। जबिन मर्चेंट ने इसकी उम्दा एडीटिंग की है। तेज गति से बदलते घटनाक्रम ने फिल्म को सधा हुआ बनाया है। आज की फिल्मों में ठेठ हिंदी बेल्ट गायब रहती है। उसकी फील यहां जर्रे-जर्रे में है। वह किरदारों की भाषा, व्यहवहार और परिवेश में बिना किसी अपराधबोध के भाव से मौजूद है।

अवधि: 113 मिनट पांच सेकंड


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