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फिल्म रिव्यू : 'दो लफ्जों की कहानी', बासी और घिसी-पिटी (1 स्‍टार)

‘दो लफ्जों की कहानी’ घिसी-पिटी पटकथा पर पसरी फिल्म है। फिल्म की कहानी छह महीने पहले से शुरू होकर छह महीने बाद तक चलती है। इस एक साल की कहानी में ही इतनी घटनाएं होती हैं कि उनके बीच संबंध बिठाने-पिरोने में धागे छूटने लगते हैं।

By Tilak RajEdited By: Published: Fri, 10 Jun 2016 10:00 AM (IST)Updated: Fri, 10 Jun 2016 11:43 AM (IST)
फिल्म रिव्यू : 'दो लफ्जों की कहानी', बासी और घिसी-पिटी (1 स्‍टार)

-अजय बह्मात्मज

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मुख्य कलाकार- रणदीप हुडा और काजल अग्रवाल
निर्देशक- दीपक तिजोरी
संगीत निर्देशक- अंकित तिवारी, अमाल मलिक
स्टार- 1 स्टार

छल, प्रपंच, प्रेम, पश्चाताप, त्याग और समर्पण की ‘दो लफ्जों की कहानी’ सूरज और जेनी की प्रेमकहानी है। अनाथ सूरज मलेशिया के क्वालालमपुर शहर में बड़ा होकर स्टॉर्म बॉक्सर के तौर पर मशहूर होता है। उसके मुकाबले में कोई दूसरा अखाड़े में खड़ा नहीं हो सकता। एक मुकाबले के समय धोखे से उसे कोई हारने के लिए राजी कर लेता है। वह हार भी जाता है, लेकिन यहां से उसके करियर और जिंदगी में तब्दीली आ जाती है। सच की जानकारी मिलने पर वह आक्रामक और आहत होता है। उससे कुछ गलतियां होती हैं और वह पश्चाताप की अग्नि में सुलगता रहता है। संयोग से उसकी जिंदगी में जेनी आती है। वह एक दुर्घटना से दृष्टि बाधित है। सूरज को वह अच्छी लगती है। दोनों करीब आते हैं और अपनी गृहस्थी शुरू करते हैं। बाद में पता चलता है कि जिस दुर्घटना में जेनी की आंखों की रोशनी गई थी, वह सूरज की वजह से हुई थी।

फिल्म की कहानी छह महीने पहले से शुरू होकर छह महीने बाद तक चलती है। इस एक साल की कहानी में ही इतनी घटनाएं होती हैं कि उनके बीच संबंध बिठाने-पिरोने में धागे छूटने लगते हैं। पंद्रह-बीस साल पहले ऐसी संरचना की ढेर सारी फिल्में आया करती थीं। उनमें नाटकीयता और इमोशन का तड़का रहता था। प्रेम में त्याग करते प्रेमी होते थे, जो रहते तो इसी दुनिया में थे, लेकिन उनकी प्रतिक्रियाएं अलौकिक होती थीं।

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‘दो लफ्जों की कहानी’ ऐसी ही घिसी-पिटी पटकथा पर पसरी फिल्म है। फिल्मा क्वालालमपुर की पृष्ठभूमि में क्यों रची गई है? इसकी ठोस वजह बताने की जरूरत लेखक और निर्देशक ने नहीं समझी है। वैसे भी विदेशों की पृष्ठभूमि की हिंदी फिल्मों में ज्यादातर चरित्र भारतीय मूल के ही रहते हैं। स्थानीय किरदारों से उनका साबका शायद ही होता है। दीपक तिजोरी ने थोड़ी सी मेहनत की है। एक किरदार और कुछ संवाद स्थानीय परिवेश और भाषा में हैं।

रण्दीप हुडा इधर अपनी फिल्मों में अतिरिक्त मेहनत करते दिखाई पड़ रहे हैं। इस फिल्म में सूरज के रूप में उन्होंने खामोश और नाराज किरदार को अच्छी तरह से समझा और पर्दे पर उतारा है। वे अपने से स्क्रिप्ट और किरदार में जान डालने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें लेखक और निर्देशक का समुचित सपोर्ट नहीं मिल पाता।

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काजल अग्रवाल के अभिनय में कोई भिन्निता नहीं है। उनकी आंखें की रोशनी जाने या आने से उनके एक्सप्रेशन में फर्क नहीं पड़ता। वह सीमित अदाओं की अभिनेत्री हैं। बाकी सहयोगी कलाकारों में हिंदी फिल्मों के कुछ पुराने चेहरों के दिखने से बासीपन बढ़ता है। इन दिनों ज्यादातर फिल्मों में सहयोगी किरदारों के लिए भी नए चेहरे लिए जा रहे हैं। उनसे विश्वसनीयता बढ़ती है। 'दो लफ्जों की कहानी' प्रेम और त्याग की बासी कहानी है, जिसे घिसे-पिटे तरीके से कहा गया है। अकेले रणदीप हुडा की मेहनत फिल्म की चमक बढ़ाने में कम पड़ती है।

अवधि-128 मिनट
abrahmatmaj@mbi.jagran.com


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