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Darbaan Movie Review: भावनाओं के उतार-चढ़ाव और बेहतरीन अभिनय में लिपटी छू लेने वाली कहानी 'दरबान'

Darbaan Movie Review यह रचना एक सदी से अधिक पुरानी है मगर इसमें भावनाओं का ज्वार आज भी प्रासंगिक है। दरबान एक नौकर और मालिक के बीच के उस रिश्ते की कहानी बयां करती है जिसमें समर्पण का भाव छोटे-बड़े के बीच का फर्क ख़त्म कर देता है।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Fri, 04 Dec 2020 09:26 PM (IST)Updated: Sun, 06 Dec 2020 04:05 PM (IST)
Darbaan Movie Review: भावनाओं के उतार-चढ़ाव और बेहतरीन अभिनय में लिपटी छू लेने वाली कहानी 'दरबान'
पोस्टर पर शारिब हाशमी और शरद केल्कर। फोटो- ट्विटर

नई दिल्ली, मनोज वशिष्ठ। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर जिस रफ़्तार से इन दिनों कामुक और भाषाई स्तर पर दिवालिए कंटेंट की बाढ़ आ रही है, उनके बीच ज़ी5 पर रिलीज़ हुई फ़िल्म 'दरबान' एक शीतल फुहार की तरह है, जो भावनात्मक तसल्ली देती है। दरबान, सिनेमा की उस परम्परा को आगे बढ़ाती है, जिसमें भारतीय साहित्य को कैमरे की नज़र से देखा गया है। इसकी कहानी साहित्य जगत के आदिपुरुष रबींद्रनाथ टैगोर की चर्चित लघु कथा 'खोकाबाबूर प्रत्यबर्तन' से ली गयी है, जिसका हिंदी अनुवाद 'छोटे बाबू की वापसी' है। इस कहानी पर इसी नाम से 1960 में बंगाली फ़िल्म बन चुकी है, जिसमें बंगाली सिनेमा के लीजेंड्री एक्टर उत्तम कुमार ने लीड रोल निभाया था। दरबान में शारिब हाशमी को वही किरदार निभाने का मौक़ा मिला है।

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यह रचना एक सदी से अधिक पुरानी है, मगर इसमें समाहित भावनाओं का ज्वार आज भी प्रासंगिक है। दरबान, एक नौकर और मालिक के बीच के उस रिश्ते की कहानी बयां करती है, जिसमें नि:स्वार्थ प्रेम और समर्पण का भाव छोटे-बड़े के बीच के फर्क को ख़त्म कर देता है। 

दरबान की कहानी 1970 के बिहार (अब झारखंड) के धनबाद ज़िले के झरिया में सेट की गयी है। नरेन त्रिपाठी (हर्ष छाया) कोयले की खदान के मालिक हैं। रायचरण (शारिब हाशमी) उनका नौकर है, मगर घर के सदस्य की तरह है। रायचरण, नरेन बाबू के किशोरवय बेटे अनुकूल का दोस्त, भाई और गुरु, सब कुछ है। रायचरण भी अपने परिवार से बढ़कर तवज्जो मालिक के परिवार और अनुकूल को देता है। सरकार कोयले की खदानों का राष्ट्रीयकरण करती है, जिससे नरेन बाबू की सारा व्यापार और शानो शौकत चला जाता है। उन्हें अपना पुश्तैनी घर छोड़कर पलायन करना पड़ता है। रायचरण और अनुकूल बिछड़ जाते हैं। 

रायचरण अपने गांव लौट जाता है, जहां वो खेतीबाड़ी करने लगता है। कहानी दो दशक का लीप लेती है। अचानक एक दिन अनुकूल (शरद केल्कर), जो बड़ा अफ़सर बन चुका है और अपनी पुश्तैनी सम्पत्ति और सामाजिक कद को वापस पा चुका है, रायचरण के घर आता है और अपने 'रायचो' को घर आने की दावत देता है। उम्रदराज़ हो चुका रायचरण वहां पहुंचता है और अनुकूल के छोटे से बेटे सिद्धू के साथ उसी हवेली में पुरानी ज़िंदगी में खो जाता है, जो कभी अनुकूल के साथ बितायी थी। एक दिन रायचरण सिद्धू को घुमाने ले जाता है, मगर हादसा हो जाता है, जिसमें सिद्धू गुम हो जाता है।

बहुत खोजने पर भी सिद्धू के जीवित होने का कोई सबूत नहीं मिलता। रायचरण के अपनी कोई औलाद नहीं थी।अनुकूल की पत्नी (फ्लोरा सैनी) पहले से ही उसे लेकर सशंकित रहती है। इस हादसे के बाद वो बिफर पड़ती है। मगर, भावनात्मक लगाव के चलते अनुकूल रायचरण के ख़िलाफ़ पुलिस कार्रवाई से मना कर देता है। रायचरण और अनुकूल एक बार फिर बिछड़ जाते हैं, मगर इस बिछड़ने में बिछोह का दर्द नहीं अपराध बोध की वेदना है।

रायचरण, अनुकूल की ज़िंदगी में कभी ना आने के लिए गांव लौट जाता है, मगर उसकी पहले वाली ज़िंदादिली चली जाती है। कुछ वक़्त बीतता है। रायचरण पिता बन जाता है, लेकिन सिद्धू की मौत के लिए ख़ुद को ज़िम्मेदार मानने का ग़म उसे बेटे की तरफ़ देखने नहीं देता। इस बीच पत्नी भूरी (रसिका दुग्गल) भी चल बसती है।

रायचरण की बहन उसे समझाती है, मगर बेटे के लिए उसका मोह नहीं जागता। फिर एक दिन रायचरण का बेटा अकस्मात ही उसे चन्ना कहकर बुलाता है, जिस नाम से नन्हे सिद्धू ने पहली मुलाक़ात में उसे बुलाया था। रायचरण को मानो सिद्धू वापस मिल गया। इस घटना के बाद रायचरण को अपना मक़सद मिल जाता है। अपने बेटे में सिद्धू की छवि देखकर उसकी परवरिश उसी तरह करता है, जैसे वो सिद्धू हो। अपना पेट काटकर उसे अच्छे स्कूल में पढ़ाता है। सारी मांगें पूरी करता है। वो उसका नाम ही सिद्धू रख देता है। 

वक़्त बीतता है। बेटा किशोर अवस्था में पहुंच जाता है, मगर इतने सालों बाद भी सिद्धू को खोने का अपराध बोध रायचरण को अब भी कचोटता है। कहीं उसके बेटे को लोग सिद्धू समझकर छीन ना लें, इस डर से गांव छोड़कर गंगटोक चला जाता है। मगर, जगह बदलने से भी रायचरण का अतीत पीछा नहीं छोड़ता। आख़िरकार, वो एक मुश्किल फ़ैसला लेता है और कई साल पहले हुए हादसे का प्रायश्चित करने का फ़ैसला करता है। 

अदाकारी के लिहाज़ से देखें तो रायचरण के किरदार में भावनात्मक स्तर पर कई उतार-चढ़ाव हैं, जो किसी एक्टर के लिए ड्रीम रोल हो सकता है। उम्र का एक लम्बा सफ़र भी यह किरदार तय करता है, जिसे शारिब हाशमी ने कामयाबी के साथ जीया है। अनुकूल के साथ उसके संबंध और फिर उसके बेटे को खोने का अपराध बोध रायचरण की शख़्सियत को पूरी तरह बदल देता है। रायचरण की हर ख़ुशी और पीड़ा को शारिब हाशमी ने बेहतरीन ढंग से पर्दे पर उतारा है।

दर्शक शारिब के ज़रिए रायचरण के दर्द से जुड़ जाता है और उस पीड़ा को महसूस कर सकता है। वहीं, अनुकूल के किरदार में शरद केल्कर काफ़ी सहज दिखे हैं और शारिब के साथ उनकी जुगलबंदी विश्वसनीय लगती है। बाक़ी कलाकारों की बात करें तो रायचरण की पत्नी भूरी के रोल में रसिका दुग्गल को स्क्रीन पर अधिक समय नहीं मिला है, मगर जितना मिला है, रसिका ने उसे ज़ाया नहीं किया। अनुकूल की पत्नी के रोल में फ्लोरा सैनी ठीक हैं। हालांकि, भावनात्मक दृश्यों में फ्लोरा की पकड़ थोड़ा कमज़ोर लगती है। सिद्धू के किरदार में युवा कलाकार यश मिस्त्री ने शारिब को अच्छा सपोर्ट किया।

बिपिन नादकर्णी ने 19वीं सदी की कहानी को 20वीं सदी में सेट किया है। ज़मींदार परिवार की जगह उन्होंने कोयला खदान की पृष्ठभूमि ली है। लगभग एक सदी के फ़ासले में तकनीकी रूप से बहुत कुछ बदल जाता है, जिसका इस्तेमाल उन्होंने कहानी में किया है। दरबान फ़िल्म की कहानी कई दशक की यात्रा करती है, मगर दृश्यों के फ़िल्मांकन में उस यात्रा का भान नहीं होता। बस किरदारों के ज़रिए पता चलता है कि समय आगे बढ़ रहा है। डेढ़ घंटे की दरबान कुछ कमियों के साथ दरबान एक उम्मीद भरी फ़िल्म है, जो ओटीटी पर अच्छे कंटेंट की आस जगाती है।  

कलाकार- शारिब हाशमी, शरद केल्कर, रसिका दुग्गल, फ्लोरा सैनी, हर्ष छाया आदि। 

निर्देशक- बिपिन नाददर्णी

निर्माता- बिपिन नादकर्णी, योगेश बेल्दार।

वर्डिक्ट- 3 स्टार (***)


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