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फिल्म रिव्यू: बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम (3.5 स्‍टार)

फिल्म बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम सिस्टम का कचड़ा साफ करने के लिए युवाओं से सफाई अभियान का अगुआ बनने की अपील है।

By Tilak RajEdited By: Published: Fri, 13 May 2016 12:42 PM (IST)Updated: Fri, 13 May 2016 02:04 PM (IST)
फिल्म रिव्यू: बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम (3.5 स्‍टार)

-अमित कर्ण

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प्रमुख कलाकार- अनुपम खेर, पल्लवी जोशी, अरुणोदय सिंह और इंदल सिंह

निर्देशक- विवेक अग्निहोत्री

संगीत निर्देशक- रोहित शर्मा

स्टार- 3.5 स्टार

यह फिल्म पूंजीवाद और साम्यवाद के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों की कलई खोलने की कोशिश है। यहां विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विचारधाराओं की बेजा सौदेबाजी करने वालों का असल चेहरा दिखाया गया है। उसके तहत राजनेता, नौकरशाह और जनता के कथित रहनुमाओं की क्लास ली गई है। आंदोलन को फैशन मान उसकी पहुंच महज सोशल मीडिया तक सीमित करने वालों को आईना दिखाया गया है। यह बड़े सख्त लहजे में कहती है कि आम जनता व सिस्टम के बीच की दूरी कम हो। उन दोनों के मध्य मौजूद बिचौलियों को निकाल बाहर किया जाए। ताकि लोगों को उनके हक की चीजें मिल सकें।

फिल्म में एक गाना है ‘ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते’। यह फैज अहमद फैज की लोकप्रिय नज्म है। संगीतकार रोहित शर्मा ने इसे बखूबी गाने में तब्दील किया है। यह समाज के खाए-अघाए, खुद की बेहतरी में डूबे व हाड़तोड़ मेहनत कर बुनियादी जरूरतों की पूर्ति में ही उलझे मध्य वर्ग से जागने को कहता है। यह उन लोगों को भी संबोधित करता है, जो सताए जाने के बावजूद शोषक के समक्ष दशकों से हथियार डाले हुए हैं।

फिल्म साथ ही सिस्टम का कचड़ा साफ करने के लिए युवाओं से सफाई अभियान का अगुआ बनने की अपील है। खासकर उस युवा वर्ग से जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मोटी पगार से सम्मोहित हो ईएमआई जिंदगी यानी कर्ज लेकर घी पीने तक सीमित रह जाता है। हां, बौद्धिक आंतकवाद को परिभाषित करने व उसकी तस्वीर पेश करने में थोड़ी अतिरंजना हो गई है। साथ ही साम्यवाद को महज माओ की सोच तक सीमित है कि सत्ता व बंदूक की नली मात्र से निकलती है। कार्ल मार्क्स ने जिस साम्यवादी समाज की अवधारणा पेश की थी, वह पहलू रह गया है। जिसके तहत एक ऐसी कोशिश की बात की गई थी, जो अमीर और गरीब की खाई को पूर्णतया पाट दे। इसके अलावा दक्षिणपंथी सोच रखने वाले फिल्म में नदारद हैं। उनकी खूबियां-खामियां से फिल्म और निरपेक्ष व व्यापक बनती।

बहरहाल, इसकी कहानी बस्तर व हैदराबाद में आवाजाही करती है। दोनों इलाकों को नक्सल आंदोलन एक धागे में पिरोता है। बस्तर में उस आंदोलन की कमान नक्सली नेता प्रभात के हाथों में है। वहां आदिवासी त्रिशंकु बने हुए हैं। नक्सली उन्हें जीने नहीं देते और सिस्टम मरने नहीं देता। नन्हे सिंह सलवा जुडूम मुहिम का स्वंघोषित नेता है। वह जोर-जबरदस्ती व जुल्म के जोर पर आदिवासियों से नक्सलियों से दूर रहने को कहता है। उसके जाते ही आदिवासियों को प्रताडि़त करने की कमान नक्सली नेता प्रभात संभाल लेता है। आदिवासी चिंतित और परेशान हैं कि वह जाए कहां। असल में जबकि प्रभात और नन्हें मिले हुए हैं।

दरअसल, यहां फिल्म का नजरिया एकतरफा हो जाता है। प्रभात जैसे नक्सली नेता नक्सली आंदोलन के परम प्रतिनिधि नहीं है। उन जैसे लोग उस मुहिम का समग्र सच पेश नहीं करते। मगर फिल्म इस ओर टिकी हुई है। वह कहती है कि प्रभात जैसे लोग आंदोलन के नाम पर अपने इलाकों में समानांतर सरकार चला रहे हैं, जो एक हद तक सच है। अब आते हैं हैदराबाद। वहां देश का प्रतिस्थित प्रबंधन संस्थान है। प्रोफेसर रंजन बटकी उसके मुखिया हैं। उनकी पत्नी बस्तर के आदिवासियों के हाथों बने माटी के सामान सरकार को बेचती है। अचानक सरकार को लगता है कि उसकी दी हुई रकम एनजीओ के मार्फत बस्तर जैसे इलाकों में नक्सलियों को फंड करने में होता है। वह अपनी अनुदान राशि बंद कर देती है। विक्रम पंडित कुशाग्र बुद्धि का छात्र है। वह बाकी छात्र बिरादरी से अलग है। इस मायने में कि वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ जमीनी शख्स है। वह रंजन बटकी के विचारों पर सवाल करता है। उसका सीधा सा मानना है कि भारत से गरीबी का उन्मूलन तभी हो सकता है, जब गरीबों व व्यावस्था के बीच मौजूद बिचौलियों को हटाया जाए। रंजन बटकी उसे अपने फायदे के लिए कैसे इ्स्तेमाल करता है, यह आगे फिल्म में है।

रंजन बटकी बने अनुपम खेर, रंजन की बीवी पल्लवी जोशी व विक्रम पंडित की भूमिका में अरुणोदय सिंह का काम सराहनीय है। नन्हे सिंह की हैवानियत को इंदल सिंह ने बखूबी पेश किया है। नक्सली नेता प्रभात के रोल में गोपाल के सिंह की रेंज पता लगती है। लेखक, निर्देशक विवेक अग्निहोत्री पर साम्यवाद की आंशिक परिभाषा पेश करने के आरोप लग सकते हैं, मगर वे प्रशंसा के हकदार भी हैं। वह इसलिए कि ऐसे विषयों पर अमूमन फिल्मकार फिल्में नहीं बनाते हैं। बनाते हैं भी तो उनमें मसाले डाल दिए जाते हैं। विवेक ने ऐसा नहीं होने दिया है। उन्होंने पूरी फिल्म का सुर गंभीर, रॉ और रियल रखा है। संगीतकार रोहित शर्मा का काम अच्छा है। और हां, फिल्म के आखिर में पल्लवी जोशी द्वारा गाया ‘चंद रोज और मेरी जान’ उनकी ही तरह खूबसूरत बन पड़ा है।

अवधि – 115 मिनट


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