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फिल्‍म रिव्‍यू: अब तक छप्पन 2 (डेढ़ स्‍टार)

शिमित अमीन की 'अब तक छप्पन' 2004 में आई थी। उस फिल्म में नाना पाटेकर ने साधु आगाशे की भूमिका निभाई थी। उस फिल्म में साधु आगाशे कहता है कि एक बार पुलिस अधिकारी हो गए तो हमेशा पुलिस अधिकारी रहते हैं। आशय यह है कि मानसिकता वैसी बन जाती

By Monika SharmaEdited By: Published: Fri, 27 Feb 2015 09:51 AM (IST)Updated: Fri, 27 Feb 2015 10:33 AM (IST)
फिल्‍म रिव्‍यू: अब तक छप्पन 2 (डेढ़ स्‍टार)

अजय ब्रह्मात्मज

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प्रमुख कलाकार: नाना पाटेकर, आशुतोष राणा, विक्रम गोखले, गुल पनाग, मोहन आगाशे
निर्देशक: ऐजाज गुलाब
संगीतकार: अमल मलिक
स्टार: 1.5

शिमित अमीन की 'अब तक छप्पन' 2004 में आई थी। उस फिल्म में नाना पाटेकर ने साधु आगाशे की भूमिका निभाई थी। उस फिल्म में साधु आगाशे कहता है कि एक बार पुलिस अधिकारी हो गए तो हमेशा पुलिस अधिकारी रहते हैं। आशय यह है कि मानसिकता वैसी बन जाती है। 'अब तक छप्पन 2' की कहानी पिछली फिल्म के खत्म होने से शुरू नहीं होती है। पिछली फिल्म के पुलिस कमिश्नर प्रधान यहां भी हैं। वे साधु की ईमानदारी और निष्ठा की कद्र करते हैं। साधु पुलिस की नौकरी से निलंबित होकर गोवा में अपने इकलौते बेटे के साथ जिंदगी बिता रहे हैं। राज्य में फिर से अंडरवर्ल्ड की गतिविधियां बढ़ गई हैं। राज्य के गृह मंत्री जागीरदार की सिफारिश पर फिर से साधु आगाशे को बहाल किया जाता है। उन्हें अंडरवर्ल्ड से निबटने की पूरी छूट दी जाती है।

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साधु आगाशे पुराने तरीके से अंडरवर्ल्ड के अपराधियों की सफाई शुरू करते हैं। नए सिस्टम में फिर से कुछ पुलिस अधिकारी भ्रष्ट नेताओं और अपराधियों से मिले हुए हैं। सफाई करते-करते साधु आगाशे इस दुष्चक्र की तह तक पहुंचते हैं। वहां उन्हें अपराधियों की संगत दिखती है। वे हैरान नहीं होते। वे एनकाउंटर की प्रक्रिया के विपरीत एक्शन लेते हैं। वे खुलेआम सभी के सामने मुख्य अपराधी की हत्या करते हैं। हिंदी फिल्मों में 'तिरंगा' और उसके पहले से सिस्टम सुधारने के इस अराजक तरीके की वकालत होती रही है। हताश-निराश दर्शकों के एक तबके को इस तरह का निदान अच्छा भी लगता है। ऐसी फिल्मों में कुछ संवादों के जरिए निराशा और रोष को अभिव्यक्ति दी जाती है। बताया जाता है कि सिस्टम पर अपराधियों का कब्जा है और नेता निजी स्वार्थ में राष्ट्रहित और समाज की परवाह नहीं करते। बतौर एक्टर नाना ने अपनी एक छवि विकसित की है, जो सिस्टम के विरोध में नज़र आती है। हिंदी फिल्मों में उनकी इस छवि का घालमेल चलता रहता है।

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नाना अपने जमाने में रियलिस्ट अभिनेता माने जाते रहे हैं। उन्होंने अभिनय में यथार्थ लाने की सफल कोशिश की। अभिनय का रियलिरूट तरीका अब सूक्ष्म और सरल हो गया है। नाना को अगली पीढ़ी के अभिनेताओं में इरफान खान, मनोज बाजपेयी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी को देखने की जरूरत है। ये तीनों हिंदी सिनेमा में अभिनय के तीन भिन्न आयाम हैं। 'अब तक छप्पन 2' में सिर्फ नाना ही नहीं बाकी सारे अभिनेता भी नाना जमाने की एक्टिंग कर रहे हैं। यहां तक की गुल पनाग भी इस प्रभाव से नहीं बच पाई हैं। फिल्म की घटनाओं का अनुमान पहले से हो जाता है। रिदार और उनके संवाद भी चिर-परिचित जान पड़ते हैं। 'अब तक छप्पन 2' में किसी प्रकार की नवीनता नहीं है। नाना के होने के बावजूद फिल्म निराश करती है।

स्थितियां बदल चुकी हैं। मुंबई के माहौल में अंडरवर्ल्ड और एनकाउंटर अब सुर्खियों के शब्द नहीं हैं। फिल्मों के साथ समाज ने भी भ्रष्ट नेताओं को एक्सपोज किया है। भ्रष्टाचार के मामले में बड़े नेता, बिजनेश मैन और समाज के कथित सम्मानित व्यक्ति जेल की सजा काट रहे हैं। उनके खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में आई 'अब तक छप्पन 2' अप्रासंगिक और बचकाना प्रयास लगती है। पटकथा और अभिनय में सामंजस्य नहीं है। दोनों का ढीलापन दो घंटे से छोटी फिल्म में भी ऊब पैदा करता है।

अवधि: 105 मिनट

abrahmatmaj@mbi.jagran.com

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