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'थिएटर से मुझे संतुष्टि और फिल्मों से रोटी मिलती है'

अभिनय की सभी विधाओं में समान रूप से दखल रखने वाले सौरभ शुक्ला ‘2 टू टैंगो 3 टू जाइव’ नाटक से 18 साल बाद दोबारा थियेटर में वापसी कर रहे हैं

By Monika SharmaEdited By: Published: Sun, 17 May 2015 01:02 PM (IST)Updated: Sun, 17 May 2015 01:22 PM (IST)
'थिएटर से मुझे संतुष्टि और फिल्मों से रोटी मिलती है'

अभिनय की सभी विधाओं में समान रूप से दखल रखने वाले सौरभ शुक्ला ‘2 टू टैंगो 3 टू जाइव’ नाटक से 18 साल बाद दोबारा थियेटर में वापसी कर रहे हैं

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फिल्म-थियेटर एक्टिंग, स्क्रिप्ट राइटिंग, डाइरेक्शन...इतने सारे काम को एक साथ कैसे मैनेज करते हैं?

काम करना मेरी हॉबी है। मैं फिल्म और थियेटर में काम को एंजॉय करता हूं और यही मेरे लिए काफी है। मुझे सफर करना और लोगों से बातें करना बेहद पसंद है, क्योंकि ये मेरे काम में शामिल है।

‘2 टू टैंगो, 3 टू जाइव’ की थीम क्या है?

ये एक अधेड़ इंसान परमिंदर सिंह सेठी की कहानी है, जो एकसार जिंदगी से ऊब चुका है। कई परेशानियों को झेलता हुआ वो अपनी अलग-अलग प्रैक्टिकल, कंफ्यूजिंग, हास्यास्पद छवियों को पेश करता है।

क्या इसे थियेटर में आपका कमबैक माना जाए?

हां, ये कमबैक ही है। 18 साल बाद मैंने प्ले में काम किया है।

आपने थियेटर से एक्टिंग करियर की शुरुआत की। अपने फर्स्ट प्ले और उसके अनुभव के बारे में बताएं?

मेरा पहला प्ले ‘सब चलता है’ था। इसे मैंने लिखा और निर्देशित भी किया था। मैं नहीं जानता था कि थियेटर में किस तरह एक्टिंग की जाती है। जब मैंने किसी दूसरे व्यक्ति के लिखे और निर्देशित ड्रामा में अभिनय किया तो उसी समय मैंने एक निर्णय लिया कि मैं अपने प्ले को खुद लिखूंगा। मैं खुश हूं कि मैं ऐसा कर पाया। आर्थर मिलर के क्लासिक नाटक ‘ए व्यू फ्रॉम द ब्रिज’ में मेरे अभिनय को पहली बार नोटिस किया गया। यहीं से मेरे अभिनय के सफर ने रफ्तार पकड़ी।

तब और अब के थियेटर वर्ल्ड में कितनी तब्दीलियां आ चुकी हैं?

तकनीकी दृष्टिकोण से देखें तो बहुत बदलाव आ चुका है। आर्थिक परिदृश्य भी बदल चुका है। मुझे वो समय याद है जब हम लोग दस रुपए से ज्यादा के टिकट नहीं बेच पाते थे। अब तो 500 रूपए से ज्यादा के टिकट भी आसानी से बिक जाते हैं। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि दिल्ली और मुंबई जैसे मेट्रो शहरों में 1 से 5 हजार थियेटर टिकटों की बिक्री हो जाती है। हां, एक चीज जो नहीं बदली, वो ये कि औसत नाटक आज भी औसत श्रेणी के ही कहलाते हैं और बेहतरीन नाटक बेहतरीन कहलाते हैं।

आपका पहला प्यार कौन है, सिनेमा या थियेटर?
कला की दोनों विधाएं मेरे लिए समान हैं। मैं ये जरूर कह सकता हूं कि आर्थिक स्तर पर थियेटर मेरी जरूरतें पूरी नहीं कर सकता लेकिन इसमें काम करने से मुझे बहुत संतुष्टि मिलती है। फिल्में मेरे लिए ‘ब्रेड एंड बटर’ जुटाती हैं।

आपके फैंस आपको कल्लू मामा के रूप में जानते हैं। आगे भविष्य में उस तरह का रोल करना चाहेंगे?

नहीं, एक एक्टर किसी चीज को दोहराना नहीं चाहता है। ये ट्रैवलिंग सरीखा है। एक बार यात्री किसी स्थान को परख लेता है, फिर वो बार-बार वहां नहीं जाना चाहता है।

आगे क्या योजना है?

इस साल 4-5 फिल्में रिलीज होंगी। मैं अभी नील माधव पांडा की ‘कौन कितने पानी में’, सुधीर मिश्रा की ‘और देवदास’, प्रकाश झा की ‘फ्रॉड सैंया’ और अनुराग बसु की ‘जग्गा जासूस’ में काम कर रहा हूं। साल के अंत तक ‘जॉली एलएलबी पार्ट 2’ की शूटिंग भी शुरू हो जाएगी।

स्मिता


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