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छोटी फिल्में भी देती हैं बिजनेस : प्रकाश झा

प्रकाश झा इन दिनों छोटी फिल्मों के मजबूत पैराकार हैं। उनके बैनर की ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ आ रही है। कुछ और फिल्में निर्माणाधीन हैं। ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ को अपने बैनर की छांव प्रदान करने को हम आप की तीसरी इनिंग कहें? पहली बार आप ने फिल्में बनाईं, फिर बिहार गए।

By Monika SharmaEdited By: Published: Mon, 12 Jan 2015 10:17 AM (IST)Updated: Mon, 12 Jan 2015 10:52 AM (IST)
छोटी फिल्में भी देती हैं बिजनेस : प्रकाश झा

अजय ब्रह्मात्मजप्रकाश झा इन दिनों छोटी फिल्मों के मजबूत पैराकार हैं। उनके बैनर की ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ आ रही है। कुछ और फिल्में निर्माणाधीन हैं।

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‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ को अपने बैनर की छांव प्रदान करने को हम आप की तीसरी इनिंग कहें? पहली बार आप ने फिल्में बनाईं, फिर बिहार गए। वापस आकर फिर ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’ जैसी बड़ी फिल्में बनाईं, जो दूसरी इनिंग थी। अब नए जमाने के संग कदम मिलाकर आप ‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ जैसी फिल्मों को सपोर्ट कर रहे हैं?

तीसरी इनिंग तो नहीं, यह मेरा एडिशनल वर्क है, क्योंकि अभी दूसरी इनिंग तो खत्म नहीं हुई। ‘गंगाजल’ या ‘सत्याग्रह’ जैसी फिल्में तो बन ही रही हैं। पॉलिटिकल टॉपिक को टच करना तो मुझे भाता ही है। नया सब्जेक्ट ‘सत्संग’ है। उस पर भी काम चल रहा है, लेकिन मुझे लगा कि जिस तरह से हमारी फिल्मों का विस्तार हुआ है और जिस तरह हमारी ऑडियंस निकल कर सिनेमा देखने आने लगी है। उसका खयाल रखना चाहिए। उससे भी बड़ी बात है कि यंग, नया टैलेंट चाहे एक्टिंग में हो, रायटिंग में हो, हर जगह उनकी बड़ी खेप आ रही है। उन्हें महत्व दिया जाना चाहिए। पांच-सात साल पहले ऐसा नहीं था। मिसाल के तौर पर पहले सोनू निगम की गायकी का दौर चल रहा है तो केवल उन्हीं की आवाज सुनाई पड़ती थी। अब वह बात नहीं है। आज किसी गायक या कलाकार का एकाधिकार नहीं रहा। मसलन हम ‘गंगाजल 2’ का एक गाना कंपोज कर रहे हैं, जो कबीर का दोहा है। उसमें मुझसे पूछा गया कि किसकी आवाज ली जाए तो मेरा स्पष्ट कहना था कि जो उस गाने, मिजाज और मिट्टी के संग न्याय कर सके, उसे लो। वह चाहे नया लड़का ही क्यों न हो?

यह प्रेरणा कहां से मिली?

‘सत्याग्रह’ के बाद रोज नई स्क्रिप्ट आती थी। हम देख भी नहीं पाते थे तो मैंने देखना शुरू किया। उनमें कुछ बातें थीं। मेरे साथ काम करने के बाद लोग फिल्ममेकिंग में ग्रेजुएट हो जाते हैं। हमारे यहां की तो रीत रही है कि भोपाल में भी जो हमारे संग प्रोडक्शन असिस्टेंट का काम कर लेता है, उसे मुंबई में आसानी से काम मिल जाता है। तो हमने डिसाइड किया कि हम साल, दो साल में बड़ी फिल्में बनाएंगे ही। बीच में नए टैलेंट के संग भी काम करेंगे।

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आप पहले भी छोटी फिल्मों का करते रहे हैं। वह चाहे मनीष की फिल्म हो या अलंकृता की। अब वही घोषित रूप से कर रहे हैं?

जी हां, जैसे सुधीर की फिल्म ‘खोया खोया चांद’। यह भी प्रकाश झा प्रोडक्शन के नाम से ही आई थी। इस बैनर से बनने वाली फिल्म से आप को उम्दा चीजें ही मिलेंगी?

‘क्रेजी कुक्कड़ फैमिली’ की किस चीज ने आप को फिल्म बनाने पर मजबूर किया?

फैमिली वैल्यू का मैसेज बड़े प्यारे तरीके से जाहिर किया गया है। एक शख्स है, जिसके चार बेटे हैं। वे चारों संघर्ष कर रहे हैं जिंदगी में। चारों को एक कैपिटल चाहिए जिंदगी को आगे बढ़ाने के लिए। उन्हें फिर एक बड़ी पूंजी मिलती है और वे आगे बढ़ते हैं। क्राइसिस के दिनों में उन्हें सलाहियत भी मिलती है। सबसे खास बात यह थी कि फिल्म के डायरेक्टर नए हैं। उन्होंने कहानी की ट्रीटमेंट बड़ी प्यारी की है।

स्वानंद किरकिरे और शिल्पा शुक्ला को मुख्य भूमिकाएं देने पर कैसे सहमति बनी?

डायरेक्टर रितेश मेनन ने उन्हें चुना था। मैंपे फिल्म देखी है। स्वानंद किरकिरे अपने काम से सबको चौंका देंगे। वे गजब अभिनेता है। शिल्पा शुक्ला भी अपनी इमेज से बाहर के रोल में प्रभावित करेंगी। दोनों के केमिस्ट्री पर्दे पर अच्छी लग रही है। दोनों भाई-बहन बने हैं।

आज के दौर में छोटी फिल्मों की क्या चुनौतियां हैं? आपने अपने करियर की शुरुआत छोटे बजट की फिल्म से की थी। आज भी छोटी फिल्में बन रही हैं.., पर नए-नवेलों को आप जैसे कद्दावरों का सपोर्ट मिल जाता है?

उस जमाने में तो हमारे जैसों की फिल्में रिलीज नहीं हो पाती थीं। एनएफडीसी के सपोर्ट से बनती थीं और डीडी के प्रसारण से पैसे मिल जाते थे। ‘दामुल’ की ही बात करें तो हमने एनएफडीसी के अधिकारियों के जरिए सरकार तक बात पहुंचाई कि आप हमें नेशनल अवार्ड तो दे देंगे, मगर रिलीज नहीं करेंगे तो हमारी फिल्म की लागत कहां से निकलेगी। फिर सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एक नियम निकाला कि नेशनल अवार्ड विनिंग फिल्मों को प्रसारित करने के साथ 12 लाख रुपए दिए जाएंगे। ‘दामुल’ से इसकी शुरूआत हुई। आज तो मल्टीपल थिएटर हैं। और ऑडिएंस भी बेहतर हुई है, उन्हें अगर एहसास हुआ कि बड़े सितारों की फिल्म में कुछ नहीं हैं तो वे नहीं जाते हैं। छोटी फिल्मों में अगर उन्हें कुछ दिख जाए तो वे वहां जाते हैं।

वितरकों का छोटी फिल्मों के प्रति सौतेला व्यवहार भी एक बड़ी समस्या है?

सही कहा आपने। लेकिन वितरक बड़ी तस्वीर नहीं देख रहे। उन्हें समझना होगा कि छोटी फिल्मों का भी दर्शक वर्ग है। उन्हें उसकी भी खुराक चाहिए। उस दिशा में निर्माता, वितरक और एग्जीबिटर को मिल बैठ कर बातें करनी होंगी। मैं उस दिशा में यकीनन पहल करूंगा। मेरी सलाह है कि छोटी फिल्मों के टिकट रेट कम किए जाएं। आप पैसे बढ़ा सकते हैं तो घटा भी सकते हैं ना?

आगे कोई छोटी फिल्में आप के बैनर से..?

जी हां। एक ‘फ्रॉड सइयां’ है। सौरभ शुक्ला हैं उनमें अरशद वारसी के संग। इत्तफाकन निर्देशक का नाम भी सौरभ ही है। उसकी शूटिंग भी पूरी हो चुकी है। एक अलंकृता की फिल्म है ‘लिपिस्टिक वाले सपने’। उसमें रत्ना पाठक शाह हैं। कोंकणा सेन शर्मा आदि हैं।

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