आंदोलन के छद्म सुख से बचना होगा
मुंबई। प्रसून जोशी ने 'भाग मिल्खा भाग' से राष्ट्रवाद का नया फिल्मी प्रतीक पेश किया है। उन्हें लगता है कि देश ने आजादी के बाद से काफी कुछ हासिल किया, पर सफर अभी आधा-अधूरा है। आजादी और युवाओं की सोच पर उनसे कुछ सवाल-जवब
मुंबई। प्रसून जोशी ने 'भाग मिल्खा भाग' से राष्ट्रवाद का नया फिल्मी प्रतीक पेश किया है। उन्हें लगता है कि देश ने आजादी के बाद से काफी कुछ हासिल किया, पर सफर अभी आधा-अधूरा है। आजादी और युवाओं की सोच पर उनसे कुछ सवाल-जवब
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हम असल मायनों में कितने आजाद हैं?
'सत्याग्रह' के संगीत में मेरे एक गाने के बोल हैं 'बहुत हुआ विश्राम, अब उठ कर करना है कुछ काम, रघुपति राघव राजा राम।' मतलब यह कि हम 15 अगस्त 1947 को आजाद हुए, यह सोच-सोच कर बहुत खुश हो चुके हैं। अब देश की दशा-दिशा बदलने में हम भागीदार हैं कि नहीं, उसे सोचने की जरूरत है। दुर्भाग्य से आज भी अधिकतर लोग यही सोचते हैं कि देश अलग है, हम अलग हैं। किसी एक के आगे आने से कुछ नहीं होगा। लोगों की जब तक यह मानसिक दशा रहेगी, मैं नहीं मानता कि हम असल मायनों में आजाद हैं। अगर हम सकारात्मक बदलाव का हिस्सा नहीं हैं तो हमें मिली आजादी बेमानी है।
सबसे अधिक युवाओं वाले इस देश में आप युवा को कहां पाते हैं?
आज के युवाओं की सबसे अच्छी बात है कि उनमें आपसी कटुता नहीं है। कुछ गलत होने पर युवा सवाल करता है। उसके अंदर भरपूर ऊर्जा है, पर उसे दिशा देने की जरूरत है। मेरी युवाओं से अपील है कि आप अपने आदर्श बदलें। महज पॉपुलैरिटी के आधार पर किसी को अपना आदर्श बनाना गलत है। यह सोच मुझे चिंतित करती है। हम जिस युग में जी रहे हैं, वहां आंदोलन के 'छद्म सुख' से बचने की भी जरूरत है। महज सोशल साइट पर किसी मुहिम को लाइक, डिसलाइक या उसमें शरीक होने का स्टेटस अपलोड कर हम अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं कर सकते। जीत से ज्यादा संघर्ष की अवाज को बुलंद करें।
जो युवाओं के आदर्श हैं, वे सक्रिय राजनीति का हिस्सा क्यों नहीं बनते?
वे सार्थक फिल्में बनाकर लोगों की सोच बदल रहे हैं। जरूरी नहीं कि सिस्टम सुधारने के लिए हर किसी को सक्रिय राजनीति का डंडा हाथ में लेना होगा। आप जहां हैं, वहीं से सोशली कनसर्न रहें। ईमानदार कोशिश करें कि किसी भी किस्म की ज्यादती नहीं सहेंगे।
फिल्मकार व लेखक अपनी अभिव्यक्ति को लेकर कितने आजाद हैं?
एक बेहतरीन फिल्मकार या लेखक होने से पहले आपको एक अच्छा इंसान बनना होगा। आपको तय करना होगा कि आप अपनी कहानी से समाज में भाईचारा फैलाना चाहते हैं कि वैमनस्यता। सच दिखाने के नाम पर एकतरफा तथ्य दिखाने वालों को दिक्कत होती रही है। मैं यह नहीं कहता कि संवेदनशील मुद्दों पर बनी ईमानदार फिल्मों को बड़ी आसानी से रिलीज की हरी झंडी मिली हो, पर जहां कहीं भी हर पहलू को फिल्म में दिखाया गया, वहां कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। 'विश्वरूपम' जैसे उदाहरणों में कुछ समय के लिए कुछ ताकतों की आवाज प्रभावी रही, पर आखिर में जीत सच और सही तथ्य की हुई।
अमित
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