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आतंकवाद के प्रति परसेप्शन बदलना चाहिए: नीरज पाण्डेय

नीरज पाण्डेय की ‘बेबी’ लागत और अप्रोच के लिहाज से उनकी अभी तक की बड़ी फिल्म है। उनके चहेते हीरो अक्षय कुमार इसके नायक हैं। फिल्म फिर से आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर है। ‘बेबी’ एक मिशन का नाम है, जिसमें अक्षय कुमार अपनी टीम के साथ लगे हैं। नीरज पाण्डेय

By Monika SharmaEdited By: Published: Mon, 19 Jan 2015 12:26 PM (IST)Updated: Mon, 19 Jan 2015 01:04 PM (IST)
आतंकवाद के प्रति परसेप्शन बदलना चाहिए: नीरज पाण्डेय

अजय ब्रह्मात्मज

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नीरज पाण्डेय की ‘बेबी’ लागत और अप्रोच के लिहाज से उनकी अभी तक की बड़ी फिल्म है। उनके चहेते हीरो अक्षय कुमार इसके नायक हैं। फिल्म फिर से आतंकवाद की पृष्ठभूमि पर है। ‘बेबी’ एक मिशन का नाम है, जिसमें अक्षय कुमार अपनी टीम के साथ लगे हैं। नीरज पाण्डेय की खूबी है कि उनकी फिल्मों के विषय और ट्रीटमेंट अलग और आकर्षक होते हैं।

हिंदी फिल्मों के ढांचे के बाहर के विषयों के प्रति यह आकर्षण क्यों है और आप का ट्रीटमेंट भी अलहदा होता है?

बाकी काम जो लोग सफल तरीके से कर रहे हैं, उसमें जाकर मैं क्या नया कर लूंगा? विषय चुनते समय मैं हमेशा यह खयाल रखता हूं कि क्या मैं कुछ नया कहने जा रहा हूं? कुछ नया नहीं है तो फिल्म बनाने का पॉइंट नहीं बनता। कहानियों की कमी नहीं है। पुरानी कहानियों को आज के परिप्रेक्ष्य में रख सकते हैं। मेरी कोशिश रहती है कि हर बार कुछ नया करूं। एक फिल्म में दो-ढाई साल लग जाते हैं। मुझे लगता है कि अगर कुछ नया न हो तो कैसे काम कर पाएंगे।

आप की सोच और परवरिश की भी तो भूमिका होती है विषयों के चुनाव में?

हो सकता है। पहली फिल्म से ही मैंने ऐसी कोशिश की। शुरूआत करते समय ऐसा कोई लक्ष्य नहीं रखा था कि मुझे दूसरों को गलत साबित करना है। मैं इंडस्ट्री की पैदाइश नहीं हूं। टाइप्ड फिल्मों के प्रति उत्साह नहीं बनता। आप देखें कि बाहर से आए सभी निर्देशकों ने नए विषयों पर फिल्में बनाई हैं। कह सकते हैं कि मुझे मालूम ही नहीं था कि सेफ फिल्में कैसी होती हैं। मेरे लिए विषय सबसे अधिक महत्व रखता है। कास्टिंग, प्रोडक्शन और मार्केटिंग आदि मैनेज किया जा सकता है। विषय ठोस है और निर्देशक की पसंद का है तो वह कमाल कर सकता है। पहली फिल्म से अभी तक विषयों के चुनाव में मैंने सावधानी बरती है। सोच और परवरिश से तय होता है कि हमें कैसी कहानियां अच्छी लगती हैं? मेरा अपना प्रोडक्शन हाउस है तो हमें बाहरी दबाव में काम नहीं करना पड़ता।

मुंबई आने के पीछे आप का मकसद फिल्म निर्देशन में ही आना था। यहां तक पहुंचने में थोड़ा वक्त लगा, लेकिन आप क्या खूब आए?

मैं स्पष्ट रहा कि मुझे क्या करना है? डाक्यूमेंट्री और ऐड फिल्में बनाते समय भी मेरा लक्ष्य टिका रहा। मुझे यह भी मालूम था कि वक्त लगेगा। कोई हमारा इंतजार तो कर नहीं रहा था। यह सफर रोचक रहा। मैं कोलकाता से हूं, लेकिन मेरी जड़ें बिहार में आरा की हैं। आरा से बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर लक्ष्मीपुर गांव है मेरा। भोजपुरी भाषा और संस्कृति में पला-बढ़ा हूं। बंगाली भाषा से विशेष प्रेम है। मैंने एक बंगाली फिल्म भी बनाई थी। और फिर मेरी पढ़ाई-लिखाई का भी असर रहता है।

फिल्म निर्देशन तक पहुंचने के सफर के बारे में संक्षेप में कुछ बताएं?

एक जर्नी रही है। उसे में ग्लैमराइज नहीं करना चाहता। न ही ऐसी कोई नॉस्टेलजिक कहानी है। मैं लोगों से शेयर नहीं करना चाहता। वह सफर मुझे प्यारा है। सभी को यह समझ लेना चाहिए कि बाहर से आए हर व्यक्ति की एक जर्नी होगी। आप इंडस्ट्री के नहीं हैं तो मुश्किलें भी होंगी। उनके लिए तैयार होने के बाद ही यहां आना चाहिए। बड़ी आशा और घोर निराशा से बचने का एक ही तरीका है कि आप लगातार काम करते रहें। यही मैंने किया। मेहनत तो करनी होगी। उसी में दोस्त बनते गए। अवसर मिले। और राह बनती गई।

‘ए वेडनेसडे’ के बाद आप को पीछे पलट कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी?

यह मुहावरा बहुत गलत अर्थ देता है। फिल्ममेकिंग के धंधे में हमेशा आगे और पीछे देखते रहना पड़ता है। कई बार सारी चीजें आप के नियंत्रण से बाहर चली जाती हैं। मैं अलग किस्म का व्यक्ति हूं। मैं पार्टीजीवी नहीं हूं। मैं शुरू से ही ऐसा हूं। मैं ढेर सारे लोगों के बीच रहने पर असहज महसूस करता हूं। खूब पढ़ता हूं और खूब फिल्में देखता हूं। और अपना काम करता हूं।

‘बेबी’ का विचार कैसे आया?

‘स्पेशल 26’ के बाद मैंने एक उपन्यास ‘गालिब डेंजर’ लिखा। उसके बाद फिल्म के लिए कहानी की तलाश थी। अचानक एक विचार आया और उसके इर्द-गिर्द कहानी और किरदार जोड़े गए। इंटनेशनल जासूसी और मिशन कहानी के केंद्र में है। ‘बेबी’ फिल्म में कोड नेम है। चूंकि पांच साल के ट्रायल रन पर है, इसलिए उसका नाम बेबी रखा गया है। कुछ चीजें अभी नहीं बता सकते। जिज्ञासा बची रहे।

आतंकवाद बहुत ही टॉपिकल विषय है। इन दिनों लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जिनका जिक्र आप की फिल्म में भी होगा। आप आतंकवाद को कैसे देखते हैं?

मेरी अपनी सोच और निर्देशक की सोच एक जैसी ही है। मेरा अपना पॉइंट ऑफ व्यू है। ‘बेबी’ में कल्पना की गई है कि ऐसा कुछ हो सकता है। इसी वजह से मेरी फिल्म से कनेक्ट बनता है। जब भी कोई आतंकवादी हादसा होता है तो महसूस होता है कि ऐसा तो फलां फिल्म में देखा था। हमें वास्तविक घटनाएं ही प्रेरित करती है। उनमें रिसर्च के जरिए हम कुछ संभावनाएं जोड़ते हैं और उसे इंटरेस्टिंग तरीके से पेश करते हैं।

इन दिनों आतंकवाद के प्रति एक प्रचलित नजरिया है। सभी उसी तरह से देखना और दिखाना चाहते हैं। क्या आप की फिल्म में कोई संकेत है?

मैं इस मामले का एक्सपर्ट नहीं हूं। ढेर सारे तेज दिमाग इसके विश्लेषण में लगे हैं। हमारे देश की भौगोलिक और राजनीतिक स्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा। मैं अलग लेंस से इसे देख रहा हूं। आतंकवाद एक बड़ी समस्या है। किसी एक धर्म से उसे जोड़ देना एकदम गलत है। इससे जुड़े लोग धर्म का इस्तेमाल लोगों को भड़काने और उकसाने के लिए करते हैं। आतंकवाद के प्रति परसेप्शन बदलना चाहिए। अलग खेल चल रहा है।

अक्षय कुमार और अन्य कलाकारों के चुनाव के बारे में क्या कहेंगे?

अक्षय कुमार से दोस्ती और समझदारी बन गई है। अगर एक पॉपुलर स्टार मेरी फिल्म में फिट बैठता है और वह दोस्त है तो क्यों नहीं उसे चुनूं? कई प्रकार की सुविधाएं हो जाती हैं। अनुपम खेर जी से भी एक रिश्ता है। इस बार के के मेनन और डैनी साहब के साथ काम कर रहा हूं। दोनों ही गजब कलाकार हैं। हीरोइनों में तापसी पन्नू और मधुरिमा तुली का चुनाव भी किरदारों को ध्यान में रख कर किया गया है।


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