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सिंगल स्क्रीन के लिए हैं मेरी फिल्में - तिग्मांशु धूलिया

इमरान खान स्टारर ‘मिलन टॉकीज’ पर काम शुरू कर चुके हैं निर्देशक तिग्मांशु धूलिया। इसकी कहानी लखनऊ व इलाहाबाद में सेट है। लिहाजा लोकेशन के लिए वे बीते दिनों लखनऊ व इलाहाबाद में थे। वे अपनी अगले बायोपिक पर भी रिसर्च वर्क शुरू कर चुके हैं। वे बताते हैं, ‘मेरे

By Monika SharmaEdited By: Published: Mon, 03 Aug 2015 03:35 PM (IST)Updated: Mon, 03 Aug 2015 03:53 PM (IST)
सिंगल स्क्रीन के लिए हैं मेरी फिल्में - तिग्मांशु धूलिया

इमरान खान स्टारर ‘मिलन टॉकीज’ पर काम शुरू कर चुके हैं निर्देशक तिग्मांशु धूलिया। इसकी कहानी लखनऊ व इलाहाबाद में सेट है। लिहाजा लोकेशन के लिए वे बीते दिनों लखनऊ व इलाहाबाद में थे। वे अपनी अगले बायोपिक पर भी रिसर्च वर्क शुरू कर चुके हैं। वे बताते हैं, ‘मेरे दिल के बहुत करीब है ‘मिलन टॉकीज’ की स्क्रिप्ट। ‘पान सिंह तोमर’ के दरम्यान ही मैं उसकी स्क्रिप्ट लिख चुका था। यह एक रोमांटिक फिल्म है। इसमें नायक-नायिकाओं का जात-पांत, अमीरी-गरीबी वाला द्वंद्व नहीं है। हमारे पास संचार के ढेर सारे साधन हैं, पर हमारे बीच दूरियां बरकरार हैं। बस, उसे केंद्र में रखते हुए कहानी गढ़ी है।’

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इमरान की पृष्ठभूमि मुंबई की है। हिंदी पट्टी से उनका ज्यादा वास्ता नहीं रहा। ऐसे में ठेठ उत्तर प्रदेश के युवक की भूमिका देना न्यायसंगत होगा? पूछे जाने पर तिग्मांशु बताते हैं, ‘उनके लिए मामला चुनौतीपूर्ण तो है, पर मजा इसी में है कि उन्हें इस खाके में ढाला जाए। उनके संग अच्छी बात है कि वे बड़े भूखे हैं। प्रयोगवादी किरदारों में ढलने को लेकर उनमें काफी उत्सुकता है। उन्हें इस फिल्म की शूटिंग से एक महीना पहले लखनऊ, इलाहाबाद घुमाऊंगा। वे इसके लिए तैयार हैं। लखनऊ में शूटिंग भी अपेक्षाकृत आसान है। हां, कानपुर व इलाहाबाद चलें जाएं तो वहां हनक तो है ही। फिर भी मुझे अपना प्रदेश बहुत प्यारा है। मुंबई तो मेरे लिए आज भी ऑफिस सरीखा ही है। मेरा बस चले तो मैं आज, अभी मुंबई छोड़ दूं। मुझे यहां आए 22 साल हो गए हैं। मैं 1993 में आया था, पर मैं इस शहर में खुद को बूढ़ा होते नहीं देखना चाहता हूं। मुझे मुंबई की सड़कें तक मालूम नहीं है। मुंबई बहुत बड़ा ऑफिस है, पर घर नहीं है। वैसे भी यहां शूटिंग तो होती नहीं। मेरा तो मानना है कि फिल्म जगत का विकेंद्रीकरण हो।’

वे बताते हैं, ‘इस फिल्म में मेरे लकी मैस्कट जिमी शेरगिल व माही गिल नहीं हैं। फिल्म का टाइटिल भी काल्पनिक है। इस नाम से कोई टॉकीज इलाहाबाद में नहीं है। फिल्म में मेरे नायक-नायिका मिलन टॉकीज नामक सिनेमाघर में मिलते हैं। वे बेसिकली स्थानीय फिल्म निर्माता हैं, जो बेहद कम बजट व सीमित संसाधनों में फिल्में बनाते हैं। इमरान का किरदार पायरेसी कराने में माहिर है। मैं लगातार जिस किस्म की फिल्में बना रहा हूं, लोग उसे तिग्मांशु टाइप सिनेमा करार देने लगे हैं। मैं डंके की चोट पर कहना चाहूंगा कि मेरी फिल्में सिंगल स्क्रीन नॉस्टैल्जिया हैं। ‘मिलन टॉकीज’ उसी मिजाज की है। मल्टीप्लेक्स कल्चर के चलते हर शहर के सिनेमाहॉल एक से हो गए हैं। सिंगल स्क्रीन विलुप्तप्राय हैं। लखनऊ के मेफेयर सिनेमाहॉल में वल्र्ड फिल्में दिखाई जाती थीं। वे आज कहीं नहीं है। मुझे बड़ी तकलीफ भी होती है।’

वे कहते हैं, ‘यह अच्छी चीज है कि अब कहानियां हिंदी पट्टी की सैर पर हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि मुंबई के फिल्मी परिवारों का वर्चस्व दरका है। अनुराग कश्यप, अनुराग बसु, इम्तियाज अली या मैं छोटे शहरों से हैं। हम सबका कोई भी माई-बाप तो फिल्मों में नहीं था। हम अपने अनुभव, पर्सेप्शन व जर्नी को पेश कर रहे हैं, तभी कहानियां मेट्रो, बहुमंजिला इमारतों की जगह छोटे शहरों, इलाकों की धूल-मिट्टी में लिपट रही हैं। आज के दौर में एक और चीज अच्छी हो रही है कि लोग डायरेक्टर के नाम पर भी फिल्में देखने आ रहे हैं। पहले सितारों के नाम पर भीड़ जुटती थी।’

आगे की तैयारियों के बारे में वे बताते हैं, ‘कई रियल लाइफ किरदार जेहन में हैं, जिन पर बायोपिक बनाना चाहूंगा। मीना कुमारी पर बात चल रही है। के. आसिफ पर काम करना चाहूंगा। अभी एक बायोपिक पर काम शुरू किया है। उसका नायक पान सिंह तोमर जैसा अनकहा, अनसुना है। यह द्वितीय विश्वयुद्ध की कहानी है, जब भारतीय सिपाहियों के लिए इटली में बंदीगृह बनाया गया था। उस कारागार से तीन एशियाई जवान निकलने में कामयाब रहे। वे सूबेदार रैंक के थे। पीछे से गोली चली और एक जवान का पांव जख्मी हो गया। उसे रुकना पड़ा। बाकी दो ने सरेंडर कर दिया। बाद में दोनों अफसर कैसे पैदल इटली से हिंदुस्तान तक पहुंचे, मेरी फिल्म उस बारे में होगी। दिलचस्प मामला यह था कि दोनों में एक हिंदुस्तान आया और दूसरा पाकिस्तान गया। जो हिंदुस्तान पहुंचे वे थे जनरल मानेकशॉ। उनकी जर्नी को मैं दिखाऊंगा।’

अमित कर्ण

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