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जॉन ने दिखाई है सच्चाई की झलक

मुंबई। जॉन अब्राहम बेहद मृदुभाषी और सुलझे हुए निर्माता हैं। दर्शकों के सामने यह बात उन्होंने 'विकी डोनर' से प्रूव कर दी है। न ही कोई बड़बोलापन और ना ही बयानबाजी के बीच मीडिया अटेंशन की ललक। अपने प्रोडक्शन हाउस जे ए एंटरटेनमेंट, को-प्रोड्यूसर शील कुमार और निर्देशक शूजीत

By Edited By: Published: Thu, 22 Aug 2013 01:54 PM (IST)Updated: Thu, 22 Aug 2013 01:56 PM (IST)
जॉन ने दिखाई है सच्चाई की झलक

मुंबई। जॉन अब्राहम बेहद मृदुभाषी और सुलझे हुए निर्माता हैं। दर्शकों के सामने यह बात उन्होंने 'विकी डोनर' से प्रूव कर दी है। न ही कोई बड़बोलापन और ना ही बयानबाजी के बीच मीडिया अटेंशन की ललक। अपने प्रोडक्शन हाउस जे ए एंटरटेनमेंट, को-प्रोड्यूसर शील कुमार और निर्देशक शूजीत सरकार के साथ अब वह लेकर आए हैं 'मद्रास कैफे'। इस संदर्भ में जॉन से बातचीत के अंश:

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पढ़ें : रिलीज से ठीक पहले विवादों में फंसी मद्रास कैफे

आपके प्रोडक्शन हाउस की अब तक सबसे बड़ी फिल्म है यह?

निश्चित तौर पर ऐसा ही है। हम करीब बीस सालों से श्रीलंका तमिल वॉर और वहां मारे जा रहे निर्दोष नागरिकों की खबरें सुनते रहे हैं। ऐसे में हमारे लिए सबसे बड़ा मसला था कि किस स्केल पर इस फिल्म को शूट करें और तटस्थ रहकर कैसे दिखाएं? यह भी सोचना था कि किसी की भावनाएं न आहत हों।

प्रोडक्शन के लेवल पर क्या चैलेंज रहा?

बहुत चैलेंज रहा। नब्बे के दशक के जाफना शहर को क्रिएट करना अपने आपमें एक चैलेंज था।

पढ़ें: दमदार फिल्मों का वादा: जॉन अब्राहमआपने हालिया एक इवेंट में इसे इंडिया की 'आर्गो' कहा था?

यहां मैं अपनी गलती मानता हूं कि फिल्म को लेकर मैं अति आत्मविश्वासी हो गया था और यह बोल गया। गौरतलब है कि बेन अफ्लेक निर्देशित 'आर्गो' को कई ऑस्कर पुरस्कार मिले थे। यह फिल्म 'जेएफके' भी हो सकती थी, यह फिल्म 'सीरियाना' भी हो सकती थी और यह फिल्म 'जीरो डार्क थर्टी' भी हो सकती थी, लेकिन हमने एक छोटी फिल्म दिल से बनाई है। यह एक कंप्लीट इंडियन फिल्म है। जिसे आम दर्शक को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

यह फिल्म पिछली सदी के सबसे बड़े आर्मी ऑपरेशंस में से एक की कहानी बयां करती है। ऑपरेशंस हैं तो इंटेंसिटी होगी। आपने क्या नया किया है अभिनय के लिए?

जिस तरह से नब्बे के दशक में इंटेलिजेंस के लोगों को अलग-अलग देशों में कॉम्बैट ऑपरेशंस के लिए भेजा जाता था, वह बहुत ही रिस्की और जान पर खेलने वाली बाती होती थी। इस फिल्म में भी हमने ऐसा ही काम करने की कोशिश की है। इंडियन ऑडियंस को अब अंडर एस्टीमेट करने का दौर जाता रहा है। 'विकी डोनर' भी उन्होंने पसंद की है और 'पान सिंह तोमर' भी। मैं अपने दर्शकों से कहना चाहूंगा जिन लोगों ने मुझे 'शूट आउट एट वडाला' में पसंद किया था, वे मुझे इस फिल्म में नहीं पसंद करेंगे, क्योंकि इसमें एक नया जॉन अब्राहम उनके सामने होगा।

क्या आम दर्शकों की राजनीतिक चेतना इतनी है कि वे एक राजनीतिक और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर बनी फिल्म का हिस्सा बनना चाहेंगे?

मैं सभी राजनीतिक मसलों का गंभीरता से अध्ययन करता रहा हूं फिर चाहे वो नक्सलवाद हो या फिर नॉर्थ ईस्ट का अलगाववाद। श्रीलंका की समस्या को भी मैंने महसूस किया है, लेकिन दुर्भाग्य की बात है हमारे यहां युवा अवेयर नहीं हैं। उन्हें किसी राजनीतिक मसले की समझ नहीं है। इसके लिए पॉलिसी मेकर्स जिम्मेदार हैं, क्योंकि हमारे इतिहास की किताबों में आजादी के बाद की किसी घटना का उल्लेख नहीं है। न इंदिरा गांधी का और न ही इमरजेंसी का और ना ही हमने जितने युद्ध लड़े उनका। मेरी दिली तमन्ना है कि वो दर्शक भी इस फिल्म को देखें जो 'शूटआउट एट वडाला' और 'देसी बॉयज' को देखने सिनेमाघरों में गए थे। मैं चाहता हूं कि वे सिनेमाघरों से बाहर निकले कॉफी टेबल पर बैठकर कहें कि कितने दुख और अफसोस की बात है कि देश में इतनी बड़ी घटना हुई थी और हमको कुछ भी पता नहीं है।

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