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उम्मीदें जिंदा रखती हैं - अनुपम खेर

‘सारांश’ से फिल्मी पारी का आगाज करने वाले अनुपम खेर ने बॉलीवुड में 31 साल पूरे किए हैं। नाकामयाबी से सीख लेने की सलाह देते अनुपम आज भी फिल्म, नाटक, टीवी और लेखन में व्यस्त हैं। उनका मानना है कि अगर आपने अपने अंदर की ताकत को पहचान लिया तो

By Monika SharmaEdited By: Published: Sun, 13 Sep 2015 01:01 PM (IST)Updated: Sun, 13 Sep 2015 01:20 PM (IST)
उम्मीदें जिंदा रखती हैं - अनुपम खेर

‘सारांश’ से फिल्मी पारी का आगाज करने वाले अनुपम खेर ने बॉलीवुड में 31 साल पूरे किए हैं। नाकामयाबी से सीख लेने की सलाह देते अनुपम आज भी फिल्म, नाटक, टीवी और लेखन में व्यस्त हैं। उनका मानना है कि अगर आपने अपने अंदर की ताकत को पहचान लिया तो आप कुछ भी कर सकते हैं। उन्होंने यशा माथुर से बांटे जिंदगी के राज...

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शुरुआती दौर में आप नाकामयाब रहे। आपने अपनी असफलताओं को किस तरह से लिया?
मैं असफलता को ज्यादा प्राथमिकता देता हूं। मैंने अपनी जिंदगी में नाकामयाबी से ज्यादा सीखा है, कामयाबी से कम। मेरा खुद का मानना है कि सक्सेस वन डाइमेंशनल है। बोरिंग है। अगर नाकामयाबी को इंसान सही तरीके से ले तो वह दो दिशाओं में आगे बढ़ता है। एक तो अपने काम में इंप्रूव करता है और दूसरे, इंसान के तौर पर भी बेहतर बनता है। लेकिन जैसे-जैसे हमारी सोसाइटी मॉडर्न हुई हमने असफलता को एक ‘टैबू’ बना दिया है। हमारे जेहन में लोगों ने नाकामयाबी का डर डाल दिया है। लोग आपकी खामियों से आपको डराते हैं। देखा जाए तो ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसने असफलताओं का सामना न किया हो। जितने भी महान लोग हुए हैं वे हर कदम सफल नहीं रहे हैं, उन्होंने नाकामयाबी को अपनी ताकत बनाया। वे हारे नहीं, बल्कि और अधिक ऊर्जा से अपने मिशन पर आगे बढ़े। आप गांधीजी को ले लीजिए, चैपलिन, बिल गेट्स की बात कीजिए या फिर धीरूभाई अंबानी की जिंदगी पर नजर डालिए। इन सबने असफलताएं देखी हैं। जिन वैज्ञानिकों ने आविष्कार किए या जिन लेखकों ने नॉवेल लिखे, उन्होंने भी तो जिंदगी में संघर्ष किए हैं।

क्या आप ‘होप’ बेचते हैं?
उम्मीदें लाइफ को बांधकर रखती हैं। जिस दिन आप उम्मीद करना बंद कर देंगे, उस दिन आप जीना बंद कर देंगे। मुझे लगता है कि आशावादी होना आसान है और मुश्किल भी है। आसान इसलिए क्योंकि यह जिंदगी चलाने का आसान तरीका है। उम्मीदें जिंदा होती हैं तो आप दुखी कम होते हैं। मैं जिस भी इंसान से मिलता हूं उसे उम्मीद ही देता हूं। जब मेरे पास काम नहीं था, उस समय भी मैंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। मैं समझता हूं कि आप किसी को उम्मीद देते हैं और दुख नहीं देते हैं तो वह आपको ज्यादा दिन तक याद रखता है।

‘कुछ भी हो सकता है’ का पहला सीजन हिट रहा। इस कार्यक्रम में आप ऐसा क्या खास मानते हैं जो दर्शक इसे पसंद कर रहे हैं?
यह प्रोग्राम मनोरंजक होने के साथ इंस्पिरेशनल भी है। लोगों को प्रेरणा देता है। पॉजिटिव है। इसमें ह्यूमर है और सबसे बड़ी बात यह कि इसमें सेलिब्रिटीज के कुछ ऐसे पहलू सुनने को मिलते हैं, जो आमतौर पर बाकी साक्षात्कारों में, उनकी जीवनियों में या फिर उनकी जुबानी भी सुनने को नहीं मिले हैं। मुझे लगता है कि दूसरा सीजन भी काफी पसंद किया जाएगा। इस सीजन में काजोल, वहीदा रहमान, आशा पारेख, परेश रावल, बोमन ईरानी, इरफान खान, मनोज वाजपेयी, सानिया मिर्जा, सोनू निगम और तब्बू जैसी सेलिब्रिटीज अपने मन की बात करेंगे।

इन दिनों आपके नाटक के भी चर्चे हैं। क्या हाउसफुल हो रहा है यह नाटक?
हमारा नाटक ‘मेरा वो मतलब नहीं था’ बहुत कामयाब हो रहा है। इसे नाट्यप्रेमियों का बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिला है। कोलकाता में दस दिन पहले हाउसफुल हो गया था। चेन्नई में आठ दिन पहले। अमेरिका में हुए कई शोज भी हाउसफुल रहे। इसे राकेश बेदी ने लिखा है। दिल्ली के चांदनी चौक की कहानी है इसमें। चांदनी चौक का एक लड़का और लड़की आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं। किसी कारण से उनकी शादी नहीं हो पाती है। जब पैंतीस साल बाद वह महिला हमेशा के लिए विदेश जा रही होती है तो चांदनी चौक आकर उस आदमी से मिलना चाहती है और जानना चाहती है कि आखिर ऐसा क्या हुआ था कि उनकी शादी नहीं हुई। वह देश छोड़ने से पहले अपने दिल का बोझ हल्का करना चाहती है। यह रिश्तों पर कहानी है। इसमें पहली मोहब्बत और मां-बाप के रिलेशन का किस्सा है। इसमें ह्यूमर और टियर्स दोनों हैं, इसलिए ये लोगों को काफी पसंद आ रहा है।

फिल्में, टीवी और नाटक। इतना कुछ कैसे कर पाते हैं आप?
मुझे लगता है कि बिजी आदमी के पास बहुत टाइम होता है। जो बिजी नहीं होता है वही कहता है कि मेरे पास टाइम नहीं है। छह घंटे ही तो सोना होता है, बाकी समय तो काम ही करते हैं। ...और फिर आपको जो चीज पसंद आए उसे करने में आदमी थकता नहीं। हां, जो चीज पसंद न हो, वह थका सकती है।

आपने अपनी किताब ‘द बेस्ट थिंग अबाउट यू इज यू’ में खुद की ताकत को पहचानने की बात कही है। इसको लेकर आपकी सोच क्या है?
मैं मानता हूं कि जो आपकी सबसे अच्छी चीज है, वह आपके अंदर है। जो आपकी स्ट्रेंथ है उसे आपको खुद ही पाना पड़ता है। आप खुद के सहारे ही आगे बढ़ सकते हैं। आपको अपनी ताकत खुद से ही लेनी पड़ेगी। खुद को ही ताकतवर बनाना होगा। मुझे लगता है कि सबसे आसान और सबसे मुश्किल काम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप होना है। अपने व्यक्तित्व को अपने हिसाब से जीते हैं तो अपनी पर्सनैलिटी बनाए रखना आसान हो जाता है। अगर मैं कोशिश करूंगा कुछ और बनने की, तो न तो मैं खुद की तरह ही रह पाऊंगा और न ही किसी और की तरह बन पाऊंगा। मेरे विचार से पर्सनैलिटी का मतलब होता है कि आप जो भी हैं, उसी में खुश महसूस करें।

अपनी पहली फिल्म ‘सारांश’ में झुर्रियों वाले बूढ़े व्यक्ति की भूमिका को क्यों स्वीकारा, जबकि आप उस समय युवा थे?
मुझे भूख थी कुछ कर गुजरने की और कुछ करके दिखाने का वह मेरा आखिरी चांस था। जितनी मेरी भूख थी और जितनी मेरी ह्ययूमिलिएशन थी, वह सब मैंने उस किरदार में डाल दी। मेरे लिए वह कमाल का रोल था। चूंकि मैं थियेटर से हूं इसलिए इस बात से कोई परेशानी नहीं थी कि मैं 28 साल का हूं और 65 साल के बुड्ढे का रोल कैसे करूंगा? अगर आज मैं 31 साल बाद आपसे बात कर रहा हूं तो इसीलिए कि मेरी पहली फिल्म ‘सारांश’ है। मुझे सशक्त बनाने में उसका बहुत बड़ा हाथ है।

आज के युवाओं को सफलता के लिए क्या मंत्र देना चाहेंगे?
हार्ड वर्क और ऑनेस्टी का कोई विकल्प नहीं है। अगर आपको ऐसी सफलता चाहिए, जो बीस-पच्चीस, तीस-चालीस साल तक चले तो फिर हार्ड वर्क करना ही पड़ेगा और सच्चाई से जीना ही पड़ेगा। कहने में ये बातें सिद्धांतवादी जरूर लगती हैं लेकिन कड़ी मेहनत और सच्चाई का वाकई में कोई विकल्प नहीं है। सभी की जिंदगी में संघर्ष और मुश्किलें होती हैं। अपनी मेहनत और ईमानदारी से हम उस दौर से निकलते हैं और अपनी मंजिल को पाते हैं। हमें इस यात्रा को याद रखना बहुत जरूरी है।

आजाद भारत के यूथ में आप ऐसी कौन सी खासियत देखते हैं, जो आपको प्रभावित करती है?
आज की जो युवा पीढ़ी है वह हमारी पीढ़ी से ज्यादा ईमानदार है। हमारी पीढ़ी या हमसे पहले की पीढ़ी पोस्ट इंडिपेंडेंस और प्री-इंडिपेंडेंस ब्लूज की शिकार रही। हमारे पिताजी और दादाजी ने हमें डिप्लोमेसी सिखाई थी। वे कहते थे कि बेटे मन की बात किसी से मत बोला करो, लेकिन जो आज का यूथ है वह आजाद भारत में पैदा हुआ है और उसे इस तरह की कोई परेशानी नहीं है। युवाओं के ऐसे रवैये से हमें कभी-कभी ऐसा लगता है कि वे बदतमीजी से बात कर रहे हैं लेकिन वे बदतमीज नहीं है बल्कि साफ और दो-टूक बात करते हैं।

ईमानदार तो है यूथ और उसमें कुछ कर गुजरने की चाहत भी है, लेकिन उसमें जो बेचैनी है उसे आप किस तरह से देखते हैं?
बेचैनी तो क्रिएटिव होती है। मैं बेचैन था तभी बॉलीवुड में 31 साल गुजार पाया हूं। अगर चैन से रहता तो फिर चैन ही करता।

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