कोयला भी है फिल्म का एक किरदार
मेरे ब्रदर की दुल्हन' के बाद बतौर निर्देशक अली अब्बास जफर की दूसरी फिल्म है 'गुंडे'। अब्बास के मुताबिक इस फिल्म में दिखेगी सातवें दशक के सिनेमा की खासियतें रोमांटिक फिल्मों से अचानक विशुद्ध एक्शन फिल्म की ओर कैसे मुड़ गए? दरअसल मेरे पास यह कहानी 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' के दौरान भी थी, पर उस वक्त मैं नया था। साथ ही इसे बन
मेरे ब्रदर की दुल्हन' के बाद बतौर निर्देशक अली अब्बास जफर की दूसरी फिल्म है 'गुंडे'। अब्बास के मुताबिक इस फिल्म में दिखेगी सातवें दशक के सिनेमा की खासियतें
रोमांटिक फिल्मों से अचानक विशुद्ध
एक्शन फिल्म की ओर कैसे मुड़ गए?
दरअसल मेरे पास यह कहानी 'मेरे ब्रदर की दुल्हन' के दौरान भी थी, पर उस वक्त मैं नया था। साथ ही इसे बनाने के लिए मुझे बड़े बजट की दरकार थी। नया होने के चलते मुझ पर वह दांव लगाना जोखिम भरा
होता। लिहाजा मैंने अपनी पहली फिल्म से खुद को प्रूव किया, फिर 'गुंडे' की कहानी आदित्य और यश जी को सुनाई। यश चोपड़ा की यह आखिरी नैरेशन थी। उन्हें इसकी
कहानी बेहद पसंद आई। यह फिल्म हमने उन्हें डेडिकेट की है, क्योंकि सातवें दशक में वह जिस तरह की फिल्में बना रहे थे, 'गुंडे' में भी वैसा ही अक्स है।
..यानी इस कमर्शियल फिल्म में भी
सशक्त कहानी है?
जी हां। सातवें दशक की मसाला फिल्मों की वही खासियत थी। कुछ भी ठूंसा नहीं जाता था। उसकी वजह थी कि उन दिनों बेरोजगारी चरम पर थी। श्रमिक और मालिकों के दरम्यान
संघर्ष होता था, जिसने एंग्री यंग मैन देना शुरू किया। उन दिनों के लोग मुद्दे विशेष पर स्ट्रॉन्ग स्टैंड लेते थे। तभी 'काला पत्थर' और 'दीवार' के नायकों के पास कदम उठाने का एक निश्चित कारण होता था, जो अब नदारद है।
प्रैक्टिल अप्रोच के नाम पर सिर्फ गोलमोल बातें होती हैं। इन दिनों मनोरंजन के नाम पर मसाला फिल्मों में आइटम नंबर, स्पेशल एपियरेंस डाले
जाते हैं। 'गुंडे' में ऐसा नहीं है। फिल्म के दोनों नायक एंटी-इस्टैब्लिशमेंट सोच व स्वभाव को परिलक्षित करते हैं। यश जी ने कहानी सुनी तो उन्होंने मुझसे कहा भी कि तुम तो मेरी तरह की
पिक्चर बना रहे हो। मेरे लिए वह गर्व की बात थी, क्योंकि इस फिल्म का एक बड़ा अध्याय कोयले को समेटता है। वैसा ही कुछ उनकी फिल्म 'काला पत्थर' में था।
.तो उन्होंने अपनी यादें भी साझा कीं?
उन्होंने बताया कि कैसे 'काला पत्थर' के सेट डिजाइन करने के लिए हॉलीवुड से तकनीशियन आए थे। आप असल कोयला खदान के पास
शूट नहीं कर सकते, क्योंकि वहां से गैस रिसती रहती है। हवा का दवाब कम रहता है। हमारे आर्ट डायरेक्टर रजत पोद्दार ने रानीगंज जैसा माहौल सेट पर तैयार किया।
'कोयला' को आपने मेटाफर के तौर पर इस्तेमाल किया है?
जी हां। आप कोयला खदान में काम करें, तो हाथ और जिस्म काला पड़ जाता है। ठीक वैसे ही आप गलत काम करें, तो आप की रूह तक
काली पड़ जाती है। दूसरी चीज कि उन दिनों कोयले की चोरी संगठित व संस्थागत पेशा बन चुका था। भटके हुए युवा उस काम को अंजाम
देते थे और पूरी प्रणाली को वैगन वेकिंग कहा जाता था। बिक्रम (रणवीर सिंह) और बाला (अर्जुन कपूर) उस भटकी हुई जमात को रिप्रजेंट करते हैं।
फिल्म की नायिका नंदिता किसे रिप्रजेंट करती है?
उन दिनों कोलकाता में गरीब और अमीर की खाई काफी गहरी थी। एक सामंतवादी सोच वाली जमात थी, जिसके लिए कोलकाता में काफी आला दर्जे के कैबरे हुए करते थे। वहां
सिर्फ कथित एलीट क्लास को ही जाने की अनुमति थी। उनमें पूरी तरह से ब्रिटिश हैंगओवर था। नंदिता वैसे ही कैबरे में डांस करने वाली युवती है।
फिल्म की अपील को हम यूनिवर्सल कह सकते हैं?
जी हां। यह 1971 में बांग्लादेश से आए शरणार्थियों का दर्द भी बयां करती है। लिहाजा इससे पाकिस्तानी शरणार्थी हों या फिर चेचेन्या के, सब जुड़ाव महसूस करेंगे। यह फिल्म
सवाल खड़े करती है कि जब धूप, धरती और हवा-पानी हमारे साथ भेदभाव नहीं करती तो हम आपस में क्यों कास्ट, क्त्रीड और रेलिजन
के नाम पर भेदभाव करते हैं। आपस में द्वेष पालते हैं।
अमित कर्ण