Interview: फिल्मों में हीरो बनने आए थे जाकिर हुसैन, विलेन बनकर बनाई अपनी खास पहचान
स्क्रीन पर अक्सर खलनायक या कॉमेडी किरदारों में नजर आने वाले जाकिर हुसैन अब अपनी इस स्थापित छवि से अलग कुछ नए किरदारों के साथ प्रयोग करना चाहते हैं। करीब ढाई दशक से हिंदी सिनेमा में सक्रिय जाकिर को लगातार नकारात्मक किरदार निभाने से कोई ऐतराज नहीं है।
दीपेश पांडेय, मुंबई'। स्क्रीन पर अक्सर खलनायक या कॉमेडी किरदारों में नजर आने वाले जाकिर हुसैन अब अपनी इस स्थापित छवि से अलग कुछ नए किरदारों के साथ प्रयोग करना चाहते हैं। करीब ढाई दशक से हिंदी सिनेमा में सक्रिय जाकिर को लगातार नकारात्मक किरदार निभाने से कोई ऐतराज नहीं है। जाकिर आगामी दिनों में जॉन अब्राहम अभिनीत सत्यमेव जयते 2 और कमल हासन अभिनीत इंडियन 2 जैसी फिल्मों में नजर आएंगे।
सत्यमेव जयते 2 में भी आपका चिर-परिचित अंदाज है या कुछ नया प्रयोग कर रहे हैं?
इस फिल्म में भी मैं अपने चिर-परिचित अंदाज में खलनायक की भूमिका निभा रहा हूं। लोग मुझसे यही चीजें कराना चाहते हैं। इस फिल्म की ज्यादातर हिस्सों की शूटिंग लखनऊ में हो चुकी है। अब मुंबई में सिर्फ कुछ दिनों की इनडोर शूटिंग बची है। इसके अलावा हाल ही में वेब सीरीज ठुल्ले की मनाली में शूटिंग करके आया हूं।
प्रोजेक्ट के चुनाव में किस चीज को प्राथमिकता देते हैं?
मैं देखता हूं कि अभी तक किस निर्देशक या निर्माता के साथ काम नहीं किया है, उनके साथ करता हूं। मुझे मिलने वाले प्रस्तावों में नब्बे फीसदी प्रस्ताव निगेटिव किरदारों के होते हैं। अब पहले की तरह खलनायक तो रहे नहीं। मुझे एक खास वर्ग में रख दिया गया है, इसे बदलने में वक्त तो लगेगा ही। हालांकि, ऐसे किरदार भी किसी न किसी को तो करना ही पड़ेगा, इसलिए मुझे नकारात्मक किरदार निभाने से कोई ऐतराज नहीं है। कोशिश तो हमेशा और अच्छा किरदार पाने की होती है।
और अच्छा किरदार किसे मानते हैं?
(सोचकर) और अच्छा का मतलब कोई ऐसा किरदार जो खलनायक या कॉमेडी से हटकर हो। एक सोच विकसित हो गई है कि मैं सिर्फ खलनायक या कॉमेडी किरदार निभा सकता हूं। अब केंद्रीय किरदारों के लिए कोशिश जारी है। हर कलाकार केंद्रीय किरदार निभाना चाहता है। एक ही बार मौका मिले, लेकिन केंद्रीय किरदार निभाने का मौका मिले तो सही। उसी की कोशिश है।
इंडस्ट्री में किन ख्वाहिशों के साथ आए थे?
हमेशा अभिनेता बनने की ही ख्वाहिश रही है। फिल्मों से मेरा परिचय टीवी के जरिए उस दौर में हुआ था, जब टीवी पर सप्ताह में इक्का-दुक्का फिल्में आया करती थी। उस वक्त मुझे लगता था कि फिल्में तो बाम्बे में बनती हैं और मैं दिल्ली में रहता हूं कैसे जाउंगा। फिर थिएटर की तरफ रुख किया और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) से जुड़ा। एनएसडी में नसीरुद्दीन शाह मेरे सीनियर ही मेरे आदर्श बने। उन्हीं के विचारों पर चलते हुए मुंबई आने के बाद भी हमेशा बेहतर अभिनेता ही बनने की कोशिश की, कभी हीरो बनने का ख्याल नहीं आया।
अपनी किन फिल्मों को बार-बार देख सकते हैं?
सरकार, जॉनी गद्दार, शागिर्द और अंधाधुन मेरी कुछ ऐसी फिल्में हैं, जिन्हें मैं बिना किसी परेशानी के बार-बार देख सकता हूं। सरकार मेरे दिल के काफी करीब है, क्योंकि इस फिल्म से लोगों ने जाना था कि जाकिर नाम का भी एक अभिनेता आया है। इसी से मुझे पहचान मिली और जो आपकी पहचान बना दे, वही तो दिल के सबसे करीब होती है।
आपकी कुछ ऐसी भी फिल्में रही जो दर्शकों तक नहीं पहुंच पाई, क्या उन फिल्मों को लेकर कोई मलाल है?
ऐसी फिल्मों में वक्त और पैसा दोनों खराब करने का अफसोस तो होता ही है। दर्शकों तक फिल्म न पहुंच पाने की कई वजहें होती हैं। फिल्म रिलीज करना कलाकारों के हाथ में नहीं होता वह तो निर्माता और निर्देशक का फैसला होता है। अगर मैं उनसे रिलीज करने के लिए कहूं और वह जवाब दें कि आप ही कर के दिखाइए, फिर मैं कैसे करूंगा। मेरे वश में डबिंग से लेकर प्रमोशन तक जितनी भी चीजें होती हैं वह सब करता हूं।
वक्त के साथ क्या अपनी अभिनय शैली में कोई बदलाव किया?
स्क्रिप्ट की जरूरत के अनुसार शैली में थोड़ा-बहुत बदलाव कर लेता हूं। बाकी जीवन की भावनाएं तो हमेशा वही रहती हैं। इंसान दुखी होता है तो आंसू आते हैं, खुश होने पर हंसी आती है। यह कुछ आधारभूत चीजें हैं, इनमें क्या बदलाव करना।