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बिमल रॉय बर्थडे: अतीत यादगार, भविष्य की सोच का फिल्मकार

आज के दौर के फिल्मकार जिन बातों का गर्व से ढिंढोरा पीटते हैं, बिमल रॉय ने पांच दशक पहले उसे काम को प्राथमिकता बना लिया था। फिल्मों के कॉन्ट्रेक्ट से लेकर बाउंड स्क्रिप्ट तक।

By Manoj KhadilkarEdited By: Published: Mon, 08 Jan 2018 12:09 AM (IST)Updated: Thu, 12 Jul 2018 09:13 AM (IST)
बिमल रॉय बर्थडे: अतीत यादगार, भविष्य की सोच का फिल्मकार
बिमल रॉय बर्थडे: अतीत यादगार, भविष्य की सोच का फिल्मकार

अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। कुछ अपनी कहानी छोड़ जा...कुछ तो निशानी छोड़ जा....

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                             कौन कहे फिर इस ओर तू..... आये न आये।

12 जुलाई को बिमल रॉय का बर्थडे होता है! एक कमाल की ज़िंदगी जीने के बाद 8 जनवरी 1965 को वो जो गए तो फिर आये ही नहीं। बस उनकी यादें हैं, जो अक्सर आती रहती हैं। ख़ासकर तब जब समाज के लाचार आदमी की आवाज़ बनना हो, तब  जब प्रेम के सौंदर्य में सिर्फ़ सम्बोधन नहीं भावनाओं के शालीन चुप्पी भी और तब भी जब सिर पर बॉक्स ऑफ़िस कमाई का बुखार नहीं सामाजिक सारोकार को निभाने की ज़िम्मेदारी हो।

उन्हें पैसे मिलते। फिल्म से कमाई होती  तो वह सपने देखने लगते कि अगली फिल्म की कहानी क्या होगी। अपने ठौर-ठिकाने की तलाश की जगह वह कहानियां टटोलने में लग जाते। उनकी कहानियों में जोर-जोर से बजने वाले लाउडस्पीकर नहीं थे। चकाचौंध भी नहीं थी लेकिन फिर भी उस दौर की ग्लैमरस अभिनेत्रियां हर हाल में अपनी क्रेडिट लिस्ट में इस जादूगर फिल्मकार का नाम जोड़ लेना चाहती थीं। मधुबाला से लेकर वहीदा रहमान और शर्मिला टैगोर जैसी हसीन अभिनेत्रियां इस बात का ग़म खाती थीं कि कभी उन्हें इस शख्यिसत के कैमरे के सामने अपना रुआब दिखाने का मौका नहीं मिला। वर्तमान दौर में जहां निर्देशक मतलबी सोच के नीचे इतने दब जाते हैं कि उन्हें अपने मुनाफे के अलावा कुछ नहीं दिखता। सेल्फी में प्यार दर्शाने वाले, ट्विटर पर 140 वर्ड्स में अपने सारे इमोशंस की नुमाईश करने वाले उस दौर की मोहब्बत और सोहबत के ख़ुमार को क्या समझेंगे, कि जब भी इस शख्स को  नये मौके मिले, वह अपने शार्गिदों को साथ लेकर बढ़ना नहीं भूले। चूंकि वह दौर सेल्फी नहीं संवेदनाओं का था और उसी दौर में ऐसे शख़्स ने जिसने जन्म लिया।

 

जमीं पर पैर रखा तो जमींदारों की धरती पर। मगर ठाठ-बाट से रहने और अकड़ कर चलने की बजाय दिल से हमेशा आह निकली उन निचले वर्ग के किसानों, मजदूरों के लिए। ताउम्र खड़े रहे अपने सिनेमाई आंदोलन के साथ। तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद हाथ में कैमरा मिला तो रौंधा और झकझोरा उन मठाधीशों को ही, जो शोषण करना अपनी शान समझते थे। वह जब भी बोले कैमरे से बोले। शायद ही किसी ने परिकल्पना भी की होगी कि अपनी फिल्मों से बिना भाषणबाजी, लाग-लपेट करने वाला वह शख्स असल में मैन आॅफ फ्यू वर्ड्स है। तभी तो दिलीप कुमार जैसे सुपरस्टार, जिन्हें संभालना उस दौर में किसी निर्देशक के हाथों में नहीं थी, लेकिन उनके लिए भी इस शख्स की बोलीं-बातें पत्थर की लकीर हो जाया करती थी। उनका सिनेमा सालों में नहीं, दशकों में याद किया जाता रहेगा। बंदिनी, सुजाता, मधुमती, देवदास, दो बीघा जमीन जैसी फिल्मों को बनाने वाले ये उस दिग्गज फिल्मकार की कहानी है , जिसे हम साइलेंट डायरेक्टर ऑफ़ इंडियन सिनेमा कह सकते हैं। नाम है बिमल रॉय।

आठ जनवरी यानि सोमवार को बिमल रॉय की 52वीं पुण्यतिथि है। साल 1909 में बांग्लादेश के ढाका में जन्में हिंदीं सिनेमा के इस बेहतरीन फिल्मकार ने सिनेमा को जो सौगात दी है, वो कभी भुलाये से भी नहीं भूली जा सकती। बिमल रॉय की 52वीं पुण्यतिथि पर उनकी बेटी रिंकी भट्टाचार्य से हुई बातचीत और बिमल रॉय  पर लिखी किताबों के माध्यम से उनकी फिल्मों और जीवन से जुड़े कुछ किस्सों की अनसुने किस्सों की जानकारी मिली है , जिसे इस लेख के जरिये हम आप तक पहुंचा रहे हैं।

जमींदार परिवार में पहला कदम, मगर दिल में बसा रहा शंभू महतो

जब 1953 में फिल्म 'दो बीघा जमीन' आयी, तो उस वक्त शायद ही लोगों के ध्यान में यह बात आयी होगी कि एक ऐसा निर्देशक, जिसका जन्म जमींदारों के खानदान में हुआ, वह दिल से दर्द तो शंभू महतो का महसूस करता है, जो मात्र 300 रूपये का कर चुकाने के लिए ताउम्र लड़ता रहा। दरअसल, यह बिमल रॉय सिनेमा की खासियत रही कि उनकी फिल्में हुक्मरानों के हमेशा विपरीत ही खड़ी रहीं। रिंकी भट्टाचार्य कहती हैं " बिमल दा ने बचपन से अपने आसपास के जो हालात देखे, उन्होंने उस दौर में मजदूरों का कष्ट को देखा। महसूस किया। किसानों का शोषण होते देखा। वो विजनरी थे। उनके ज़हन में कहीं न कहीं वो बातें रह गयी होंगी। यही वजह है कि उन्होंने हमेशा अपनी फिल्मों में जमींदारों को या तो नेगेटिव या ग्रे शेड में दिखाया। गौर करें तो 'देवदास' में देव के पिता की वह अकड़, वह रुआब जो निचले वर्ग की पारो को देख कर आता है। परख फिल्म में भी जमींदार की वह कहानी। 'बिराज बहू' का जमींदार किरदार उनकी इसी सोच का कमाल था। यहां तक कि मधुमती में भी जमींदार को लेकर उन्होंने वही अप्रोच रखा था।"

 

... और निरुपा रॉय फिर से जी उठीं

रिंकी भट्टाचार्य , दो बीघा जमीन की कहानी से जुड़ी एक रोचक कहानी सुनती हैं। बताती हैं कि इस फिल्म का क्लाइमेक्स दो बार बदला गया। वह भी रिलीज के बाद। यह वह दौर था जब सिनेमा देख कर दर्शक थियेटर से बाहर आते तो उनकी आंखें नम हुआ करती थीं। दो बीघा जमीन का यह प्रभाव रहा कि निरुपा राय के किरदार की मृत्यु दिखाई गयी तो लोगों ने रोना शुरू कर दिया। थियेटर से बाहर लोगों में अलग ही दुख था। वह इस अंत को सह नहीं पा रहे थे। रिंकी का मानना है कि इस फिल्म में शंभू महतो को पूरी फिल्म में संघर्षरत ही दिखाया गया लेकिन चूंकि भारतीय जनता अपने संघर्षरत हीरो को हमेशा विजयी देखना चाहती थी। इसलिए सब दुखी थे । तब ऋषिकेश मुखर्जी ने बिमल रॉय को फोन पर कहा कि दर्शक इस अंत को नहीं ले पा रहे हैं। अंत बदलना ही होगा। तब जाकर बिमल रॉय ने इसका अंत कुछ और सोचा और निरुपा राय और बलराज सहानी को मिलते हुए दिखाया।

दिलीप कुमार को संभालना हर किसी के बस की बात नहीं थी रिंकी भट्टाचार्य की स्वीकारती हैं कि उस दौर में बिमल रॉय ही उन निर्देशकों में से एक रहे, जिन्होंने दिलीप कुमार के साथ अपने अंदाज वाली फिल्म बनाने में कामयाबी हासिल की। रिंकी कहती हैं कि दिलीप कुमार को संभालना उस दौर में हर निर्देशक के वश की बात नहीं थी। कारण ये था कि दिलीप कुमार की यह आदत थी कि वह अपनी फिल्म की हर स्क्रिप्ट में खूब दखल देते थे। फिल्म मधुमती का किस्सा सुनाते हुए हुए रिंकी कहती हैं कि दिलीप कुमार घर पर आते थे और मुझे याद है, बाबा से कहते थे कि दादा इसमें यहां पर बिल्ली वाला म्यूजिक डाल देते हैं। बिल्ली के रोने की आवाज डाल देते हैं लेकिन बिमल रॉय कभी किसी एक्टर्स की ऐसी बातें बात नहीं सुनते थे। वजह यह नहीं थी कि वह सलाह लेना पसंद नहीं करते थे। बिमल रॉय की फिल्मों की खासियत रही थी कि उनकी फिल्मों में हमेशा बाउंड स्क्रिप्ट के साथ शुरू होती थीं।

रिंकी बताती हैं कि दिलीप कुमार को लेकर ये बातें उस दौर में खूब होती थीं कि दिलीप कुमार सिर्फ बिमल रॉय और महबूब खान से ही हैंडल हो सकते हैं लेकिन दिलीप कुमार बिमल रॉय की फिल्मों की बेहद इज्जत करते थे। यही वजह थी कि जब उन्हें पहला आॅफर मिला था तो उन्होंने फ़ौरन हां कर दी थी। रिंकी बताती हैं कि उस वक़्त दिलीप कुमार की आग आ चुकी थी। वह ट्रेजडी किंग बनने के रास्ते पर थे। ऐसे में बिमल दा के ज़हन में दिलीप कुमार देवदास के रूप में आये। देवदास ने दिलीप कुमार को हिंदी सिनेमा का ट्रेजडी किंग बना दिया। खुद दिलीप कुमार ने कई बार अपने इंटरव्यू में यह बात दोहरायी है कि बिमल दा बेहद कम बातचीत करते थे लेकिन उनकी आंखें ही बता जाती थीं कि उन्हें क्या करना है। हमसे उन्हें क्या चाहिए।

दो फिल्मों का करार, बाउंड स्क्रिप्ट, नो ब्लैक मनी , समय पर शूटिंग पूरी

आपको यह बात जान कर हैरानी हो सकती है, लेकिन यह सच है कि उस दौर में भी बिमल रॉय एक्टर्स के साथ बकायदा दो फिल्मों की डील किया करते थे और वह भी बकायदा राइटिंग कांट्रैक्ट के साथ। रिंकी भट्टाचार्य ने बताया कि आज भी उनके पास उनके पिता की फिल्मों के सारे करार वाले दस्तावेज सहेज कर रखे हैं। बिमल रॉय ने हमेशा इन बातों को तवज्जो दी कि उन्होंने कभी भी अपने साथ काम करने वाले लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं होनेदी। तभी तो उनकी फिल्मों में भी उनकी वह छवि नज़र आती थी . रिंकी कहती हैं कि उन्होंने दिलीप कुमार , धर्मेंद्र और नूतन के साथ दो फिल्मों की डील कर रखी थी। फिल्मवालों के साथ वो उस अभियान में सबसे आगे रहे कि इंडस्ट्री में ब्लैक मनी काम नहीं होना चाहिए। सब लेन-देन पारदर्शी हो। उनके साथ काम कर रहे कलाकारों में नूतन, शर्मिला और धर्मेंद्र भी इसके तैयार हो गये थे। उस दौर में बिमल रॉय उन निर्देशकों में से एक रहे हैं, जिन्होंने कभी भी सेट पर शूटिंग के वक्त अपनी कहानियों में तब्दीली नहीं की। वह हमेशा तय स्क्रिप्ट के अनुसार ही आगे बढ़ते थे। रिंकी कहती हैं कि बिमल रॉय को उस दौर में बाकी निर्देशक इन कारणों से भी तवज्जो देते थे क्योंकि उन्होंने फिल्मों में एक्टिंग का स्टाइल भी बदला था। उन्होंने थियेरिटकल मेथेड को बदल कर नेचुरल एक्टिंग पर जोर दिया था।

कुछ ख़ास बातें -

* किसी दौर में इस विषय पर बात चली थी कि बिमल रॉय के नाम पर फिल्म इंस्टीटयूट का गठन किया जाये। बिमल रॉय ने मुंबई की फिल्म सिटी की परिकल्पना में अपना काफी योगदान दिया था।

* यह विडंबना है कि हिंदी सिनेमा के इस महान फिल्मकार बिमल रॉय को कभी पद्मश्री या दादा साहब फाल्के जैसे सम्मान से सम्मानित नहीं किया गया। इस बात से उनके फ़ैंस और परिवार को दुःख है।

* दिलीप कुमार ने एक इंटरव्यू में स्वीकारा था कि यह हमारे भारत देश की विडंबना थी कि बिमल रॉय की मौत के बाद उनके परिवार को उनका मकान फौरन खाली करना पड़ा था। यहां फिल्मी हस्तियों को वह सुविधाएं नहीं मिलीं।

* बिमल रॉय संगीत से बेहद प्रेम करते थे। घर आने के बाद किताबें और रेडियो ही उनका सबसे प्यारा साथी होता था। वो एकांतप्रेमी लेकिन काफी रोमांटिक भी थे। इसलिए मधुमती जैसी फिल्म में बेहतरीन 11 गानों का निर्माण संभव हो पाया।

* बिमल रॉय की चाहत थी कि वह कुंभ मेले पर एक फिल्म बनाये। उन्होंने कुछ फुटेज भी लेकर रख लिये थे लेकिन इसके बाद उनकी तबियत बिगड़ती गयी और अंतत: फिल्म अधूरी रह गयी। बाद में बिमल रॉय की पत्नी की चाहत थी कि इस पर फिल्म पूरी हो। गुलजार ने कहानी लिखनी शुरू भी की लेकिन फिल्म पूरी नहीं हो पायी। * कम लोगों को ही इस बात की जानकारी होगी कि बिमल रॉय की पत्नी मनोबिना रॉय, बिमल रॉय की तरह ही बेहतरीन फोटोग्राफर थीं और फिल्मों की शूटिंग के दौरान वह बिमल रॉय के साथ तस्वीरें लेने जाया करती थीं। बिमल रॉय के जीवन की कई बेहतरीन तस्वीरें उन्होंने ही उतारी थी। बिमल रॉय उनके नानाजी के घर में भद्रो मानुस (भद्र पुरुष) के रूप में ही लोकप्रिय थे।

* लोग बिमल रॉय को हैंडसम हीरो कह कर ही बुलाते थे। कई तस्वीरों में बिमल रॉय और शशि कपूर की तस्वीरों में समानता दिखती है। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान तो सभी कास्ट और क्रू ने उन्हें यहां तक कह दिया था कि वह क्यों नहीं खुद हीरो बन जाते हैं लेकिन उन्हें कभी हीरो बनने की चाह ही नहीं थी।

 

जब मधुबाला-वहीदा का सपना रहा अधूरा, और शर्मिला-धर्मेद्र की ये फिल्म भी

बिमल रॉय की फिल्में उनकी निजी ज़िन्दगी में उनके सरल और सादे स्वभाव की तरह ही होती थीं . दिखावटी शोर वाली नही बल्कि फिल्मों के माध्यम से खामोशी में भी उठने वाली बगावत थीं। वहां फिल्म का मतलब सिर्फ एंटरटेनमेंट नहीं था लेकिन इसके बावजूद उस दौर की मेनस्ट्रीम फिल्मों की हसीन अभिनेत्रियां उनके कैमरे के सामने तेवर दिखाने को आतुर रहती थीं। रिंकी बताती हैं कि मधुबाला उस दौर में उसी इलाके में रहती थीं, जहां बिमल दा रहा करते थे। वह कई बार घर आती थीं और बिमल से उन्होंने कहा कि वह उन्हें फिल्म बिराज बहू में कास्ट करें लेकिन बिमल अपनी कास्टिंग को लेकर भी किसी की सुना नहीं करते थे। वह जानते थे कि मधुबाला बिराज बहू के किरदार में फिट नहीं बैठेंगी। मधुबाला उस दौर की सुपरस्टार थीं लेकिन उन्होंने मधुबाला की एक न सुनी। वहीदा रहमान भी इस बात से मन मसोस कर रह गयी थीं कि उनके साथ बनते-बनते बिमल रॉय की एक फिल्म न बन सकीं। शर्मीला टैगोर और धर्मेंद्र को लेकर बिमल दा ने बड़ी फिल्म की घोषणा की थी लेकिन वह फिल्म भी अधूरी ही रह गयी. धर्मेंद्र और दिलीप ताउम्र बिमल रॉय के प्रिय कलाकार रहे। वजह यह है कि बिमल दा का मानना था कि वह जो भी चरित्र सोचते हैं, ये दो कलाकार उसे जीवंत कर देते थे।

शोहरत नहीं सोहबत के धनी

बिमल रॉय ने हमेशा अपनी ज़िंदगी में इन बातों तवज्जो दी कि दर्शक उनकी फिल्में टिकट खरीदकर इसलिए देखते हैं, क्योंकि वह चाहते हैं कि आगे भी बिमल वैसी ही फिल्में बनाये। सो, बिमल रॉय को कभी पूंजीपतियों की चाह नहीं रही। वह मकान में अपना पैसा लगा कर महल बनाने की बजाय दूसरी फिल्म की तैयारी में जुटते थे। यही उनकी खासियत थी। रिंकी बताती हैं कि उस वक्त कोलकाता में सिनेमा निर्माण के लिए हालात ठीक नहीं थे। न्यू थियेटर भी बंद होने की कगार पर था . जहां पहले 25 प्रिंट रिलीज होते थे, घटकर 10 पर आ चुके थे। प्रोडक्शन खत्म हो रहा था। स्टूडियोबंद हो रहे थे। ऐसे में मुंबई की बॉम्बे टॉकीज से हिरेन चक्रवर्ती का फोन आया कि तुम बांबे ( अब मुंबई) आ जाओ। बिमल रॉय ने तब स्पष्ट कहा कि मैं एक ही शर्त पर आऊंगा, अगर मेरे साथ मेरी पूरी टीम को भी बुलाओ, जिनमें ऋषिकेश मुखर्जी, सलील चौधरी, नेवेंदु घोष थे। बिमल रॉय ने अपने शोहरत से अधिक सोहबत की चाहत रखी और वह अपनी टीम के साथ फिल्में बनाते रहे। उस दौर में फिल्म बनाने के लिए बिमल रॉय को 50 हजार रुपये की बड़ी रकम दी गई थी।

ऐसा है फिल्म देवदास का ये दिलचस्प किस्सा रिंकी भट्टाचार्य बताती हैं कि उस दौर में बिमल रॉय व उनके संगी-साथी एक दूसरे से इस कदर घुले- मिले रहते थे और एक दूसरे की कद्र करते थे कि उन्हें क्रेडिट से कोई मतलब ही नहीं होता था। देवदास से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए रिंकी बताती हैं कि देवदास फिल्म का संगीत एसडी बर्मन ने संगीत दिया था। आमतौर पर बैकग्राउंड म्यूजिक भी उनका ही होता लेकिन एस डी बर्मन इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ थे कि उस दौर में सलील चौधरी बेस्ट बैकग्राउंड स्कोरर थे। एक दिन बिमल रॉय के साथ एसडी बर्मन आधी रात में सलील के घर पर पहुंचे और कहा कि सलील अरजेंट है, तुमको अभी उठना होगा और देवदास के बैकग्राउंड पर काम करो . सलील ने कहा कि दादा वो तो आप करेंगे न... तो एसडी बर्मन ने कहा कि तुमसे अच्छा कोई नहीं कर सकता . सलील चौधरी ने बर्मन की बात मानी लेकिन कहा कि शर्त यही है कि नाम आप हमारा नहीं आपका ही डालेंगे। रिंकी बताती हैं कि यह उन सभी के आपस का प्यार और सम्मान था कि उनकी जुबान ही पत्थर की लकीर हो जाती थी। रिंकी बताती हैं कि एसडी बर्मन को सभी 'करता' कह कर बुलाते थे। बांग्ला में करता का मतलब बॉस होता है। खुद बिमल दा भी उन्हें उसी नाम से बुलाते थे।

रिंकी उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि जिस दिन बिमल दा का निधन हुआ एस डी बर्मन, सलील चौधरी और ऋषिकेश मुखर्जी पर तो जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। ' द मेन हू स्पॉक इन पिक्चर्स' नाम की किताब में इस बात का जिक्र है कि किस तरह बंदिनी फिल्म में कल्याणी द्वारा गाये रोमांटिक गाने को लेकर बहस हुई थी। गीत था 'मोरा गोरा अंग ले ले...' बाद में लम्बी बहस के बाद बिमल दा ने एसडी बर्मन की बात पर सहमति जता कर इस गाने को फिल्म का हिस्सा बनाया था। बिमल रॉय ने ही गुलजार को बंदिनी फिल्म से पहली बार गाने लिखने का मौका दिया। उनके मित्र देबू सेन, गुलजार को बिमल रॉय से मिलवाने लेकर गये थे।

बंदिनी को प्यार के पिंजरे में रहना था कैद तो सुजाता ने की एक अलग क्रांति

बिमल रॉय की फिल्मों में उन्होंने महिला किरदारों को एक अलग ही दृष्टिकोण से पेश किया। उनकी फिल्मों की महिलाएं नारेबाजी नहीं करतीं। फिर भी क्रांति करती हैं तो दूसरी तरफ रोमांस को लेकर महिलाओं को अपने पुरुष कलाकारों से अधिक एक्सप्रेसिव बनाया है। जहां 'परिणीता' में ललिता, शेखर बाबू से अधिक एक्सप्रेसिव है। वह अपना प्यार दर्शाने में गुरेज नहीं करती। हक जताने में उसे किसी बात की लाज नहीं थीं। ठीक वैसी ही जैसी देवदास की पारो...जिसे देव से प्रेम है तो है। वह फिर लोक लाज की परवाह किये बगैर प्रेम का इजहार करती है। फिल्म बंदिनी में ही देखें तो बंदनी की कल्याणी ताउम्र इस कदर अपने पहले प्रेम में पागल थी कि उसे अपने प्रेमी की पत्नी को जहर देकर मारने का भी ख्याल गलत नहीं लगा। बंदिनी को लेकर चर्चाएं हुई हैं और लोगों ने तर्क दिये हैं कि जब कल्याणी के साथ उसके पहले प्रेम ने इतना धोखा दिया। वह फिर भी अंत में डॉक्टर बाबू को छोड़ कर क्यों पहले प्रेमी के पास ही जाती है। रिंकी कहती हैं कि आप देखें कि सुजाता के अंतिम दृश्यों में जब चारु सुजाता से कहती है कि तुम बेटी जैसी हो...वह तुरंत रोक देती है कि वह यह नहीं सुन सकती...चूंकि वह ताउम्र अछूत कन्या के रूप में ही ताने सुनती रही हैं।

नूतन ने एक वीडियो इंटरव्यू में स्वीकारा है कि उन्हें बंदिनी का गीत मोरा गोरा अंग में बिमल दा ने बिल्कुल मेकअप न करने को कहा था। उन्हें पूरी फिल्म के लिए कुछ साड़ी और ब्लाउज दिये गये थे, जिसे बार-बार बदल कर उन्हें पहनना होता था। नूतन ने मेकअप के रूप में सिर्फ एक बिंदी का इस्तेमाल किया था। बिमल दा को अपने चरित्रों को नेचुरल दिखाना ही पसंद करते थे। फिर चाहे वह देवदास की सुचित्रा सेन का किरदार पारो ही क्यों न हो। रिंकी बताती हैं कि बांग्ला भाषी सुचित्रा सेन ने इस फिल्म के लिए बकायदा हिंदी भाषा पर काम किया था। सुजाता देखने के बाद तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बिमल रॉय को पत्र लिख कर बकायदा उन्हें धन्यवाद कहा था।

उस दौर में जब जातिवाद का मुद्दा हावी था। तब बिमल दा ने बेहद संजीदा तरीके से सुजाता में उसे दर्शाया था। अनुराग कश्यप ने भी अपनी आने वाली फिल्म मुक्काबाज में जातिवाद का मुद्दा उठाया है। वह कहते हैं कि बिमल रॉय अगर आज होते और जिस तरह के हालात पूरे देश में चल रहे हैं, उन्हें खुल कर तो सुजाता जैसी बनाने नहीं दी जाती। इसलिए उनकी फ़िल्में आज भी प्रासंगिक हैं। बिमल रॉय जैसे निर्देशक समय से आगे चलते थे। दूर की सोचते थे और वह आगे का सिनेमा बनाते थे। आज जिस तरह का माहौल है और जिस तरह से विवाद हो जा रहे हैं, हम कई साल पीछे जा रहे हैं और खुद को पीछे ढकेल रहे हैं।

 

बिमल रॉय को पांच बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया और सात बार फिल्म फेयर अवॉर्ड से। उन्होंने आखिरी बार समरेश बसु के उपन्यास पर आधारित फिल्म अमृत कुंभ की ख़ोज में नाम की फिल्म बनाना शुरू की थी लेकिन वो पूरी नहीं हो सकी।


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