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दरअसल: 'गर्दिश में है आसमान का तारा है...', गीतकार शैलेंद्र के जन्म दिवस पर विशेष

...और एक बार लिखते-लिखते उनकी कलम की रोशनाई खत्म हो गई। गीत अधूरा छोड़ कर शैलेन्द्र उठना नहीं चाहते थे। उन्होंने इधर-उधर नजर दौड़ाई।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Thu, 30 Aug 2018 04:45 PM (IST)Updated: Fri, 31 Aug 2018 06:59 AM (IST)
दरअसल: 'गर्दिश में है आसमान का तारा है...', गीतकार शैलेंद्र के जन्म दिवस पर विशेष
दरअसल: 'गर्दिश में है आसमान का तारा है...', गीतकार शैलेंद्र के जन्म दिवस पर विशेष

- अजय ब्रह्मात्मज

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इन दिनों फिल्मों के लेखकों और गीतकारों को प्रमुखता देने की भावना जोर पकड़ रही है। पोस्टर पर भी उनके नाम दिए जा रहे हैं। आवश्यक और स्वाभाविक क्रेडिट का भी श्रेय लेने की कोशिश की जा रही है। किसी भी फिल्म की शुरुआत लेखक के शब्दों से होती है और गीतकार गीतों से उसे सजाता है। पैसों और महत्व के हिसाब से लेखकों और गीतकारों का सम्मान और आदर बढ़े तो यह अच्छी बात होगी। पुराने और नए समय की फिल्म इंडस्ट्री में एक फ़र्क तो साफ दिखाई पड़ता है।

लेखकों और गीतकारों को सम्मान व महत्व दिए जाने की ज़रूरत के बावजूद निर्माता-निर्देशक और लेखक-गीतकार के रिश्तो में पहले जैसी आत्मीयता नहीं दिखाई पड़ती। इस संदर्भ में अनायास ही शैलेन्द्र और राज कपूर अंतरंगता और आत्मीयता याद आती है। आज शैलेन्द्र का जन्मदिन ( 30 अगस्त 1923) भी है। तस्वीरों और वीडियो में दोनों के नजदीकी और परस्पर मोहब्बत देखी जा सकती है। मिलने पर राज कपूर और शैलेन्द्र गले मिलने, कंधे पर हाथ रखने और बालों को सहलाने मैं नहीं हिचकते थ। अभी ऐसी अंतरंगता और बैठकी नहीं दिखाई पड़ती।

बताते हैं शैलेन्द्र से बातचीत करते समय राज कपूर ज्यादातर उनके पांवों के पास बैठते थे। वे उन्हें कविराज या पुश्किन (लेनिन के प्रिय रूस के मशहूर लेखक) कह कर बुलाते थे। जन आंदोलनों से निकले शैलेन्द्र के फिल्मी गीत सामाजिक और राजनीतिक चेतना से लैस थे. फिल्मी गीतों में ऐसी सामाजिकता और प्रतिबद्धता कम दिखाई पड़ती है। उनके गीतों में राजनीतिक चेतना का प्रवाह दिखाई पड़ता है। उनके गीत की एक पंक्ति ‘हर जोर ज़ुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है' आज भी नारे के रूप में इस्तेमाल होती है।

राज कपूर के मन में शैलेन्द्र के प्रति अथाह आदर था। शैलेन्द्र को देखते ही उनकी आंखों से स्नेह बरसता था। राज कपूर ने उन्हें पहली बार एक कवि सम्मेलन में सुना था। इप्टा (इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन) द्वारा आयोजित इस कवि सम्मेलन में शैलेन्द्र ने पार्टीशन की आग में धू-धू जल रहे पंजाब का जिक्र किया था... जलता जलता है, पंजाब हमारा प्यारा. इस सम्मेलन में राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ गए थे। राज कपूर जल्दी ही अपनी फिल्म ‘आग’ शुरू करने वाले थे। उन्हें शैलेन्द्र की कविता फिल्म की टीम के लिए उचित लगी। वे उसका गाने के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते थे।

कवि सम्मेलन खत्म होते ही वे लपककर शैलेन्द्र से मिले। उन्होंने अपनी इच्छा जाहिर की, लेकिन शैलेन्द्र ने दो टूक शब्दों में कविता के कारोबार’ से इंकार कर दिया। वहां से शैलेन्द्र माटुंगा के रेलवे वर्कशॉप में मजदूरों के बीच लौट गये। उधर राज कपूर ने पहली फिल्म ‘आग' पूरी कर ली। समय बीता। शैलेन्द्र की शादी हो गई। सीमित आमदनी में तंगहाली बढ़ती गई। पहले शिशु के जन्म का समय आया तो पैसों की जरूरत की वजह से शैलेन्द्र को राज कपूर की याद आई। मिलने गए और बगैर लाग लपेट के उन्होंने साफ शब्दों में पूछा,क्या आप का प्रस्ताव अब भी बरकरार है? अगर हां तो मुझे 500 रुपयों की जरूरत है। राज कपूर ने उन्हें पैसे दिए।

कुछ महीनों के बाद शैलेन्द्र पैसे लौटाने आए तो राज कपूर ने ‘बरसात’ के गाने लिखने के फरमाइश की। वादे के मुताबिक शैलेन्द्र ने दो गीत लिखे और यहां से बतौर गीतकार शैलेंद्र के करियर की शुरुआत हो गई। शैलेंद्र की खूबियों और खासियतों को जानने के लिए उनके 800 से अधिक फिल्मी गीत काफी हैं। उन्होंने अपने दौर के सभी प्रमुख निर्देशको और संगीतकारों के साथ काम किया। उन्होंने एक साथ राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद के लिए गीत लिखे। राज कपूर से उनकी दोस्ती थी। उन्होंने दिलीप कुमार और देव आनंद की फिल्मों के गीतों में भी भावों की समान ऊंचाई रखी।

प्रणय, प्रेम,वियोग, सौंदर्य और प्रकृति के बखान में उन्होंने नए बिंबों, शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल किया। उस दौर में उर्दू के बड़े शायर फिल्मों में गीतकार के तौर पर सक्रिय थे। इनके बरअक्स शैलेन्द्र के गीतों में हिंदी, ब्रज और भोजपुरी की रवानी दिखाई पड़ती है। उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ मधुर गीत लिखे। उन्होंने ‘बरसात’ में हिंदी फिल्मों का पहला शीर्षक गीत लिखा... बरसात में, हम से मिले तुम सजन, तुम से मिले हम बरसात में। दर्जनों फिल्मों के शीर्षक गीत उनके नाम से मशहूर है। ’दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘हरियाली और रास्ता’ और ‘हरे कांच की चूड़ियां’ जैसे शीर्षकों को भी उन्होंने गीतों में पिरो दिया।

उनसे जुड़े दो प्रसंग याद आते हैं। ’आवारा’ फिल्म के नैरेशन के समय राज कपूर ने शैलेन्द्र को बुला लिया था। इस बात से ख्वाजा अहमद अब्बास बहुत खुश नहीं थे। फिर उन्होंने कहानी सुनाई। नैरेशन के बाद शैलेन्द्र उठ कर जाने लगे राज कपूर ने पूछा, ’क्यों कविराज कुछ बताओगे नहीं।’ अनमने से अब्बास साहब के चेहरे पर यही भाव था कि क्या बताएगा? चलते चलते शैलेन्द्र ने कहा,’गर्दिश में है आसमान का तारा है, आवारा है।’ यह सुनते ही मंत्रमुग्ध अब्बास साहब ने कहा,’आपने तो पूरी फिल्म एक लाइन में कह दी।’ सभी जानते हैं इसी पंक्ति से फिल्म का शीर्षक गीत लिखा गया।

...और एक बार लिखते-लिखते उनकी कलम की रोशनाई खत्म हो गई। गीत अधूरा छोड़ कर शैलेन्द्र उठना नहीं चाहते थे। उन्होंने इधर-उधर नजर दौड़ाई। उन्हें अचानक सूझा कि सिगरेट के लिए जलाई गई तीलियों की काली ठूंठ से बाकी पंक्तियां पूरी की जा सकती हैं। उन्होंने यही किया और भाव बिखरने के पहले गीत पूरा हो गया।


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