पैड मैन के सामने पद्मावत: क्या सचमुच ज़रूरी है ये टकराव
एक इतनी बड़ी कमर्शियल फिल्म को एक नाज़ुक से लेकिन देश के लिए अहम् मुद्दे पर आधारित फिल्म के सामने लाना कही न कही ठीक नहीं लगता है।
मुंबई, पराग छापेकर। फिल्म ‘पैड मैन’ फिल्म का आना किसी एक सामान्य फिल्म आने की तरह तो नहीं। निश्चित ही ये एक सामाजिक क्रांति है। ये कोई बड़ी कमर्शियल फिल्म नहीं बल्कि छोटी सी (बजट में ) फिल्म है लेकिन एक कलाकार के सामाजिक सरोकार के चलते अक्षय कुमार जैसे बड़े सितारे ने इस फिल्म में न सिर्फ काम करना स्वीकार किया बल्कि इसका निर्माण भी किया है।
बड़ी मेहनत से अक्षय और उनकी टीम ने इस नाज़ुक मुद्दे पर आधारित फिल्म को चर्चा का विषय तो बनाया ही साथ ही ये भी निश्चित किया कि फिल्म को ज़्यादा से ज़्यादा लोग देख पाए ताकि देश में महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर अधिक जागरूकता फैले। फिल्म को ऐसे मुद्दे पर बनाया गया है, जो भारत की आम महिलाओ के लिए अत्यंत जरुरी है। आज भी ग्रामीण भारत में शिक्षा के अभाव में महिलाये अपने स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ करती हैं और मासिक धर्म के समय पैड्स को छोड़ घरेलू उपाय अपनाती हैं। ऐसे में अचानक संजय लीला भंसाली का पद्मावत को रिलीज़ करने का फैसला महिलाओं से जुड़े इस अभियान के प्रसार को नुकसान पंहुचा सकता है। पद्मावत को लेकर इतने विवाद हो चुके है कि इस फिल्म को अब प्रमोशन की जरुरत नहीं। दर्शक उसे देखना ही चाहते हैं। एक इतनी बड़ी कमर्शियल फिल्म को एक नाज़ुक से लेकिन देश के लिए अहम् मुद्दे पर आधारित फिल्म के सामने लाना कही न कही ठीक नहीं लगता है। बॉक्स ऑफिस पर जंग कोई नयी बात नहीं लेकिन साथ ही एक बड़ी फिल्म को सलामी देने के लिए उसे दो हफ्तों का खुला आसमान देने का भी रिवाज़ है। इस छोटी लेकिन इरादों से बड़ी फिल्म पैड मैन को भी सलामी दे कर सोलो रिलीज़ का सम्मान दिया जाता तो बेहतर होता। जहां भंसाली विवादों के चलते इतना रुके थे तो एक हफ्ते और रुक जाते तो पैड मैन के दर्शक नहीं बंटते।
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फिल्म कोई छोटी- बड़ी नहीं होती, उसका कन्टेन्ट उसे छोटा या बड़ा बनता है। ये बात भले ही सही है मगर फिर भी सैनिटरी पैड्स की आवश्यकता पर सामाजिक मुद्दा, भव्य सेट्स और विशाल लागत से बनी फिल्म पद्मावत का मुकाबला न्यायसंगत नहीं लगता।