एक विलेन, जो मन का मीत हो गया... विनोद खन्ना की पहली पुण्य तिथि पर विशेष
1968 में जब विनोद खन्ना ने 'मन का मीत' से हिंदी सिनेमा में क़दम रखा, तो 22 साल के इस दुबले-पतले नौजवान की आंखों में तैश देखकर वो सहमे तो...
मनोज वशिष्ठ, मुंबई। विनोद खन्ना के अलविदा कहे हुए 27 अप्रैल को एक साल पूरा हो गया। मुंबई के एक अस्पताल में इसी दिन उन्होंने आख़िरी सांस ली थी। पिछले साल इस ख़बर से सिर्फ़ इंडस्ट्री नहीं, हम और आप भी सदमे में थे। हम भारतीय भावुक लोग होते हैं। सिर्फ़ पर्दे पर अपने हीरो को देखकर उससे जुड़ जाते हैं। उसको अपना मानने लगते हैं। मीलों दूर बैठे हुए भी वो सितारा हमारी आंखों का तारा बन जाता है। फिर विनोद खन्ना तो ऐसी शख़्सियत थे, कि ना चाहते हुए भी प्यार हो जाए। पहली पुण्य तिथि पर उनकी यादों को एक श्रद्धांजलि।
विनोद खन्ना का जाना उस युग के अंत जैसा था, जिसमें बुरे काम करने वाले को भी हम पसंद करने लगते हैं। उसकी आंखें, बातें, मिज़ाज और अंदाज़ हमें मजबूर कर देता है कि हम उसकी पर्दे पर दिखाई देने वाली बुराइयों को नज़रअंदाज़ करें।
1968 में जब विनोद खन्ना ने 'मन का मीत' से हिंदी सिनेमा में क़दम रखा, तो 22 साल के इस दुबले-पतले नौजवान की आंखों में तैश देखकर वो सहमे तो, मगर उसकी ख़ूबसूरती को नज़रअंदाज़ नहीं कर सके। इसके बाद विनोद खन्ना ने कई फ़िल्मों में निगेटिव रोल्स किए, मगर पर्दे के उस पार की नकारात्मकता ने इस पार बैठे दर्शकों को निराश नहीं किया। ज़हन में सवाल भी उठता था, कि इतने ख़ूबसूरत इंसान से पर्दे पर बुरे काम क्यों करवाए जाते हैं? नफ़रत करने का दिल करे, तो भी ना कर सकें।
हीरो बनने से पहले उन्होंने कई फ़िल्मों में नकारात्मक भूमिकाएं अदा की थीं। 1971 की फ़िल्म मेमसाब बतौर हीरो विनोद खन्ना की पहली फ़िल्म है, जिसमें योगिता बाली उनकी हीरोइन के रोल में थीं। फ़िल्मों का सफ़र चलता रहा और विनोद खन्ना की शख़्सियत का रंग हिंदी सिनेमा के दीवानों पर चढ़ता रहा। मल्टीस्टारर फ़िल्मों में भी विनोद खन्ना अपने को-एक्टर्स को बराबर की टक्कर देते रहे।
कहीं कोई असुरक्षा की भावना नहीं। सत्तर के दशक में अमिताभ बच्चन की कई यादगार फ़िल्मों में विनोद खन्ना उनके जोड़ीदार बने। कभी दोस्त, तो कभी भाई बनकर पर्दे पर आए। मुक़द्दर का सिकंदर, परवरिश, हेराफेरी, अमर अकबर एंथनी जैसी फ़िल्मों में अमिताभ और विनोद की जुगलबंदी ने बॉक्स ऑफ़िस के साथ दिल भी जीत लिए। विनोद खन्ना को उम्दा कलाकार होने के साथ एक साहसी इंसान कहना ग़लत नहीं होगा।
साहस ना होता तो पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पुश्तैनी कारोबार छोड़कर फ़िल्मी दुनिया में ना आते। साहस ना होता तो करियर के शीर्ष पर होने के बावजूद इंडस्ट्री छोड़कर अध्यात्म की तरफ ना जाते। साहस ना होता तो राजनीति जैसा अनजान और नीरस क्षेत्र ना चुनते। उनको गये हुए एक साल हो गया है, लेकिन अभी भी इस कमी को जज़्ब करना आसान नहीं। हाल ही में विनोद खन्ना को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों के तहत दादा साहेब फाल्के पुरस्कार घोषित किया गया।