जागरण फिल्म फेस्टिवल में स्टार रेटिंग पर उठे सवाल
छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल का तीसरा दिन हॉलीवुड की कल्ट स्टेटस की फिल्म 'कासाबालांका' व हिंदी फिल्म 'पीकू' में जुटी भीड़ के नाम तो रही ही, फिल्म समीक्षकों के पैनल डिसकशन में भी सिने प्रेमियों की भीड़ उमड़ी। डिसकशन में दिग्गज समीक्षकों ने शिरकत की। सबने एक सुर में फिल्मों
नई दिल्ली, अमित कर्ण। छठे जागरण फिल्म फेस्टिवल का तीसरा दिन हॉलीवुड की कल्ट स्टेटस की फिल्म 'कासाबालांका' व हिंदी फिल्म 'पीकू' में जुटी भीड़ के नाम तो रही ही, फिल्म समीक्षकों के पैनल डिसकशन में भी सिने प्रेमियों की भीड़ उमड़ी। डिसकशन में दिग्गज समीक्षकों ने शिरकत की। सबने एक सुर में फिल्मों को स्टार रेटिंग देने की मुखालफत की।
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समीक्षकों की तरफ से इंडियन एक्सप्रेस की शुभ्रा गुप्ता, जागरण समूह के फिल्म एडीटर अजय ब्रह्मात्मज व फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने अपना पक्ष रखा। डिसकशन का संचालन फिल्म क्रिटिक मयंक शेखर ने किया। समीक्षकों के अलावा पूजा भट्ट ने भी समीक्षा व समीक्षकों के प्रति अपनी राय रखी।
डिसकशन के दौरान फिल्म समीक्षा की चुनौतियां व उनके इफेक्ट पर मुख्य रूप से चर्चा हुई। शुभ्रा गुप्ता ने बड़ी मजबूती से चर्चा में अपनी बात रखी कि अगर हम फिल्मकारों को फिल्म निर्माण के क्राफ्ट पर क्वेश्चन नहीं कर सकते हैं तो वे भी हमारी समीक्षा पर ऊंगली नहीं उठा सकते। हमने बाकायदा फिल्म की गुणवत्ता व उनमें निहितार्थ चीजों के बारे में रिसर्च की है। हम जानते हैं कि एक उम्दा फिल्म में किन चीजों का समावेश होना चाहिए। जो भी फिल्म मेरे दिल को छूती है, मैं उसकी सराहना करती हूं। हां, मैं दर्शकों व पाठकों पर अपनी राय नहीं थोपती कि आप को फिल्म देखनी ही चाहिए। साथ ही मैं जिस फिल्म के खिलाफ लिखती हूं तो उसकी स्ट्रौंग वजह देती हूं। दुर्भाग्य यह है कि अधिकतर पाठक पूरी समीक्षा पढ़े बिना फिल्म को दिए गए स्टार के आधार पर उसे जज कर लेते हैं। वह उचित नहीं है। रिव्यू पढऩे से सिनेमाई समझ में भी इजाफा ही होता है।
दैनिक जागरण के फिल्म एडिटर अजय ब्रह्मात्मज ने समीक्षकों के समक्ष आने वाली व्यावहारिक दिक्कतों पर रौशनी डाली। उन्होंने कहा कि भारत में फिल्म पत्रकारों के लिए ज्यादा ही चुनौतियां हैं। खासकर हिंदी पत्रकारों के लिए। उन्हें फिल्मकारों की फिल्म समीक्षा करने के बाद अगले ही दिन फिल्मकार विशेष से मिलना भी होता है। अखबार की पॉलिसी होती है। हिंदी के आम पाठकों को सिनेमा की तकनीकी भाषा में समझाने की भी सीमा है। फिल्म समीक्षा एक तरह से काजल की कोठरी में जाकर बाहर निकलने जैसा है।
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फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने सोशल साइटों पर लोगों के अतिरंजित राय पर प्रकाश डाला। उनका कहना था कि उत्तेजक विचार बड़ी जल्दी वायरल होते हैं। उसका खामियाजा कई बार अच्छी फिल्मों को भी भुगतना पड़ जाता है। एक बड़ी अजीब सी बात यह भी है कि लोग फिल्म देखने के चंद घंटों या मिनटों में ही अपने विचार जारी करने को उतावले रहते हैं, जबकि मैं कई बार हफ्ते भर तक का वक्त लेता हूं। जब तक फिल्म देखने के बाद मेरे पास कहने को कुछ नहीं हो तो मैं समीक्षा नहीं भी करता हूं। ऐसी आजादी अखबार या मीडिया समूहों में काम करने वालों के पास नहीं होती।
पूजा भट्ट ने फिल्मकार बिरादरी का पक्ष रखते हुए कहा कि समीक्षकों को फिल्म निर्माण में होने वाली मेहनत को भी ध्यान में रखना चाहिए। फिल्म देखते ही उसकी एकदम से कड़ी आलोचना मेरी समझ से बाहर है। मेरा मानना है कि समीक्षकों से ऊपर जनता-जनार्दन है। उसकी पसंद-नापसंद ही अंतिम तौर पर मैटर करती है।
बहस की आखिर में सबने यह बात मानी कि खानत्रयी की फिल्में क्रिटिक प्रूफ होती हैं। उनका करिज्मा फिल्म के बाकी चीजों पर हावी होता है।