अभिनेता के साथ-साथ लेखक के रूप में भी याद रहेंगे बलराज साहनी
मुंबई। यह बात आज के युवाओं को शायद ही मालूम हो। यह बात तब की है, जब दशकों पूर्व प्रेमचंद परिवार द्वारा प्रकाशित सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका हंस के रेखाचित्रांक में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संबंध में लिखते हुए अभिनेता बलराज साहनी ने टिप्पणी की थी, 'द्विवेदीजी में अगर कोई कम
मुंबई। यह बात आज के युवाओं को शायद ही मालूम हो। यह बात तब की है, जब दशकों पूर्व प्रेमचंद परिवार द्वारा प्रकाशित सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका हंस के रेखाचित्रांक में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के संबंध में लिखते
हुए अभिनेता बलराज साहनी ने टिप्पणी की थी, 'द्विवेदीजी में अगर कोई कमी है, तो वह यह कि वे बहुत ढीले-ढाले रहते हैं।' दूसरी ओर अगर
बलराज साहनी के बारे में अगर कुछ लिखा जाए ,तो उनके जरिए आचार्यश्री के बारे में कही गई बात को बिल्कुल उलट दिया जाए तो सही होगा। यानी
बलराज साहनी में अगर कोई कमी थी, तो वह यह कि वे जरूरत से ज्यादा चुस्त और दुरुस्त रहने के
आदी थे। अपनी इसी आदत के कारण वे एक लोकप्रिय कलाकार होते हुए भी जनसामान्य से दूर हो जाते थे।
बलराज साहनी से जिसने भी मिला, उनसे मिलते समय उनका जो पहला असर किसी पर पड़ता था, वह यह कि वे बेहद घमंडी किस्म के इंसान हैं। सच तो यही है कि वे जीनियस तो थे
ही। इसका कारण शायद यह भी था कि वे अपने समय के अर्द्ध या अल्पशिक्षित कलाकारों के बीच
अकेले ऐसे व्यक्ति थे, जिसे सचमुच पढ़ा-लिखा माना जाता था। सिर्फ किताबी शिक्षा के मामले में
ही नहीं, बल्कि जीवन की हर विधा में। कलाकार होने के अतिरिक्त वे एक प्रथम श्रेणी के कथाकार
थे। शांतिनिकेतन और सेवाग्राम में उन्हें बरसों गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और बापू के निकटतम,स्नेह-सान्निध्य का अवसर मिला था और जिस
जमाने में सामान्य लोगों के लिए लंदन बेहद दूर माना जाता था, उन दिनों वे बीबीसी के वरिष्ठ उद्घोषक के रूप में कार्यरत रह चुके थे। राजनीति
के क्षेत्र में भी उनका समुचित योगदान होता था।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे एक सक्रिय सदस्य थे और इसी वजह से उन्हें कई बार जेलयात्रा भी करनी पड़ी थी। सन 1950 की बात है। जब बलराज साहनी नरगिस, दिलीप कुमार, सितारा, के. एन. सिंह, जीवन, याकूब, कुक्कू आदि अभिनीत एस. के. ओझा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म 'हलचल', जो सन 1951 में रिलीज हुई थी, में
जेलर की भूमिका निभा रहे थे। उन दिनों वे बंबई (अब मुंबई) की आर्थर रोड जेल में नजरबंद थे। इस फिल्म में काम करने के लिए महाराष्ट्र की तत्कालीन सरकार द्वारा उन्हें विशेष रूप से पेरोल पर रिहा किया गया था।
मूल रूप से बलराज साहनी लेखन क्षेत्र की ही पैदावार थे और यह एक संयोग था कि कालांतर में उनका अभिनय पक्ष अधिक प्रकाशित हो सका। सन 1936 के आसपास जब प्रेमचंदजी का देहावसान हुआ था और उनके पुत्र श्रीपतराय ने हंस का कार्यभार संभाला था, बलराज साहनी भी उन दिनों कहानी लेखन में अपनी किस्मत आजमा रहे थे। उसी दौरान उनकी भेंट श्रीपतराय से हुई और श्रीपतराय ने उन्हें हंस में कहानियां लिखने के लिए प्रेरित किया। बलराज साहनी की पहली कहानी हंस में ही छपी थी। उसके बाद उन्होंने नियमित रूप से हंस के लिए लिखना शुरू कर
दिया और कुछ दिनों तक वे उसके परामर्श देने वाले सम्पादक मंडल के सदस्यों में भी रहे। वे इप्टा से जुड़े और बाद में उन्हें बड़ी उम्र में
अभिनय करने का अवसर मिला। उन्होंने पहली बार अभिनय किया सन 1946 में आई ख्वाजा अहमद अब्बास निर्देशित फिल्म 'धरती के लाल'
में। इसी फिल्म में पहली बार जोहरा सहगल ने भी अभिनय किया। बाद में उनकी तमाम फिल्में आई, जो कमाल साबित हुई।
मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर