'जेड प्लस' में शायराना अंदाज में दिखेंगे मुकेश तिवारी
मुंबई। ग्लैमर जगत में डेढ़ दशक से ज्यादा की इनिंग खेल चुके हैं अभिनेता मुकेश तिवारी। खल चरित्रों से अदाकारी की पारी शुरू करने वाले मुकेश अब कॉमेडी का रुख कर चुके हैं। 'गोलमाल" फ्रेंचाइजी के वसूली भाई के किरदार को वे खासा पॉपुलर कर चुके हैं। बहरहाल, अब उनकी
मुंबई। ग्लैमर जगत में डेढ़ दशक से ज्यादा की इनिंग खेल चुके हैं अभिनेता मुकेश तिवारी। खल चरित्रों से अदाकारी की पारी शुरू करने वाले मुकेश अब कॉमेडी का रुख कर चुके हैं। 'गोलमाल" फ्रेंचाइजी के वसूली भाई के किरदार को वे खासा पॉपुलर कर चुके हैं। बहरहाल, अब उनकी आगामी फिल्म 'जेड प्लस' आ रही है।
वे अपने किरदार के बारे में बताते हैं, 'मेरा चरित्र हबीब एकांगी है। वह शायर है। वह अपने गीत लिख-लिख कर मुंबई फिल्मकारों को भेजता रहता है। दूसरा उसे मुगालता है कि जावेद अख्तर और गुलजार साहब जैसे लोग उसके गाने चुराते हैं। मगर, फिल्म में उसका अहम काम है। फिल्म के नायक असलम पंचर वाले को हबीब की वजह से ही जेड प्लस सुरक्षा मिलती है। फिल्म के निर्देशक डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी ने किरदार को काफी खूबसूरती से गढ़ा है। फिल्म राजस्थानी पृष्ठभूमि की है, मगर उसकी अपील राष्ट्रव्यापी है।
मैं खुशकिस्मत रहा हूं कि मैं स्टीरियोटाइप नहीं हुआ। वसूली भाई को मैंने 'गोलमाल' के लिए ही बचाकर रखा है। उसे कहीं और इस्तेमाल नहीं करूंगा। मैं 'चाइना गेट' से लेकर अब तक वरायटी रोल करता रहा। डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेद्वी की ही 'मोहल्ला अस्सी' में मैं आपको अलग अवतार में दिखूंगा। 'गंगाजल' के बाद स्टीरियोटाइप होने की काफी गुंजाइश थी। मुझे हर अगला रोल इंस्पेक्टर का ही मिलने लगा। 'गंगाजल' का बच्चा यादव सिर्फ पुलिस की नौकरी कर रहा था, मगर शख्सियत के तौर पर उसके लेयर को लोग देखते ही नहीं।
बहरहाल, कॉमेडी भूमिकाएं स्वीकारने के पीछे अहम वजह यह भी रही कि 1998 के बाद से टिपिकल विलेन वाली भूमिकाएं ही हटा दी गईं। डायलॉगबाजी खत्म हो गई। नए किस्म का रियलिज्म सिनेमा पर हावी हो गया। टिपिकल विलेन और हीरो वाली फिल्में फ्लॉप होने लगीं। खूंखार विलेन ही क्या, फिल्मों से टिपिकल मां, बहन इत्यादि गुम हो चुके हैं। उन दिनों फ्लॉप का सीधा कनेक्शन कलाकारों के काम पर पड़ता था। अब कॉरपोरेट्स के आने के बाद से ऐसा नहीं होता। फिल्में चलें न चलें हीरो को छोड़ दें तो बाकी कैरेक्टर या एंटी हीरो को काम मिलते ही हैं।
खूंखार विलेन का दौर आएगा। सातवें- आठवें और नौवें दशक में भी रियलिस्टिक फिल्मों का जोर था, मगर 'शाकाल', 'मोगैंबो' और 'गब्बर सिंह' जैसे खूंखार विलेन डिमांड में थे। अब डायलॉगबाजी का दौर लौट रहा है। फिर से लार्जर दैन लाइफ हीरो की भूमिकाएं शबाब पर है, तो विलेन भी उस कद और कद-काठी का होगा, तभी लोगों को मजा आएगा। 'सिंघम' के बाद से वैसा होने लगा है।
रहा सवाल 'गोलमाल 4' का तो उसकी पटकथा, जब तक तैयार नहीं होगी, तब तक रोहित शेट्टी उस पर काम नहीं शुरू करेंगे। फिलहाल उसकी कहानी लिखी जा चुकी है। 'जेड प्लस' के अलावा साउथ की फिल्में कर रहा हूं। वहां भी रियलिस्टिक फिल्में बनती हैं, मगर हार्ड हिटिंग सब्जेक्ट की बजाय उनकी कहानियां परिवार, वैल्यू और मोरल लेसन के इर्द-गिर्द ज्यादा रहती हैं। उसकी वजह यह है कि वहां आज भी संयुक्त परिवार का चलन है। नॉर्थ इंडिया में संयुक्त परिवार विलुप्त हो चुके हैं। उत्तर भारत में उपभोक्तावाद ज्यादा हावी है। उसका रिफ्लेक्शन उसे हिंदी फिल्मों में मिलता है।'
(सप्तरंग टीम)