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इंडिपेंडेंट सिनेमा के लिए सरकारी सहयोग की है कमी: मनोज बाजपेयी

सत्यमेव जयते के बाद मनोज अब फिल्म गली गुलियां में दिखाई देंगे जो कि 7 सितंबर मतलब आज रिलीज होने जा रही है।

By Rahul soniEdited By: Published: Sat, 25 Aug 2018 05:27 PM (IST)Updated: Fri, 07 Sep 2018 03:50 PM (IST)
इंडिपेंडेंट सिनेमा के लिए सरकारी सहयोग की है कमी: मनोज बाजपेयी
इंडिपेंडेंट सिनेमा के लिए सरकारी सहयोग की है कमी: मनोज बाजपेयी

अनुप्रिया वर्मा, मुंबई। मनोज बायपेयी की फिल्म सत्यमेव जयते हाल ही में रिलीज हुई है और इस फिल्म को काफी सफलता मिली है। उनकी अगली आने वाली फिल्म गली गुलियां हैं, जो कि भारत में जल्द ही प्रदर्शित होगी। लेकिन इससे पहले गली गुलियां कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में पहचान बना चुकी है और सफलता भी हासिल कर चुकी है।

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इस फिल्म के बारे में जागरण डॉट कॉम से बातचीत में मनोज ने बताया कि आपको बहुत संतुष्टि मिलती है, कि जब आप इस तरह की फिल्मों को हिस्सा बनते हैं और देश-विदेश में इसे मान-सम्मान मिलता है। मनोज कहते हैं कि मुझे गर्व है कि मैं इस फिल्म के साथ पूरे विश्व में घूम रहा हूं और हम कई पुरस्कार भी हासिल कर चुके हैं। वह कहते हैं कि उनकी चाहत यही थी कि वह भारत में जरूर फिल्म को रिलीज करें। मनोज बताते हैं, मैं चाहता हूं कि इस फिल्म को अच्छी रिलीज मिले। इस फिल्म की कहानी मानसिक रूप से एक परेशान आदमी की कहानी है। एक आदमी जो अपने दिमाग में, पुराने समय में उलझा हुआ है। एक ऐसा आदमी जो दूसरों के घरों में कैमरा लगा कर देखना चाहता है कि उसकी जिंदगी क्या दूसरों से अच्छी । इस आदमी की जो खोज है, उसी के पीछे की कहानी है। गली गुलियां दरअसल, एक गली है। पुरानी दिल्ली में। गलियों की कहानी है। गलियों में फंसे आदमी की कहानी है। फिल्म 7 सितंबर को रिलीज होने जा रही है। 

निर्देशक को कभी नीचा नहीं समझता

यह पूछे जाने पर कि मनोज किस तरह कर्मशियल फिल्म और पैरलल फिल्में दोनों में ही अच्छी एक्टिंग कर लेते हैं। वह कहते हैं कि मैं निर्देशक और एक्टर की बहुत इज्जत करता हूं। शुरू से लेकर आज तक, जब थियेटर करता था, तब भी मेरे लिए निर्देशक हमेशा मुझसे बड़ा है। मुझसे जो भी अपेक्षा रखता है, जिस तरीके से चाहता मैं वैसे ही काम करता हूं। मुझे पता है कि मिलाप झवेरी कर्मशियल फिल्मों के उपासक हैं और प्रमोटर हैं तो वह जैसा चाहते हैं तो मैं किसी निर्देशक को काटता नहीं हूं। उनको फॉलो करता हूं। मनोज कहते हैं कि मैंने सत्यमेव जयते के रोल के लिए एक दिन भी तैयारी नहीं की, क्योंकि मिलाप चाहते थे कि मैं तैयारी न करूं। जैसा मैं बोलूंगा, वैसा ही कर दीजिए। 

इंडिपेंडेंट सिनेमा के प्रतिनिधि

मनोज कहते हैं कि जब लोग आकर मुझे कहते हैं कि मैं विश्वभर में भारत का प्रतिनिधित्व ऐसी फिल्मों से कर रहा हूं तो मुझे खुशी मिलती है कि मैं कहानी से जुड़ा हूं। मैं एक अच्छी फिल्मों से जुड़ा हूं। हमलोग कहीं से भी अच्छी कहानी बनाते हैं। हर दिन ऐसी फिल्म को लेकर लगता है कि पता नहीं पूरी होगी भी कि नहीं। लेकिन जब मान-सम्मान भारत के अलावा और जगहों पर मिलता है तो संतुष्टि होती है। लेकिन जब भारत आने के बाद दर-दर भटकना पड़ता है तो तकलीफ होती है। 

सरकार का सहयोग

मनोज लगातार इंडिपेंडेंट फिल्में कर रहे हैं। गली गुलियां उनमें से एक है। हाल ही में मेलबर्न सिनेमा में इसे विशेष पहचान के साथ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। यह पूछे जाने पर कि पहले तो सरकार भी इंडिपेंडेंट सिनेमा को सहयोग करती थी। लेकिन अब नहीं। इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि यह सच है कि सरकारी मदद की कमी तो हुई है। जो सहयोग है, किसी भी तरह से, एक पॉलिसी की कमी है कि जहां पर आप एग्जिबिटर को आप बोलें कि आपको इतने शोज देने ही पड़ेंगे इन फिल्मों को, जिस तरह से महाराष्ट गर्वमेंट ने मराठी सिनेमा के लिए किया है। बिना महाराष्ट गर्वमेंट के मराठी सिनेमा उतना अच्छा नहीं कर रही होती, जितना अभी कर रही है। क्योंकि उनके सिनेमा मालिक पहले उनकी बात नहीं सुन रहे थे। हम वैसा ही सपोर्ट अपनी गली गुलिया जैसी फिल्मों के लिए चाहते हैं। केंद्र सरकार हमारी बात सुनें। इस नजरअंदाजी के बारे में मनोज कहते हैं कि किसी भी सिनेमा को किसी भी केंद्र सरकार ने वैसा सहयोग नहीं दिया है। उनको लगता है कि ये वोट बैंक है नहीं। तो वह हमारे बारे में नहीं सोच पाते हैं। जिस दिन हमारी आवाज बहुत ऊंची हो जायेगी या हम ताकतवर हो जायेंगे, हमारी इंडस्ट्री ताकतवर होगी और उनका वोट बैंक बढ़ता होगा तो वो करेंगे।

सेंसर बोर्ड की महत्ता

मनोज कहते हैं कि सेंसर बोर्ड का काम होता है कि सिर्फ वह बता दें कि किस उम्र के लोग इसे देखेंगे और किस उम्र के लोग इसे नहीं देखेंगे। डिजिटल प्लैटफॉर्म पर आज सबकुछ है। अच्छे-अच्छे प्रोडक्ट है। सेंसर बोर्ड कैसे बता सकता है कि मैं क्या देखूं। मैं व्यस्क हूं तो मैं तय करूंगा। कोई भी स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रजातंत्र भी यही कहता है। सिर्फ हमारे यहां पर रोक लगाया जाता है। उससे कुछ रुक नहीं रहा है। कर्मशियल की तालियां पसंद तो इंडिपेंडेंट सिनेमा की संतुष्टि यह पूछे जाने पर कि किस तरह की फिल्में करने से उन्हें संतुष्टि मिलती है। मनोज कहते हैं कि गली गुलियां, अलीगढ़ जैसी फिल्में मुझे धनवान बनाती हैं। एक क्राफ्ट के तौर पर, तकनीकी तौर पर, अभिनेता के तौर पर। ये फिल्में मुझे हर बार एहसास कराती हैं कि ऐसा लगता है कि मैंने एक्टिंग अभी-अभी शुरू की है। और जब मैं इस तरह के रोल करता हूं तो मेहनत करने में मजा आता है। लेकिन जब सत्यमेव जयते करता हूं या तेवर करता हूं और सिंगल स्क्रीन थियेटर में जब जाकर उन फिल्मों को देखता हूं तो लगता है कि लोगों की सीटियां और तालियां देखता हूं तो वहां भी खुशी मिलती है, क्योंकि वैसी फिल्मों को देख कर हम भी बड़े हुए हैं।दोनों फिल्मों की अपनी-अपनी जगह है। मैं ये नहीं कह सकता कि कौन सा बेस्ट हो। मनोज कहत हैं कि हां मेरी कोशिश ये जरूर है कि मैं ज्यादा से ज्यादा इंडिपेंडेंट फिल्में करूं, क्योंकि इसके कर्ता-धर्ता कोई नहीं हैं। हम में से ही कुछ लोग हैं जो पुश कर रहे हैं। मैं चाहता हूं कि मीडिया, इंडस्ट्री के लोग इस तरह की इंडिपेंडेंट फिल्मों को सपोर्ट करें, क्योंकि जहां पर इस तरह की अच्छी कहानियां बनेंगी, सिनेमा बनेगा। वो बहुत अच्छे ढंग से अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में हमारा प्रतिनिधित्व करेंगी।

दिल्ली से रहा है खास नाता

मनोज की गली गुलियां दिल्ली की पृष्ठभूमि पर आधारित है। वह दिल्ली में बिताये अपने समय के बारे में कहते हैं कि मैं तो दिल्ली में रहा हूं। मेरी शादी वही से हुई है। मेरे माता-पिता वही रहते हैं। थियेटर किया है। दिल्ली की एक -एक जगह से वाकिफ हूं। वहां की गलियों से वाकिफ है। पुरानी दिल्ली की संस्कृति बिल्कुल अलग है और इस फिल्म में दिल्ली की कहानी क्यों रखी गयी है। यह फिल्म देखने के बाद पता चल जायेगा।

इंडिपेंडेंट सिनेमा को क्यों नहीं मिलती अच्छी रिलीज

अब भी इंडिपेंडेंट सिनेमा को लेकर वह जागरूकता नहीं है जो होनी चाहिए थी, ऐसा क्यों है। इस पर मनोज कहते हैं कि इंडिपेंडेंट सिनेमा में लागत कम होती है। तो जो आने वाला प्रॉफिट होता है, वह भी उन्हें लगता है कि कम होगा और खास वर्ग ही इसे देखेगा। तो बड़े-बड़े डिस्ट्रीब्यूटर्स इसमें दिलचस्पी दिखाते नहीं हैं। लेकिन इसके बावजूद यह बनती रहीं, क्योंकि कुछ फिल्मकारों और अभिनेताओं का जुनून रहा है। ये बनती रहेंगी और कोई रोक नहीं पायेगा और यह भी है कि जब तक यह फिल्में बन रही हैं, सिनेमा स्वस्थ रहेगा। वरना याद कीजिए, ऐसी फिल्में 80-90 के दशक में जब ऐसी फिल्में बननी बंद हो गयी थीं तो क्या हाल हो गया था। तो ये सिनेमा बनती हैं तो मेनस्ट्रीम सिनेमा में भी कंटेंट आता है। मेनस्ट्रीम र्भी कहानी अपने फार्मूला में लेकर आता है।


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