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'मोरा गोरा रंग लई ले..'

मुंबई। फिल्म 'बंदिनी' के गीत लिखने को लेकर जो मुसीबत चल रही थी, तो गुलजार गीत लिखकर बिमल राय के पास गए। बिमल दा ने उनसे कहा कि आप सचिन दा के पास जाइए..। गुलजार के लिए यह दूसरी समस्या थी। पहली टली तो अब दूसरी समस्या आ गई। गुलजार इस बात को सोचकर परेशान

By Edited By: Published: Wed, 09 Oct 2013 02:22 PM (IST)Updated: Wed, 09 Oct 2013 02:59 PM (IST)
'मोरा गोरा रंग लई ले..'

मुंबई। फिल्म 'बंदिनी' के गीत लिखने को लेकर जो मुसीबत चल रही थी, तो गुलजार गीत लिखकर बिमल राय के पास गए। बिमल दा ने उनसे कहा कि आप सचिन दा के पास जाइए..।

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गुलजार के लिए यह दूसरी समस्या थी। पहली टली तो अब दूसरी समस्या आ गई। गुलजार इस बात को सोचकर परेशान थे। खैर, यह बात भी बन गई, लेकिन कैसे? यह जानते हैं, गुलजार की जुबानी, जो उन्होंने कही है, 'जब मैं सचिन दा के पास गया, हां उन्होंने मुझे वह धुन सुनाई, जो उन्होंने कंपोज की थी। यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी, न सिर्फ सचिन दा से, बल्कि पंचम यानी आर डी बर्मन के साथ भी। तब वे अपने पिता के असिस्टेंट हुआ करते थे और रिकॉर्डिग स्टूडियो में ही जमे रहते थे। मुझे गीत लिखने का काम दिया गया था और मैंने लिखा 'मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे..'। मुझे इस गीत को पूरा करने में एक हफ्ता लग गया। वास्तव में मैंने यह गीत बहुत जल्दी लिख लिया था, लेकिन इसे तराशने में मुझे एक हफ्ता लग गया। जब मैंने सचिन दा को वह गीत सुनाया, तो उन्हें गीत बहुत पसंद आया। वे हिंदी अच्छी तरह से नहीं जानते थे, लेकिन गीत साधारण हिंदी में लिखा था, सो उन्हें इसके बोल के कारण समझने में कोई परेशानी नहीं हुई। जब उन्होंने इस गीत के लिए स्वीकृति दे दी, तब मैंने कहा कि अब मैं इसे बिमल दा को दिखाऊंगा। उन्होंने पूछा, 'क्या आप गा सकते हैं?' 'नहीं' मैंने जवाब दिया, 'मेरा टैलेंट सिर्फ लिखने तक ही सीमित है।' तब सचिन दा ने मुझे बिमल दा के पास जाने से यह कहकर मना कर दिया, 'तुम उनको अच्छा से गाना नहीं सुनाएगा और इस वजह से हमारा अच्छा टयून रिजेक्ट हो जाएगा।'

पढ़ें: 'गुलजार' ऐसे बने गीतकार

गुलजार सचिन दा की विनम्रता के कायल हो गए। इतने बड़े संगीतकार वास्तव में इस बात को लेकर डरे हुए हैं कि उनकी टयून रिजेक्ट हो सकती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सचिन दा की चिंता व्यर्थ साबित हुई। बिमल दा ने गुलजार से गीत सुना और उन्हें बहुत पसंद आया। उन्हें खासतौर पर पंक्तियों की यह कल्पना बहुत पसंद आई, 'बदरी हटा के चंदा, चुपके से झांके चंदा, तोहे राहू लागे बैरी, मुसकाए जी जलाइ के..'। लेकिन एक समस्या थी बिमल दा की। वे फिल्म की हीरोइन को आउटडोर में गीत गवाने में सहज महसूस नहीं करते थे। उनकी राय में सभ्य लड़कियां रात को घर से बाहर गलियों में नहीं निकलतीं। हालांकि सचिन दा की समझ में ये सब बातें नहीं आ रही थीं। वे तो बस इस बात पर अटल थे कि गाना आउटडोर ही फिल्माया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने उसी के मुताबिक संगीत तैयार किया था। मामला अटका रहा, तभी बिमल दा के एक असिस्टेंट ने उठकर कहा, 'बिमल दा, वो अपने पिता के साथ रहती है। वह उनके सामने नाच-गाना कैसे कर सकती है?' बस, सचिन दा उस बच्चे की तरह खुश होकर ताली बजाने लगे, जिसे अपनी पसंद की चॉकलेट मिल जाती है और वे चिल्ला उठे, 'अब तो वो बाहर जाएगी ही..'। फिर बिमल दा को उसी तरह ही सीन रखना पड़ा। जिन लोगों ने फिल्म देखी होगी, उन्हें वह सीन और गीत याद होगा।

गुलजार कहते हैं कि ठीक इसी तरह का मजेदार दृश्य था वह भी, जब दो बूढ़े लोग छोटी-सी बात पर बच्चों की तरह इतनी बहस कर रहे थे और एक-दूसरे को चिढ़ा भी रहे थे, कि अब तो वो यानी हीरोइन नूतन बाहर जाएगी ही..। इस लड़ाई में बच्चों की सी मासूमियत थी, जो फिल्म की बेहतरी के लिए थी। मैंने अपनी जिंदगी में इतने सारे लोगों के साथ काम किया है, लेकिन उस तरह की बहसबाजी कभी नहीं देखी, जो मैंने इन दोनों के बीच देखी।'

गुलजार जैसे न्यूकमर के लिए यह बहुत बड़ा मौका था। दुर्भाग्यवश, यह पहला और आखिरी मौका था, जब उन्होंने सचिन दा के साथ काम किया। इसके बाद जल्द ही सचिन दा और शैलेंद्र के बीच सुलह भी हो गई और फिर उन्होंने गुलजार जैसे नए गीतकार के साथ काम करने से इनकार कर दिया। सचिन दा ने कहा कि अन्य गाने शैलेंद्र लिख देंगे। इससे बिमल दा व शैलेंद्र को जरूर बहुत ज्यादा शर्मिंदगी हुई और बाद में इसके लिए उन्होंने माफी भी मांगी, लेकिन इन सब बातों को लेकर गुलजार के मन में कोई मैल नहीं था। गुजलार ने शैलेंद्र जी से कहा, ये आपकी कुर्सी है, मैंने आपके लिए संभाली थी, अब आप आ गए हैं तो आप ही इसे संभालिए..'।

इतनी बात होने के बाद भी इन तीनों में से किसी को भी अपने काम को लेकर किसी तरह की कोई असुरक्षा की भावना नहीं थी, बल्कि सभी एक-दूसरे के काम की बहुत सराहना करते थे। बिमल दा को गुलजार के बारे में सोचकर बहुत खराब लगा था। उन्होंने एक पिता की तरह उनके बारे में सोचा और कहा, 'यह गैरेज तुम्हारे लायक जगह नहीं है। तुम्हें अब हमारी यूनिट में शामिल हो जाना चाहिए।' उस वक्त वे बलराज साहनी को लेकर फिल्म 'काबुलीवाला' की प्लानिंग कर रहे थे और उसका निर्माण करने वाले थे। गुलजार ने उनकी बात को समझा और फिर उनके असिस्टेंट बन गए। इस तरह गुलजार नाम से उनकी जिंदगी का नया अध्याय शुरू हुआ और इस शुरुआत की वजह बनी एक गीत 'मोरा गोरा रंग लई ले..'।

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