फिल्म रिव्यू: 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती', न डर, न हंसी और न मस्ती (1 स्टार)
हिंदी फिल्मों में सेक्स कॉमेडी के नाम पर इस साल हम ‘क्या कूल हैं हम 3’ और ‘मस्तीजादे’ देख चुके हैं। ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ उसकी कड़ी की तीसरी फूहड़ फिल्म है।
-अजय ब्रह्मात्मज
मुख्य कलाकार- रितेश देशमुख, विवेक ओबेराय, आफताब शिवदासानी, उवर्शी रौतेला।
निर्देशक- इन्द्र कुमार
संगीत निर्देशक- संजीव दर्शन और शारिब और तोषी।
स्टार- एक स्टार
इंद्र कुमार की ‘मस्ती’ 2004 में आई थी। सेक्स कॉमेडी के तौर पर आई इस फिल्म की अधिक सराहना नहीं हुई थी। अब 2016 में ‘मस्ती’ के क्रम में तीसरी फिल्म ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ देखने के बाद ऐसा लग सकता है कि ‘मस्ती’ तो फिर भी ठीक फिल्म थी। अच्छा है कि यह ग्रेट है। अब इसके आगे ‘मस्ती’ की संभावना खत्म हो जानी चाहिए। ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ में सेक्स, कॉमेडी और हॉरर को मिलाने की नाकाम कोशिश है। यह फिल्म नाम के अनुसार न तो मस्ती देती है और न ही हंसाती या डराती है। फिल्म में वियाग्रा, सेक्स प्रसंग, स्त्री-पुरुष संबंध, कामातुर लालसाओं के रूपक हैं, लेकिन इन सबके बावजूद फिल्म वितृष्णा से भर देती है।
कहते हैं मृत्यु के बाद मुक्ति नहीं मिलती तो आत्मातएं भटकती हैं। भूत बन जाती हैं। अपनी अतृप्त इच्छाएं पूरी करती हैं। ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ में भी एक भूत है। इस भूत के रूप में हम रागिनी को देखते हैं। 20 साल की उम्र में उसका देहांत हो गया था, लेकिन देह की इच्छाएं अधूरी रह गई थीं। पिछले पचास सालों से उसका भूत पुरानी हवेली में देह की भूख मिटाने के इंतजार में है। उस हवेली में संयोग से मीत, अमर और प्रेम आ जाते हैं। तीनों शादीशुदा हैं, लेकिन उनके दांपत्य में किसी न किसी कारण से सेक्स नहीं है। तीनों एडवेंचर के लिए निकलते हैं और हवेली में फंस जाते हैं। हां, इसमें एक अंताक्षरी बाबा, एक सास, एक साली और एक साला भी है।
हिंदी फिल्मों में सेक्स कॉमेडी के नाम पर इस साल हम ‘क्या कूल हैं हम 3’ और ‘मस्तीजादे’ देख चुके हैं। ‘ग्रेट ग्रैंड मस्ती’ उसकी कड़ी की तीसरी फूहड़ फिल्म है। मस्ती के लोभ में गए दर्शक ‘कुछ भी नहीं मिला’ कहते हुए सिनेमाघरों से निकल सकते हैं। इंद्र कुमार के दृश्य, संवाद और कलाकारों की कामोत्तेजक मुद्राएं मस्ती और मनोरंजन में विफल रही हैं। लगभग एक जैसे भाव और प्रतिक्रियाओं से ऊब ही होती है। फिल्म के गानों में भी रोमांच नहीं है।
'ग्रेट ग्रैंड मस्ती' में आफताब शिवदासानी की चौंक और चीख खीझ पैदा करती है। रितेश देशमुख ऐसी फिल्मों में उस्ताद हो गए हैं, लेकिन इस फिल्म में उनकी प्रतिभा और संभावना भी चूकमी नजर आती है। विवेक ओबेराय ऐसी फिल्मों के किरदारों में अपना निकृष्ट सामने ला रहे हैं। फिल्मो के महिला चरित्रों के लिए उपयुक्त चयन अभिनेत्रियों के चयन में ही गड़बड़ी दिखती है। वे फिल्म की थीम की जरूरतें पूरी नहीं करतीं। उर्वशी रौतेला में कमियां हैं। संजय मिश्रा सीमित दृश्यों में ही अपने किरदार को निभा ले जाते हैं।
अवधि- 133 मिनट
abrahmatmaj@mbi.jagran.com