अच्छे सिनेमा से अच्छा कुछ भी नहीं, जागरण फ़िल्म फ़ेस्टिवल में युवा दर्शकों का जमघट
अच्छा सिनेमा, ज़िंदगी की मुश्किलों के बीच, ख़ुशहाल ज़िंदगी का स्वप्न देखने वाले "धारावी" (फिल्म निर्देशक- सुधीर मिश्रा) के नायक ओमपुरी की तरह कहता है-"डोंट वरी, बी हैप्पी।"
गीताश्री, नई दिल्ली। सुबह की बारिश दिन के इरादे कमज़ोर कर देती है, लेकिन जब अच्छे सिनेमा से प्यार हो तो क़दम रुकते कहाँ हैं। दिल्ली में चल रहे जागरण फ़िल्म समारोह के दूसरे दिन सुबह से ही उमड़ी भीड़ ने यह अहसास करा दिया कि अच्छे सिनेमा से अच्छा कुछ नहीं होता। यहां तक कि रुमानी मौसम भी नहीं। समारोह की टैग लाइन "अच्छे सिनेमा से प्यार सबको होना चाहिए..." को घटित होते सुबह से शाम तक देखा गया।
समारोह का विज्ञापन है, जिसमें एक सीधा-सादा लड़का और लडकी नदी तट पर बैठे हैं, लड़का पूछता है- "सिनेमा देखती हैं आप ?" शर्मीली नायिका "हां" में सिर हिलाती है। फिर वह श्याम बेनेगल से लेकर कुरोसावा तक का नाम पूछता है। वह हां में सिर हिलाती है। लडका सिनेमा प्रेमी लडकी पर मर मिटता है। हौले से उसका हाथ थाम लेता है। इश्क़ पर भारी सिनेमा या कहें, अच्छे इश्क़ के लिए अच्छे सिनेमा से इश्क़ और जानकारी दोनों ज़रुरी है। अच्छा सिनेमा, ज़िंदगी की मुश्किलों के बीच, ख़ुशहाल ज़िंदगी का स्वप्न देखने वाले "धारावी" (फिल्म निर्देशक- सुधीर मिश्रा) के नायक ओमपुरी की तरह कहता है-"डोंट वरी, बी हैप्पी।"
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आज भीड़ खींचने वाली फ़िल्मों में 'धारावी' भी है। दरअसल सिनेमा इमोशन और विचारों के घालमेल से बनता है।न कम न कम ज़्यादा। वरिष्ठ फिल्म समीक्षक ब्रजेश्वर मदान हमेशा कहा करते थे, "फ़िल्में हमेशा ज़िंदगी से बड़ा होने की कोशिश करती हैं और ज़िंदगी हमेशा उसे छोटा कर देती है।" फिर भी उसकी चमक धूमिल नहीं होती।खिंचे चले आते हैं लोग। नहीं तो आज सुबह के सारे शो फुल ना होते। हिंदी मीडियम जैसी सफल कमर्शियल फ़िल्म भी जब समारोह में दिखाई जाती है तो हाउसफुल हो जाता है।
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गुलज़ार की पुरानी थ्रिलर 'अचानक' दिखाई जाती है तो लोग खडे होकर और फ़र्श पर बैठकर देखते और रोमांचित होते हैं। एक युवा दर्शक सुमित बहुत उत्साहित नज़र आए, "मैंने तय किया है, दुर्लभ फ़िल्में चुन-चुनकर देखूंगा।" सुमित जैसे अनेक दर्शक हैं जो दूर-दराज़ से यहां पहुंच रहे कि उन्हें अच्छा सिनेमा खींचता है। अच्छे सिनेमा की दर्शकों की उम्मीद का पता भी समारोह में लगता है, जब वे खुलते हैं तो विश्व सिनेमा पर बात करके चौंका देते हैं। सिनेप्रेमियों की नज़र सिनेमा के बदलावों पर ख़ूब है।
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मीडिया लाउंज में दो सिनेमा प्रशिक्षु बहस कर रहे हैं कि कैसे आम आदमी ने आज़ादी के बाद जो सपने देखे वे जल्दी ही दु:स्वप्न में बदल गए और इसको उस दौर की फ़िल्मों ने बख़ूबी पकड़ा। दूसरे प्रशिक्षु ने यथार्थ, कला और उसके सौंदर्य को चिन्हित किया। उनकी बहसों में उभरकर यह बात आई कि सिनेमा पर लिखने वाले मशहूर पश्चिमी लेखक आंद्रे बाज़ां ने यथार्थ को एक जगह "एस्थेटिक पैराडॉक्स" कहा है, क्योंकि बिना कल्पना के कला नहीं बनती। विरोधाभासी सौंदर्य विलक्षण प्रभाव पैदा करते हैं। इसीलिए हिंदी फ़िल्मों ने भी ख़ुद को पारंपरिक रुढ़ियों से मुक्त किया। जिसकी तरफ कल ऋषि कपूर और दिव्या दत्ता ने स्पष्ट संकेत किया था।
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अच्छे फ़िल्मकार सिनेमा को पुरानी सौंदर्य सत्ता से मुक्त करते हैं। नए सिनेमा को पुराने प्रतीकों से मुक्ति दिलाते हैं। "अब अच्छे सिनेमा की मांग पैदा हो चुकी है और दर्शक प्यासे हैं।" समारोह में शिरकत करने वाले युवा दर्शक से यह सुनना सुखद है। समारोह में पहुंचने वाले बेचैन दर्शकों को देखकर इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जिनके पांव पानी और कीचड़ में डूबते हुए यहां पहुंचे। अच्छे सिनेमा की ख़ुशबू बारिश की सोंधी गंध भी नहीं रोक पाती।